ब्रह्मर्षि अंगिरा जी-
ब्रह्मांड एवं वायु पुराणों में सुरूपा मारीची, स्वराट् कार्दमी और पथ्या मानवी को अथर्वन की पत्नियाँ कहा गया है। अथर्ववेद के प्रारंभकर्ता होने के कारण इनकी अथर्वा भी कहते हैं।
महर्षि अंगिरा की तपस्या और उपासना इतनी तीव्र थी कि इनका तेज और प्रभाव अग्नि की अपेक्षा बहुत अधिक बढ़ गया। उस समय अग्निदेव भी जल में रहकर तपस्या कर रहे थे। जब उन्होंने देखा कि अंगिरा के तपोबल के सामने मेरी तपस्या और प्रतिष्ठा तुच्छ हो रही है तो वे दु:खी हो अंगिरा के पास गये और कहने लगे- ‘आप प्रथम अग्नि हैं, मैं आपके तेज़ की तुलना में अपेक्षाकृत न्यून होने से द्वितीय अग्नि हूँ। मेरा तेज़ आपके सामने फीका पड़ गया है, अब मुझे कोई अग्नि नहीं कहेगा।’ तब महर्षि अंगिरा ने सम्मानपूर्वक उन्हें देवताओं को हवि पहुँचाने का कार्य सौंपा। साथ ही पुत्र रूप में अग्नि का वरण किया। तत्पश्चात वे अग्नि देव ही बृहस्पति नाम से अंगिरा के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए। उतथ्य तथा महर्षि संवर्त भी इन्हीं के पुत्र हैं। ये मन्त्रद्रष्टा, योगी, संत तथा महान भक्त हैं। इनकी ‘अंगिरा-स्मृति’ में सुन्दर उपदेश तथा धर्माचरण की शिक्षा व्याप्त है। महाभारत में भी ‘अंगिरस स्मृति’ का उल्लेख मिलता है।
सम्पूर्ण ऋग्वेद में महर्षि अंगिरा तथा उनके वंशधरों तथा शिष्य-प्रशिष्यों का जितना उल्लेख है, उतना अन्य किसी ऋषि के सम्बन्ध में नहीं हैं। सबसे विस्तृत परिवार वाले अंगिरा जी हैं जिनके कुल ऋषियों की संख्या 56 है | विद्वानों का यह अभिमत है कि महर्षि अंगिरा से सम्बन्धित वेश और गोत्रकार ऋषि ऋग्वेद के नवम मण्डल के द्रष्टा हैं। नवम मण्डल के साथ ही ये अंगिरस ऋषि प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि अनेक मण्डलों के तथा कतिपय सूक्तों के द्रष्टा ऋषि हैं जिनमें से महर्षि कुत्स, हिरण्यस्तूप, सप्तगु, नृमेध, शंकपूत, प्रियमेध, सिन्धुसित, वीतहव्य, अभीवर्त, अंगिरस, संवर्त तथा हविर्धान आदि मुख्य हैं।
ऋग्वेद का नवम मण्डल जो 114 सूक्तों में निबद्ध हैं, ‘पवमान-मण्डल’ के नाम से विख्यात है। इसकी ऋचाएँ पावमानी ऋचाएँ कहलाती हैं। इन ऋचाओं में सोम देवता की महिमापरक स्तुतियाँ हैं, जिनमें यह बताया गया है कि इन पावमानी ऋचाओं के पाठ से सोम देवताओं का आप्यायन होता है।
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम।। दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृगयु: समलक्षणम्॥ -मनु (1/13)
जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न कर अग्नि आदि चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराए उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और (तु अर्थात) अंगिरा से ऋग, यजु, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।
मनुस्मृति भी यह कथा है कि आंगिरस नामक एक ऋषि को छोटी अवस्था में ही बहुत ज्ञान हो गया था इसलिए उसके काका–मामा आदि बड़े बूढ़े नातेदार उसके पास अध्ययन करने लग गए थे। स्वायंभुव मन्वंतर में अंगिरा को ब्रह्मा के सिर से उत्पन्न बताया गया है। उपनिषद में इनको ब्रह्मा का ज्येष्ठ पुत्र बताया गया है, जिन्हें ब्रह्म विद्या प्राप्त हुई। शौनक को इन्होंने विद्या के दो रूपों परा (वेद, व्याकरण आदि का ज्ञान) तथा अपरा (अक्षर का ज्ञान) से परिचित कराया था। अथर्ववेद का प्राचीन नाम अथर्वानिरस है। श्रीमदभागवत के अनुसार रथीतर नामक किसी निस्संतान क्षत्रिय को पत्नी से इन्होंने ब्राह्मणोपम पुत्र उत्पन्न किए थे।। याज्ञवल्क्य स्मृति में अंगिरसकृत धर्मशास्त्र का भी उल्लेख है।
ओमन सौभरि भुर्रक, भरनाकलां, मथुरा
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