घोर ऋषि-
घोर ऋषि ब्रह्माजी के पौत्र व अंगिरा जी के पुत्र थे । वेदों और पुराणों में इनका वंश विवरण मिलता है । घोर ऋषि जी के पुत्र कण्व ऋषि थे जिन्होंने चक्रवर्ती सम्राट भरत को अपने आश्रम में पाला था । कण्वऋषि से भी एक पुत्र हुए जिनका नाम ब्रह्मऋषि सौभरि जी हैं जिनकी वंशावली ” आदिगौड़ सौभरेय ब्राह्मण” कहलाती है जो कि यमुना नदी के किनारे गांव सुनरख वृन्दावन ,मथुरा व आसपास के क्षेत्रों में इनका निवास है । गोकुल के पास बसी कृष्ण के बडे भाई की “दाऊजी की नगरी” में इनके वंशज ही “दाऊमठ” के पुजारी हैं जिन्हें पंडा कहा जाता है । इसके अलावा राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में भी ये ब्राह्मण अच्छी संख्या में हैं ।
विष्णु पुराण व भागवद पुराण में इनके उल्लेख मिलता है । द्वापर युग में जन्मे भगवान श्रीकृष्ण के गुरु थे गुरु सांदीपनि। सांदीपनि ने ही श्रीकृष्ण और उनके भाई बड़े भाई बलराम को शिक्षा-दीक्षा दी थी। घोर ऋषि भी संदीपनि मुनि की तरह श्रीकृष्ण के गुरु रहे हैं । इनमें भी अंगिरा ऋषि की तरह अग्नि जैसा तेज था । इनको इनके पिता के नाम की वजह से “घोर आंगिरस” की संज्ञा दी गयी ।
छांदोग्य उपनिषद के एक अवतरण में ऋषि घोर महर्षि अंगिरस व भगवान कृष्ण का वर्णन मिलता है ।
महर्षि घोर ने उनको दान, अहिंसा, पवित्रता, सत्य आदि गुणों की शिक्षा दी । घोर अंगिरस ने देवकी पुत्र कृष्ण को जो उपदेश दिया था वही उपदेश कृष्ण गीता में अर्जुन को देते हैं।
महर्षि घोर ने उनको दान, अहिंसा, पवित्रता, सत्य आदि गुणों की शिक्षा दी । घोर अंगिरस ने देवकी पुत्र कृष्ण को जो उपदेश दिया था वही उपदेश कृष्ण गीता में अर्जुन को देते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण 70 साल की उम्र में घोर अंगिरस ऋषि के आश्रम में एकान्त में वैराग्यपूर्ण जीवन जीने के लिए ठहरे थे। उपनिषदों के गहन अध्ययन एवं विरक्तता से सामर्थ्य एवं तेजस्विता बढ़ती है। श्रीकृष्ण ने 13 वर्ष विरक्तता में बिताये थे ऐसी कथा छांदोग्य उपनिषद में आती है।
ओमन सौभरि भुर्रक, मथुरा
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