इक्ष्वाकु वंश और सौभरि ऋषि-
गोत्र अंगिरस मूल निवासी सुनरख ।
गांव भरनाकलां, उपगोत्र भुर्रक ||
“इक्ष्वाकुवंश”, जो श्री राम जी का वंश है और अंगिरसगोत्री सौभरेय वंश जो कि हमारा वंश (स्वसमाज का) है, इन दोनों में क्या संबंध है इसे एक नवनिर्मित पद्य के माध्यम से बतलाने की एक कोशिश…
(ज्ञान नहीं मुझमें बड़ा, शिशु लो मुझको जान ।
बिना समाज आशीष कहाँ, मिले कहीं ना मान ।।)
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गौड़ों में आदिगौड़, ब्राह्मणों में अहिवासी ।हैं सर्वश्रेष्ठ उन सब में से, सौभरि ब्राह्मण सुनरख वासी |
एक पिपासा थी मेरे मन में, लिखूं कहानी वंशधरों की ।सब के सामने रखूं सूचना अपने प्यारे मधुर जनों की ||
करीं इक्ट्ठी जानकारियां, लोगों से औऱ ऑनलाइन ।
धीरे धीरे एडिट करके, रखता गया ऑफलाइन ||
सोचा कहाँ से कैसे करूँ प्रथम शुरुआत ।नमन सौभरि जी कीन्हा बुनता गया बात में बात ||
पहले वर्णन ब्रह्मा जी फिर पुत्रों का किया उल्लेख ।इनके पुत्र अंगिरस जी की , ऋग्वेद में सूक्ति अनेक ।
अंगिरसपुत्र घोर ऋषि पीढी नम्बर है इनका तीन ।थे गुरुतुल्य श्री कृष्ण के, घोर आंगिरस नामचीन ||
चौथी पीढ़ी में हैं कण्व ऋषि, महर्षि घोर के पुत्र कहलाये । इनकी पांचवी पीढ़ी में, परम तपस्वी सौभरि जी आये ||
इक्ष्वाकु वंश में एक राजा हुए परमप्रतापी, न्यायप्रिय और प्रजापालक । थी सम्पन्न प्रजा राज्य में , परन्तु नहीं था उनके कोई बालक ।।
इस दुख से वह छोड़ राज्य, च्यवन ऋषि आश्रम में रहने की ठानी । पतिव्रता रानी ने भी, पतिदेव की बात मानी ।।
पुत्रहीन युवनाश्व पत्नी संग, गये यज्ञ करने वन में।
पहुँच गए ले पुत्र की आशा, वात्सल्य दुःख लेकर मन में ।।
व्याकुल राजा को देख, वहाँ ऋषियों ने यज्ञ किया ।
हवन यज्ञ वेदी के ऊपर, जलकलश भरकर रख दिया ।।
बोले ऋषि यज्ञोपवीत कलशजल, कल इसका पान करेगी रानी ।
होगा इससे वीर पुत्र, परमतेज और ज्ञानीधानी ।।
अपनी-अपनी जगह सो गए, ऋषिवर और राजा रानी । आधी रात को राजा प्यासा, चारोँ ओर ढूँढे पानी ।।
जल देख प्यासा राजा, प्रसन्न हुआ बहुत भारी ।
बिन देखे ही पी गये, यज्ञवेदी जल की गगरी सारी ।।
रिक्त कलश सुबह देख मुनि ने, पूछा कलशजल किसने पिया । हाथ जोड़कर राजा ने सब कुछ, रात्रि में हुआ वो कह दिया ।।
बोले राजा च्यवन ऋषि से, जाग नींद से मैंने पिया पानी ।ऋषि यह सुनकर बोले, हे राजन क्यों की ऐसी नादानी ।।
सुनकर मुनि हुये चिंतित, देखेंगे अब विधि-विधाता ।
राजा के ठहरा गर्भ, फिर उनसे पुत्र हुए मान्धाता ।।
नर से जन्मा नर, अब इनका लालन-पालन हो कैसे।
वहाँ आकर इंद्रदेव मान्धातृ को, उंगली पिलाने लगे जैसे -तैसे ।।
धीरे-धीरे हुए बड़े, और राज्य पादभर संभाल लिया अपना।
सबकुछ इनके पास, अब अगला पड़ाव शादी का सपना ।।
मान्धाता का हुआ स्वयंवर, रानी बिन्दुमती आयी ।
हुये इनके पुत्र तीन, सुंदर पचास कन्याएं जायीं ।।
पुत्रों के नाम हैं पुरुकुत्स, अम्बरीष और मुचकुन्द ।मुचकुन्द वही जिन्होंने, काटा था दैत्य कलियावन का फंद ।।
दूसरी ओर ब्रजमंडल में, परम तपस्वी ऋषि सौभरि ।
यमुना जल में करें तपस्या घनघोर, कण्वपुत्र सौभरि ।।
नित ध्यान रखा क़रते थे वो, यमुना के निर्मल जल के अंदर । गरुड़ से बचाया कालिया नाग को, और वास दिया रमन द्वीप पर।।
बालापन से वृद्धावस्था तक, ब्रह्मचारी रहे सौभरि ।
किया तप दश सहस्त्रवर्ष, थे घोरऋषि के पौत्र सौभरि ।।
मतस्य राज को देखा जल में, प्रबल मुदित मन हुये सौभरि ।
जल में देख मत्स्य कुटुंब को, हुए विचलित अंगिरस प्रपौत्र सौभरि ।।
जप तप सारे नियम भुलाकर विवाह की सोचें बारम्बार । मान्धाता की नगरी में पहुंचे, और राजा की करें पुकार ।।
हे नृपदेव तुम्हारी हैं पचास पुत्रियां अति प्यारी ।
इनमें से केवल एक की, करो स्वयंवर की तैयारी ।।
राजा थे चुपचाप सुन रहे, करें मंत्रणा अपने आप ।
डर था उनको ब्रह्मऋषि का, उनको कहीं न दे दें श्राप ।।
इनकी शक्ति से थे राजा परिचित, एकबार कृषि यज्ञ कराया । हवन यज्ञ के प्रभाव से मेघों ने जलधन बरसाया ।।
जटाधारी वृद्ध ऋषि को देख, राजा ने सोचा इनसे है कुछ नहीं कहना । जब ये जाएंगे महलों के अंदर, पुत्रियां ही स्वयं कर देंगीं मना ।।
अब राजा मुनि से बोले कि आप महलों के अंदर जाओ । अंतःपुर से पुत्रीस्वेच्छा से, तुम एक को वर कर ले आओ ।।
मुनिवर गए महल के अंदर, योग शक्ति से नवयुवक बने ।ऐसा रूप देखकर,सैनिक रह गये सन्न खड़े ।।
अब पहुंचे अन्तः पुर के अंदर, वहाँ थी खड़ी कन्यायें पचास । सुंदर उनका रूप देखकर, विवाह की सारी करें आश ।।
लगी झगड़ने ये मेरा वर-ये मेरा वर,सबने दी फिर माला डाल । हुआ स्वयंवर पचासों से, मुनि वर हुए घने निहाल ।।
ले विदा मान्धाता से,फिर सुनरख को वापस आये ।विश्कर्मा की सहायता से ,सुंदर सुंदर महल बनवाये ।।
हर रानी को दिया अलग महल, और दी सुख सुविधाएं । धर कर अपने बहुल रूप, सब के इच्छित पतिवर बन जाएं ।।
कुछ समय बाद वहां मान्धाता, आये सुनरख की ओर ।
पूछूँ अपनी पुत्रियों से, कैसे कट रही जीवन की डोर ।।
राजा ने पूछा आकर पहली बेटी से, क्या तुम पूर्ण सुखी हो । बोली मैं तो सुखी हूँ, लेकिन शायद दूसरी बहिन दुखी हो ।।
ठीक है मैं उन सबसे पूछुंगा, एक-एककर बारी-बारी ।राजा ने दूसरी पुत्री से भी किया प्रश्न, कैसी हो पुत्री प्यारी ।।
बोली पिताश्री पतिवर ने, मुझे कभी नहीं किया उदास ।रहते हमेशा महल में मेरे, जाते नहीं दूसरी बहिन के पास ।।
आगे बोली मैं तो सुखी हूँ, मेरी बहिनें होंगी दुखी ।
राजा बारी- बारी पूछते जाएं, सबने बोला हम तो हैं परम सुखी ।।
सुन सारी बातों को राजा, मन ही मन हर्षाये ।
समझ गए ऋषि शक्ति को, वापस स्वराज्य लौट आये ।।
सौभरि जी के दाम्पत्य जीवन में, पुत्र हुए पांच हजार । इतने सारे कुटुंब को देखकर, करने लगे सोच विचार ।।
इनके भी होंगी संतानें, क्यों कुटुम्ब मोह और बढाऊँ । जी गया भर मेरा देख ये सब, फिर से वनगमन को जाऊं ।।
छोडकर सब वनगमन की ओर, ऋषि इच्छा हो रही बलबती। पचास की पचास रानियां भी, वन को चल पड़ी संग पति ।।
वन में जाकर फिर से करी तपस्या भारी ।
आने जाने के जीवनचक्र से, अपनी समस्या छुटायी सारी ।।
दिव्य ऋषि ने पत्नियों संग, परमलोक किया गमन ।
ऐसे परम पूज्य पितामह को, हम करते बारम्बार नमन ।।
इनके वंशज अब सुनरख से फैले, अखिल भारत में । अधिकांशतः बसते हैं राजस्थान मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में ।।
कहलाते हैं अंगिरस गोत्री, पचास उपगोत्रों में बँटे हुए हैं ।हर क्षेत्र में अपनी क्षमताओं का परचम लेकर डटे हुए हैं ।।
डेढ़ सौ से ऊपर हैं, गौरवमयी स्वसमाज के गाँव ।
सौभरि ब्राह्मणों को मिला है उपाधि रूप में अहिवासी नाम ।।
कथा हुई अब पूर्ण, कलम को देता हूँ अब थमा ।
कुछ हुई हो गलती मुझसे, कर देना मुझको क्षमा ।।
:ओमन सौभरी भुर्रक, भरनाकलाँ (मथुरा)
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