महर्षि काण्व:- (अंगिरस गोत्र)
सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामण्डल पर टिक जाती है।
वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- 1.वशिष्ठ, 2.विश्वामित्र, 3.कण्व, 4.भारद्वाज, 5.अत्रि, 6.वामदेव 7.शौनक
कण्व, महर्षि घोर के पुत्र थे जिन्होंने ऋग्वेद में अनेक मन्त्रों की रचना की है। घोर ऋषि ब्रह्माजी के पौत्र व अंगिरा जी के पुत्र थे । वेदों और पुराणों में इनका वंश विवरण मिलता है । घोर ऋषि जी के पुत्र कण्व ऋषि थे । कण्वऋषि से भी एक पुत्र हुए जिनका नाम ब्रह्मऋषि सौभरि जी, जिनकी वंशावली ” आदिगौड़ सौभरेय ब्राह्मण” कहलाती है जो कि यमुना नदी के किनारे गांव सुनरख वृन्दावन ,मथुरा व आसपास के क्षेत्रों में इनका निवास है । गोकुल के पास बसी कृष्ण के बडे भाई की “दाऊजी की नगरी” में इनके वंशज ही “दाऊमठ” के पुजारी (पंडा जी) हैं । इसके अलावा राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में भी ये सौभरेय ब्राह्मण अच्छी संख्या में हैं । विष्णु पुराण व भागवद पुराण में इनके उल्लेख मिलता है ।
सदैव तपस्या में लीन रहने वाले ऋषि कण्व का रमणीक आश्रम था जहां शिष्यों की शिक्षा-दीक्षा अनवरत चलती रहती थी। उस काल में वृत्तासुर का आतंक संत-महात्माओं के लिए कष्टदायक बना हुआ था। उसने इन्द्र से इन्द्रासन बलपूर्वक छीन लिया था। वृत्तासुर को भस्म करने के लिए इन्द्र ने महर्षि दधीचि से प्रार्थना की तथा उनकी अस्थि बज्र बनाया और वृत्तासुर को मार दिया। वृत्तासुरके भस्म होने के बाद बज्र सृष्टि को भी अपने तेज से जलाने लगा। इस समाचार को नारद जी ने भगवान विष्णु से कहा और सृष्टि की रक्षा हेतु निवेदन किया। भगवान विष्णु ने नारद जी को बताया कि जहां एक ओर बज्रमें नष्ट करने की शक्ति है; तो दूसरी ओर सृजन करने की विलक्षण क्षमता भी है। विष्णु जी ने नारद जी से भूमण्डल पर महर्षि दधीचि के समकक्ष किसी तपस्वी ऋषि का नाम बताने को कहा। नारद ने महर्षि कण्व की प्रशंसा करते हुए उन्हीं का नाम इस हेतु प्रस्तावित किया। भगवान विष्णु महर्षि कण्व के आश्रम पर पहुंचे और बज्र के तेज को ग्रहण करने का आग्रह किया। ऋषि श्रेष्ठ ने सृष्टि के कल्याण के लिए उस तेज को ग्रहण करना स्वीकार किया। विष्णु भगवान ने कहा कि बज्र का तेज संहारक के साथ-साथ गर्भोत्पादक भी है। कुछ दिनों बाद ऋषि पत्नी गर्भवती हुई। पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। ये ही आगे चलकर तपोधन महर्षि सौभरि हुए। बालक सौभरि ने पिता कण्व से तत्वमसि का ज्ञान प्राप्त किया। ऋषि कण्व ने उन्हें सबका मूल सत् बताया। जगत का ईश्वर हमारी अपनी ही अन्तरात्मा स्वरूप है उसे दूरवर्ती कहना ही नास्तिकता है। ऋषि ने आगे कहा-वत्स! जगत की अनन्त शक्ति तुम्हारे अन्दर है। मन के कुसंस्कार उसे ढके हैं, उन्हें भगाओ, साहसी बनो, सत्य को समझो और आचरण में ढालो। कण्व पुन:बोले-पुत्र! जैसे समुद्र के जल से वृष्टि हुई वह पानी नदी रूप हो समुद्र में मिल गया।नदियां समुद्र में मिलकर अपने नाम तथा रूप को त्याग देती हैं; ठीक इसी प्रकार जीव भी सत् से निकल कर सत् में ही लीन हो जाता है। सूक्ष्म तत्व सबकी आत्मा है, वह सत् है। स्रोत:- महाभारत, ऋग्वेद, रामायण, विष्णुपुराण स्कंद पुराण
इनके अतिरिक्त छह सात और कण्व हुए हैं जो इतने प्रसिद्ध नहीं हैं ।
दूसरे कण्व ऋषि काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।
सोनभद्र में जिला मुख्यालय से आठ किलो मीटर की दूरी पर कैमूर शृंखला के शीर्ष स्थल पर स्थित कण्व ऋषि की तपस्थली है जो कण्डाकोट नाम से जानी जाती है।
तीसरे कण्व ऋषि कण्डु के पिता थे जो अयोध्या के पूर्व स्थित अपने आश्रम में रहते थे। रामायण के अनुसार वे राम के लंका विजय करके अयोध्या लौटने पर वहाँ आए और उन्हें आशीर्वाद दिया।
चौथे कण्व पुरुवंशी राज प्रतिरथ के पुत्र थे जिनसे काण्वायन गोत्रीय ब्रह्मणों की उत्पत्ति बतलाई जाती है । इनके पुत्र मेधातिथि हुए और कन्या इंलिनी। (यह जानकारी कण्व गोत्रीय ब्राह्मणों के लिए लाभकारी हो सकती है)
पांचवा कण्व ऐतिहासिक काल में मगध के शुंगवंशीय राज देवमूर्ति के मन्त्री थे जिनके पुत्र वसुदेव हुए। इन्होंने राजा की हत्या करके सिंहासन छीन लिया और इनके वंशज काण्वायन नाम से डेढ़ सौ वर्ष तक राज करते रहे।
छठे कण्व पुरुवंशीय राज अजामील के पुत्र थे
सातवे कण्व महर्षि कश्यप के पुत्र।
विष्णु पुराण के अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :- वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत। विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।। अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।
इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है। महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं।
ओमन सौभरि भुर्रक, भरनाकलां, मथुरा
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