Thursday, 29 July 2021

सौभरेयवंशजों को अपने गोत्रकार व प्रवर ऋषियों के बारे में पढ़ना ही चाहिये ।

पढ़िए महर्षि सौभरिचरित्र

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सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी हैं। ये हिन्दुओं के तीन प्रमुख देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) में से एक हैं। 
ब्रह्मा के हाथों में वेद ग्रंथों का चित्रण किया गया है। उनकी पत्नीं गायत्री के हाथों में भी वेद ग्रंथ है।
ब्रह्माजी देवता, दानव तथा सभी जीवों के पितामह हैं। सभी देवता ब्रह्माजी के पौत्र माने गए हैं । 

मत्स्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा जी के चार मुख हैं। वे अपने चार हाथों में क्रमश: वरमुद्रा, अक्षरसूत्र, वेद तथा कमण्डलु धारण किए हैं।

ब्रह्मा जी के पुत्र:-

1. मरीचि 2. अत्रि 3. अंगिरस 4. पुलस्त्य 5. पुलह 6. कृतु 7. भृगु 8. वशिष्ठ 9. दक्ष 10. कर्दम 11. नारद 12. सनक 13. सनन्दन 14. सनातन 15. सनतकुमार 16. स्वायम्भुव मनु और शतरुपा 17. चित्रगुप्त 18. रुचि 19. प्रचेता 20. अंगिरा

ब्रह्मा की प्रमुख पुत्रियां:-

1. सावित्री 2. गायत्री 3. श्रद्धा 4. मेधा 5. सरस्वती

ब्रह्माजी के 7 पुत्र जोकि उत्तर दिशा में आकाश में सप्तर्षि के रूप में स्थित हैं- 
मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, कर्तु, पुलस्त्य तथा वशिष्ठ ।

ब्रह्मा के प्रमुख पुत्रों की जन्म की अवस्था:-

1. मन से मारिचि।
2. नेत्र से अत्रि।
3. मुख से अंगिरस।
4. कान से पुलस्त्य।
5. नाभि से पुलह।
6. हाथ से कृतु।
7. त्वचा से भृगु।
8. प्राण से वशिष्ठ।
9. अंगुष्ठ से दक्ष।
10. छाया से कंदर्भ।
11. गोद से नारद।
12. इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार।
13. शरीर से स्वायंभुव मनु और शतरुपा।
14. ध्यान से चित्रगुप्त।

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ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, याने लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार से ज्यादा मन्त्र हैं और ऋग्वेद में ऋषि कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही है। ये कुलपरम्परा ऋग्वेद के सूक्त दस मण्डलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मण्डल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमण्डल कहते हैं 

स्वसमाज के गोत्रकार प्रवर ऋषियों के बारे जानिए ।

1-ब्रह्मर्षि अंगिरा जी- (प्रथम पीढ़ी)

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पुराणों में बताया गया है कि महर्षि अंगिरा ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं इन्हें प्रजापति भी कहा गया है और सप्तर्षियों में वसिष्ठ, विश्वामित्र तथा मरीचि आदि के साथ इनका भी परिगणन हुआ है। इनके दिव्य अध्यात्मज्ञान, योगबल, तप-साधना एवं मन्त्रशक्ति की विशेष प्रतिष्ठा है। इनकी पत्नी दक्ष प्रजापति की पुत्री स्मृति (मतान्तर से श्रद्धा) थीं, जिनसे इनके वंश का विस्तार हुआ। इनके पुत्र घोर ऋषि और इनके पौत्र कण्व तथा इनके प्रपौत्र ब्रह्मऋषि सौभरि जी हैं ।

 ब्रह्मांड एवं वायु पुराणों में सुरूपा मारीची, स्वराट् कार्दमी और पथ्या मानवी को अथर्वन की पत्नियाँ कहा गया है। अथर्ववेद के प्रारंभकर्ता होने के कारण इनकी अथर्वा भी कहते हैं।

महर्षि अंगिरा की तपस्या और उपासना इतनी तीव्र थी कि इनका तेज और प्रभाव अग्नि की अपेक्षा बहुत अधिक बढ़ गया। उस समय अग्निदेव भी जल में रहकर तपस्या कर रहे थे। जब उन्होंने देखा कि अंगिरा के तपोबल के सामने मेरी तपस्या और प्रतिष्ठा तुच्छ हो रही है तो वे दु:खी हो अंगिरा के पास गये और कहने लगे- ‘आप प्रथम अग्नि हैं, मैं आपके तेज़ की तुलना में अपेक्षाकृत न्यून होने से द्वितीय अग्नि हूँ। मेरा तेज़ आपके सामने फीका पड़ गया है, अब मुझे कोई अग्नि नहीं कहेगा।’ तब महर्षि अंगिरा ने सम्मानपूर्वक उन्हें देवताओं को हवि पहुँचाने का कार्य सौंपा। साथ ही पुत्र रूप में अग्नि का वरण किया। तत्पश्चात वे अग्नि देव ही बृहस्पति नाम से अंगिरा के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए। उतथ्य तथा महर्षि संवर्त भी इन्हीं के पुत्र हैं। ये मन्त्रद्रष्टा, योगी, संत तथा महान भक्त हैं। इनकी ‘अंगिरा-स्मृति’ में सुन्दर उपदेश तथा धर्माचरण की शिक्षा व्याप्त है। महाभारत में भी ‘अंगिरस स्मृति’ का उल्लेख मिलता है। 

सम्पूर्ण ऋग्वेद में महर्षि अंगिरा तथा उनके वंशधरों तथा शिष्य-प्रशिष्यों का जितना उल्लेख है, उतना अन्य किसी ऋषि के सम्बन्ध में नहीं हैं। सबसे विस्तृत परिवार वाले अंगिरा जी हैं जिनके कुल ऋषियों की संख्या 56 है | विद्वानों का यह अभिमत है कि महर्षि अंगिरा से सम्बन्धित वेश और गोत्रकार ऋषि ऋग्वेद के नवम मण्डल के द्रष्टा हैं। नवम मण्डल के साथ ही ये अंगिरस ऋषि प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि अनेक मण्डलों के तथा कतिपय सूक्तों के द्रष्टा ऋषि हैं जिनमें से महर्षि कुत्स, हिरण्यस्तूप, सप्तगु, नृमेध, शंकपूत, प्रियमेध, सिन्धुसित, वीतहव्य, अभीवर्त, अंगिरस, संवर्त तथा हविर्धान आदि मुख्य हैं।

ऋग्वेद का नवम मण्डल जो 114 सूक्तों में निबद्ध हैं, ‘पवमान-मण्डल’ के नाम से विख्यात है। इसकी ऋचाएँ पावमानी ऋचाएँ कहलाती हैं। इन ऋचाओं में सोम देवता की महिमापरक स्तुतियाँ हैं, जिनमें यह बताया गया है कि इन पावमानी ऋचाओं के पाठ से सोम देवताओं का आप्यायन होता है।

 अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम।।           दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृगयु: समलक्षणम्॥ -मनु (1/13)

जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न कर अग्नि आदि चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराए उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और (तु अर्थात) अंगिरा से ऋग, यजु, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।

मनुस्मृति भी यह कथा है कि आंगिरस नामक एक ऋषि को छोटी अवस्था में ही बहुत ज्ञान हो गया था इसलिए उसके काका–मामा आदि बड़े बूढ़े नातेदार उसके पास अध्ययन करने लग गए थे।                           स्वायंभुव मन्वंतर में अंगिरा को ब्रह्मा के सिर से उत्पन्न बताया गया है।                                       उपनिषद में इनको ब्रह्मा का ज्येष्ठ पुत्र बताया गया है, जिन्हें ब्रह्म विद्या प्राप्त हुई। शौनक को इन्होंने विद्या के दो रूपों परा (वेद, व्याकरण आदि का ज्ञान) तथा अपरा (अक्षर का ज्ञान) से परिचित कराया था।       अथर्ववेद का प्राचीन नाम अथर्वानिरस है। श्रीमदभागवत के अनुसार रथीतर नामक किसी निस्संतान क्षत्रिय को पत्नी से इन्होंने ब्राह्मणोपम पुत्र उत्पन्न किए थे।।                                       याज्ञवल्क्य स्मृति में अंगिरसकृत धर्मशास्त्र का भी उल्लेख है। 

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2- महर्षि घोर जी:- ( द्वितीय पीढ़ी)

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घोर ऋषि ब्रह्माजी के पौत्र व अंगिरा जी के पुत्र थे । वेदों और पुराणों में इनका वंश विवरण मिलता है । घोर ऋषि जी के पुत्र कण्व ऋषि थे जिनसे भी एक पुत्र हुए जिनका नाम ब्रह्मऋषि सौभरि जी थे जिनकी वंशावली ” आदिगौड़ सौभरेय ब्राह्मण” कहलाती है जो कि यमुना नदी के किनारे अहिवास क्षेत्र गांव सुनरख वृन्दावन ,मथुरा व आसपास के क्षेत्रों में इनका निवास है । गोकुल के पास बसी कृष्ण के बडे भाई की “दाऊजी की नगरी” में इनके वंशज ही “दाऊमठ” के पुजारी हैं जिन्हें पंडा कहा जाता है । इसके अलावा राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में भी ये ब्राह्मण अच्छी संख्या में हैं ।
विष्णु पुराण व भागवद पुराण में इनके उल्लेख मिलता है । द्वापर युग में जन्मे भगवान श्रीकृष्ण के गुरु थे गुरु सांदीपनि। सांदीपनि ने ही श्रीकृष्ण और उनके भाई बड़े भाई बलराम को शिक्षा-दीक्षा दी थी। घोर ऋषि भी संदीपनि मुनि की तरह श्रीकृष्ण के गुरु रहे हैं । इनमें भी अंगिरा ऋषि की तरह अग्नि जैसा तेज था । इनको इनके पिता के नाम की वजह से “घोर आंगिरस” की संज्ञा दी गयी ।
 छांदोग्य उपनिषद के एक अवतरण में ऋषि घोर महर्षि अंगिरस व भगवान कृष्ण का वर्णन मिलता है ।
 महर्षि घोर ने उनको दान, अहिंसा, पवित्रता, सत्य आदि गुणों की शिक्षा दी । घोर अंगिरस ने देवकी पुत्र कृष्ण को जो उपदेश दिया था वही उपदेश कृष्ण गीता में अर्जुन को देते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण 70 साल की उम्र में घोर अंगिरस ऋषि के आश्रम में एकान्त में वैराग्यपूर्ण जीवन जीने के लिए ठहरे थे। उपनिषदों के गहन अध्ययन एवं विरक्तता से सामर्थ्य एवं तेजस्विता बढ़ती है। श्रीकृष्ण ने 13 वर्ष विरक्तता में बिताये थे ऐसी कथा छांदोग्य उपनिषद में आती है।
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3- महर्षि काण्व:- (तृतीय पीढ़ी)

 सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामण्डल पर टिक जाती है।


वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- 1.वशिष्ठ, 2.विश्वामित्र, 3.कण्व, 4.भारद्वाज, 5.अत्रि, 6.वामदेव 7.शौनक

कण्व, महर्षि घोर के पुत्र थे जिन्होंने ऋग्वेद में अनेक मन्त्रों की रचना की है। घोर ऋषि ब्रह्माजी के पौत्र व अंगिरा जी के पुत्र थे । वेदों और पुराणों में इनका वंश विवरण मिलता है । घोर ऋषि जी के पुत्र कण्व ऋषि थे । कण्वऋषि से भी एक पुत्र हुए जिनका नाम ब्रह्मऋषि सौभरि जी, जिनकी वंशावली ” आदिगौड़ सौभरेय ब्राह्मण” कहलाती है जो कि यमुना नदी के किनारे गांव सुनरख वृन्दावन ,मथुरा व आसपास के क्षेत्रों में इनका निवास है । गोकुल के पास बसी कृष्ण के बडे भाई की “दाऊजी की नगरी” में इनके वंशज ही “दाऊमठ” के पुजारी (पंडा जी) हैं । इसके अलावा राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में भी ये सौभरेय ब्राह्मण अच्छी संख्या में हैं । विष्णु पुराण व भागवद पुराण में इनके उल्लेख मिलता है । 

सदैव तपस्या में लीन रहने वाले ऋषि कण्व का रमणीक आश्रम था जहां शिष्यों की शिक्षा-दीक्षा अनवरत चलती रहती थी। उस काल में वृत्तासुर का आतंक संत-महात्माओं के लिए कष्टदायक बना हुआ था। उसने इन्द्र से इन्द्रासन बलपूर्वक छीन लिया था। वृत्तासुर को भस्म करने के लिए इन्द्र ने महर्षि दधीचि से प्रार्थना की तथा उनकी अस्थि बज्र बनाया और वृत्तासुर को मार दिया। वृत्तासुरके भस्म होने के बाद बज्र सृष्टि को भी अपने तेज से जलाने लगा। इस समाचार को नारद जी ने भगवान विष्णु से कहा और सृष्टि की रक्षा हेतु निवेदन किया। भगवान विष्णु ने नारद जी को बताया कि जहां एक ओर बज्रमें नष्ट करने की शक्ति है; तो दूसरी ओर सृजन करने की विलक्षण क्षमता भी है। विष्णु जी ने नारद जी से भूमण्डल पर महर्षि दधीचि के समकक्ष किसी तपस्वी ऋषि का नाम बताने को कहा। नारद ने महर्षि कण्व की प्रशंसा करते हुए उन्हीं का नाम इस हेतु प्रस्तावित किया। भगवान विष्णु महर्षि कण्व के आश्रम पर पहुंचे और बज्र के तेज को ग्रहण करने का आग्रह किया। ऋषि श्रेष्ठ ने सृष्टि के कल्याण के लिए उस तेज को ग्रहण करना स्वीकार किया। विष्णु भगवान ने कहा कि बज्र का तेज संहारक के साथ-साथ गर्भोत्पादक भी है। कुछ दिनों बाद ऋषि पत्नी गर्भवती हुई। पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। ये ही आगे चलकर तपोधन महर्षि सौभरि हुए। बालक सौभरि ने पिता कण्व से तत्वमसि का ज्ञान प्राप्त किया। ऋषि कण्व ने उन्हें सबका मूल सत् बताया। जगत का ईश्वर हमारी अपनी ही अन्तरात्मा स्वरूप है उसे दूरवर्ती कहना ही नास्तिकता है। ऋषि ने आगे कहा-वत्स! जगत की अनन्त शक्ति तुम्हारे अन्दर है। मन के कुसंस्कार उसे ढके हैं, उन्हें भगाओ, साहसी बनो, सत्य को समझो और आचरण में ढालो। कण्व पुन:बोले-पुत्र! जैसे समुद्र के जल से वृष्टि हुई वह पानी नदी रूप हो समुद्र में मिल गया।नदियां समुद्र में मिलकर अपने नाम तथा रूप को त्याग देती हैं; ठीक इसी प्रकार जीव भी सत् से निकल कर सत् में ही लीन हो जाता है। सूक्ष्म तत्व सबकी आत्मा है, वह सत् है। स्रोत:- महाभारत, ऋग्वेद, रामायण, विष्णुपुराण स्कंद पुराण

इनके अतिरिक्त छह सात और कण्व हुए हैं जो इतने प्रसिद्ध नहीं हैं ।

 दूसरे कण्व ऋषि काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।

सोनभद्र में जिला मुख्यालय से आठ किलो मीटर की दूरी पर कैमूर शृंखला के शीर्ष स्थल पर स्थित कण्व ऋषि की तपस्थली है जो कण्डाकोट नाम से जानी जाती है।

तीसरे कण्व ऋषि कण्डु के पिता थे जो अयोध्या के पूर्व स्थित अपने आश्रम में रहते थे। रामायण के अनुसार वे राम के लंका विजय करके अयोध्या लौटने पर वहाँ आए और उन्हें आशीर्वाद दिया।

चौथे कण्व पुरुवंशी राज प्रतिरथ के पुत्र थे जिनसे काण्वायन गोत्रीय ब्रह्मणों की उत्पत्ति बतलाई जाती है । इनके पुत्र मेधातिथि हुए और कन्या इंलिनी। (यह जानकारी कण्व गोत्रीय ब्राह्मणों के लिए लाभकारी हो सकती है)

पांचवा कण्व ऐतिहासिक काल में मगध के शुंगवंशीय राज देवमूर्ति के मन्त्री थे जिनके पुत्र वसुदेव हुए। इन्होंने राजा की हत्या करके सिंहासन छीन लिया और इनके वंशज काण्वायन नाम से डेढ़ सौ वर्ष तक राज करते रहे।

छठे कण्व पुरुवंशीय राज अजामील के पुत्र थे

सातवे कण्व महर्षि कश्यप के पुत्र।

विष्णु पुराण के अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :- वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत। विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।। अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।

इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है। महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। 

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4-महर्षि सौभरि:- (चतुर्थ पीढ़ी)

महर्षि सौभरि सृष्टि के आदि महामान्य महर्षियों में हैं। ऋग्वेद की विनियोग परंपरा तथा आर्षानुक्रमणी से ज्ञात होता है कि ब्रह्मा से अंगिरा, अंगिरा से घोर, घोर से कण्व और कण्व से सौभरि हुए। इसके अनुसार सौभरि बहुऋचाचार्यमहामहिम ब्रह्मा के पौत्र के पौत्र हैं। मान्यता है कि फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को इन्होंने जन्म ग्रहण किया। महर्षि सौभरि एक हजार वर्ष तक यमुना हृद जहां ब्रज का कालीदह और वृन्दावन का सुनरखवन है, में समाधिस्थ हो तपस्या करते हैं। इन्द्रादिक समस्त देव उनकी परीक्षा के लिए महर्षि नारद को भेजते हैं। नारद जी भी सौभरिजी के तप एवं ज्ञान से प्रभावित हो वंदन करते हैं तथा सभी देवगण उनका पुष्प वर्षा कर अभिनंदन करते हैं। 

ब्रह्मा के मानस पुत्र अंगिरा और अंगिरा के घोर और घोर के कण्व और कण्व ऋषि के वंश में उत्पन्न एक अत्यन्त विद्वान एवं तेजस्वी महापुरुष  “ब्रह्मऋषि सौभरि” के बारे में बताने जा रहा हूँ । उन्होंने वेद-वेदांगों के अध्ययन-मनन से ईश्वर, संसार एवं इसकी वस्तुएँ तथा परमार्थ को अच्छी तरह समझ लिया था। वो हर समय अध्ययन एवं ईश्वर के भजन में लगे रहते थे, उनका मन संसार की अन्य किसी वस्तु में नहीं लगता था। एक बार उनके मन में ये इच्छा उत्पन्न हुई कि वन में जाकर तपस्या की जाये; जब उनके माता-पिता को इसके बारे में पता चला, तो उन्होंने सौभरि को समझाते हुये कहा,

“बेटे! इस समय तुम युवा हो, तुम्हें अपना विवाह कर गृहस्थ-धर्म का पालन करना चाहिए। चूँकि हर वस्तु उचित समय पर ही अच्छी लगती है, इसलिए पहले अपनी जिम्मेदारियों को निभाओ, फ़िर उनसे मुक्त होकर, संसार को त्यागकर भगवान का भजन करना; उस समय तुम्हें कोई नहीं रोकेगा। हालांकि अभी तुम्हारा मन वैराग्य की ओर है, परन्तु युवावस्था में मन चंचल होता है, जरा में डिग जाता है। इस प्रकार अस्थिर चित्त से तुम तपस्या एवं साधना कैसे करोगे?”

लेकिन सौभरि तो जैसे दृढ़-निश्चय कर चुके थे। उनके माता-पिता की कोई भी बात उन्हें टस से मस ना कर सकी और एक दिन वे सत्य की खोज में वन की ओर निकल पड़े। चलते-२ वे एक अत्यन्त ही सुन्दर एवं रमणीय स्थान पर पहुँचे; जहाँ पास ही नदी बह रही थी और पक्षी मधुर स्वर में कलरव कर रहे थे। इस स्थान को उन्होंने अपनी तपस्या-स्थली के रूप में चुना।

ऐसे ही दिन बीत रहे थे, उनके शरीर पर अब किसी भी मौसम का असर नहीं होता था। गाँव वाले जो कुछ रूखा-सूखा दे जाते, उसी से वो अपना पेट भर लेते थे। धीरे-२ कब जवानी बीत गई और कब बुढ़ापे ने उन पर अपना असर दिखाना शुरु कर दिया, पता ही नहीं चला। फ़िर एक दिन अचानक वो हो गया, जो नहीं होना चाहिए था।

एक समय की बात है…

सम्राट मान्धातृ अथवा मांधाता, इक्ष्वाकुवंशीय नरेश युवनाश्व और गौरी पुत्र अयोध्या में राज्य किया करते थे | च्यवन ऋषि द्वारा संतानोंत्पति के लिए  मंत्र-पूत जल का कलश पी गए थे | च्यवन ऋषि ने राजा से कहा कि अब आपकी कोख से बालक जन्म लेगा। सौ वर्षो के बाद अश्विनीकुमारों ने राजा की बायीं कोख फाड़कर बालक को निकाला। अब बालक को पालना, एक बड़ी समस्या थी, तो तभी इन्द्रदेव ने अपनी तर्जनी अंगुली उसे चुसाते हुए कहा- माम् अयं धाता (यह मुझे ही पीयेगा)। इसी से बालक का नाम मांधाता पड़ा। 

वह सौ राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञों के कर्ता और दानवीर, धर्मात्मा चक्रवर्ती सम्राट् थे | मान्धाता ने शशबिंदु की पुत्री बिन्दुमती से विवाह किया |उनके मुचकुंद, अंबरीष और पुरुकुत्स नामक तीन पुत्र और 50 कन्याएँ उत्पन्न हुई थीं। इधरअयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट राजा मान्धाता वर्षा न होने के कारण राज्य में अकाल पडने से बहुत दुखी थे। अपनी सहधर्मिणी से प्रजा के कष्टों की चर्चा कर ही रहे थे; कि घूमते-घूमते नारद जी सम्राट मान्धाताके राजमहल में पधारे। सम्राट ने अपनी व्यथा नारद जी को निवेदित कर दी। नारद जी ने अयोध्या नरेश को परामर्श दिया कि वे शास्त्रों के मर्मज्ञ, यशस्वी एवं त्रिकालदर्शी महर्षि सौभरि से यज्ञ करायें। निश्चय ही आपके राज्य एवं प्रजा का कल्याण होगा। राजा मान्धातानारद जी के परामर्श अंतर्गत ब्रह्मर्षि सौभरिके यमुना हृदस्थित आश्रम में पहुंचे तथा अपनी व्यथा कथा अर्पित की। महर्षि ने ससम्मान अयोध्यापति को आतिथ्य दिया और प्रात:काल जनकल्याणकारी यज्ञ कराने हेतु अयोध्यापति के साथ अयोध्या पहुंच जाते हैं।यज्ञ एक माह तक अनवरत रूप से अपना आनंद प्रस्फुटित करता है और वर्षा प्रारम्भ हो जाती है। सम्राट दम्पति ब्रह्मर्षि को अत्यधिक सम्मान सहित उनके आश्रम तक पहुंचाने आये।

उन्ही के समय में ब्रह्मऋषि सौभरि जी  नामक महर्षि जल के अंदर तप व् चिंतन करते थे । महर्षि का अपनी तपस्या के अंतर्गत नैतिक नियम था कि आटे की गोलियां बनाकर मछलियों को प्रतिदिन भोज्य प्रदान किया करते थे। शरणागत वत्सल महर्षि सौभरि की ख्याति भी सर्वत्र पुष्पित थी। विष्णु भगवान का वाहन होने के दर्प में गरुड मछलियों एवं रमणक द्वीप के निवासी कद्रूपुत्र सर्पो को अपना भोजन बनाने लगा। सर्पो ने शेषनाग से अपना दुख सुनाया। शेषनाग जी ने शरणागत वत्सल महर्षि सौभरि की छत्रछाया में शरण लेने का परामर्श उन्हें दिया। कालियनाग के साथ पीडित सर्प सौभरिजी की शरणागत हुए। मुनिवर ने सभी को आश्वस्त किया तथा मछली एवं अहिभक्षी गरुड को शाप दिया कि यदि उनके सुनरख स्थित क्षेत्र में पद रखा तो भस्म हो जाएगा। इस क्षेत्र को महर्षि ने अहिवास क्षेत्र घोषित कर दिया। तभी से महर्षि सौभरि अहि को वास देने के कारण अहिवासी कहलाये। इस प्रकार उस स्थल में अहि,मछली तथा सभी जीव जन्तु, शान्ति पूर्वक निवास करते रहे।

तपस्या करते बहुत काल हो जाने पर भगवान विष्णु एक दिवस सौभरिजी के पास आकर निर्देश देते हैं कि सृष्टि की प्रगति के लिए ऋषि जी गृहस्थ धर्म में प्रवेश करें और इसके लिए नृपश्रेष्ठ मान्धाताके अन्त:पुर की एक कन्या से पाणिग्रहण करें। 

उस जल में ‘संवद’ नामक मत्स्य निवास करता था | वह अपने परिवार के साथ जल में विहार करता रहता था | एक दिन ब्रह्मऋषि सौभरि जी ने तस्य से निवृत होकर उस मत्स्य राज को उसके परिवार सहित देखकर अपने अंदर विचार किया किया और सोचा की यह मछली की योनि में भी अपने परिवार के साथ रमण कर रहा है क्यों न मैं भी इसी तरह से अपने परिवार के साथ ललित क्रीड़ाएं किया करूँगा और उसी समय जल से निकल कर विवाह प्रस्ताव का विचार किया ।

गृहस्थ जीवन जीने की अभिलाषा से राजा मान्धाता के पास पहुँच गए । अचानक आये हुए महर्षि को देखकर राजा मान्धाता आश्चर्यचकित हो गए और बोले हे ब्रह्मऋषि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ । वो मुझे बतलाओ । ब्रह्मऋषि सौभरि जी ने आसान ग्रहण करते हुए राजा मान्धाता से बोले हे राजन ! मुझे आपकी एक कन्या की आवश्यकता है जिससे मैं विवाह रचाना चाहता हूँ | आपके समान अन्य राजाओं की पुत्रियां भी हैं परन्तु मैं यहाँ इसलिए आया हूँ की कोई भी याचक आपके यहाँ से खाली हाथ कभी नहीं लौटा है | आपके तो 50 कन्याएं हैं उनमें से आप मुझे सिर्फ एक ही दे दीजिये | राजा ने महर्षि की बातें सुन व् उनके बूढ़े शरीर को देखकर डरते हुए बोले हे ब्रह्मऋषि ! आपकी यह इच्छा हमारे मन से परे है क्यूंकि हमारे कुल में लड़कियाँ अपना वर स्वयं चुनती हैं । ब्रह्मऋषि सौभरि सोचने लगे ये बात सिर्फ टालने के लिए है और वह यह भी सोच रहे थे की ये राजा मेरे जर्जर शरीर को देखकर भयाभय हो रहे हैं | राजा की ऐसी मनोदशा देखकर वह बोले हे राजन ! अगर आपकी पुत्री मुझे चाहेगी तो ही मैं विवाह करूँगा अन्यथा नहीं | यह सुनकर राजा मान्धाता बोले फिर तो आप स्वयं अंतःपुर को चलिए, अंतःपुर में प्रवेश से पहले ही ब्रह्मऋषि सौभरि जी ने अपने तपोबल से गंधर्वों से भी सुन्दर और सुडौल शरीर धारण कर लिया | ब्रह्मऋषि के साथ अंतःपुर रक्षयक था और उससे महर्षि ने कहा की अब वह राजा की पुत्रियाँ से बोले, जो कोई पुत्रि मुझे वर के रूप में स्वीकार करती हो वो मेरा स्मरण करे इतना सुनते ही राजा की सभी पुत्रियों ने आपने-अपने मन महर्षि का स्मरण किया और परस्पर यह कहने लगी ये आपके अनुरूप नहीं हैं इसलिए मैं ही इनके साथ विवाह करुँगी । देखते -देखते राजा की पुत्रियां आपस में कलह करने लगी | ये सारी बातें अंतःपुर रक्षयक ने राजा मान्धाता को बताई | यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और बोले रक्षयक तुम कैसी बात कर रहे हो | राजा पश्चाताप करने लगे की मैं उन्हें अंदर जाने दिया | जैसे तैसे न चाहते हुए भी राजा ने विवाह संस्कार पूरा किया और और वहाँ से पचासों पुत्रियों के साथ से अपार दहेज देकर उनके आश्रम अहिवास (सुनरख) को विदा किया। ब्रह्मऋषि सौभरि जी उन पचासों कन्यांओं को अपने आश्रम को ले गए | आश्रम पहुंचते ही विश्वकर्मा को बुलाया और सभी कन्यांओं के लिए अलग-अलग गृह बनाने के लिए बोला और चारों तरफ सुन्दर जलाशय और पक्षियों से गूंजते हुए बगीचे हों | शिल्प विद्या के धनी विश्वकर्मा ने वह सारी सुविधाएं उपलब्ध करायीं जो की अनिवार्य थीं | राज कन्याओं के लिए अलग-अलग महल खड़े कर दिए | अब राज कन्यांएं बड़े मधर स्वभाव से वहाँ रमण करने लगीं ।

 एकदिन राजा मान्धाता पुत्रियों का कुशल-क्षेम जानने महर्षि के आश्रम आये। जब वे पुत्रियों के महल जाते तो प्रत्येक पुत्री के प्रासाद में नृप मान्धाता को महर्षि सौभरि मिलते और वो पूछते कि पुत्री खुश  तो हो ना? तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट तो नहीं है | पुत्री ने जवाब दिया, नहीं मैं बहुत खुश है | बस एक बात है की ब्रह्मऋषि सौभरि जी मुझे छोड़कर अन्य बहनों के पास जाते ही नहीं | इसी तरह राजा ने दूसरी पुत्री से भी वही प्रश्न किया उसने भी पहली वाली पुत्री की तरह जवाब दिया | इसी तरह से राजा मान्धाता को सभी पुत्रियों से समान उत्तर सुनने को मिला | राजा सब कुछ समझ गए और ब्रह्मऋषि सौभरि जी के सामने हाथ जोड़कर बोले महर्षि ये आपके तपोबल का ही परिणाम है महर्षि ने राजा को काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार को त्यागने का उपदेश किया। अंत में राजा अपने राज्य को लौट आये | 

महृषि सौभरि जी के 5000 गुणवान एवं रूपवान पांच सहस्रपुत्र-पुत्रियां हुए तथा पौत्र-प्रपौत्र भी हुए जो अहिवासी कहलाये।  कई वर्षों तक ऋषि सौभरि जी ने अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते रहे योग माया ने महर्षि के निर्देश पर सभी के लिए अलग-अलग आवासों की व्यवस्था कर दी। महर्षि सौभरि पत्नियों के साथ योग बल से रहते थे।  वह आगे सोचने लगे की अब उनके पुत्रों के भी पुत्र होंगे, अंदर ही अंदर विचार करने लगे की मेरी इच्छाओं के  मनोरथ का विस्तार होता जा रहा है | ये सब सोचकर फिर से उन्हें वैराग्य होने लगा, एक दिन महर्षि को लगा कि उनका काम पूरा हो गया है और सभी पत्‍ि‌नयों एवं परिवार को बताकर पुन:तपस्या की ओर बढने की इच्छा हुई। फ़िर धीरे-२ उनका मन इन सब से उचटने लगा। उनका मन उनसे बार-२ एक ही प्रश्न करता कि क्या इन्हीं सांसारिक भोगों के लिए उन्होंने तपस्या और कल्याण का मार्ग छोड़ा था। सौभरि षि एकदिन सोचने लगे...

मनोरथानां न समाप्तिरस्ति वर्धायुनापि तथाब्द लश्वैः।. पुणेषु पूर्णेषु मनोरथानामुत्पत्यः सन्ति पुनर्नवानाम्॥ 

मनोरथ की पूर्ति हजारो-लाखा वर्षा में भी नहीं हो सकती। मनोरथ की आशा जग जाती है। मैने अपनी सारी साधाना और तपस्या एक मत्स्य जाड़े को मैथन करते देखकर असख्य सन्तान पैदा करके नष्ट कर दी। इस प्रकार सोचकर उनको वैराग्य हुआ। सब त्यागकर तपस्या करने चले गये।

उन्होंने गृहस्थ-जीवन के सुख को भी देखा था और तपस्या के समय की शांति और संतोष को भी।  ऋषि पत्नियों ने भी महर्षि के साथ ही तपस्या में सहयोग करने का आग्रह किया। तपस्या में लीन हो प्रभु दर्शन कर समाधिस्थ हो गए।  इस प्रकार वह पुत्र मोह व् गृहस्थ सब कुछ त्याग कर अपनी स्त्रियों सहित वन की ओर गमन कर गए | और बाद में भगवान् में आशक्त होकर मोक्ष को प्राप्त किया । महर्षि का तपस्थल आज भी सुनरख (सौभरिवन) वृंदावन में विद्यमान है जहां मंदिर में महर्षि सौभरि जी की पूजा- अर्चना होती है। 

महर्षि सौभरि जी इन आदर्शों को आप अपना जीवन में अपना सकते हैं-


 💐सौभरि ऋषि तपस्या काल तक *परम ब्रह्मचारी* रहे, *परम तपस्वी* रहे । गरुड़ से कालियानाग को बचाने से *शरणागतवत्सल* कहलाये जब उन्होंने परिवारिक में प्रवेश किया तो उन्होंने *संतुलित गृहस्थ* जीवन व्यतीत किया । 'तपस्वी जीवन' में *महर्षि सौभरि* जी ने बिल्कुल सामान्य जीवन जिया और *ग्रहस्थकाल* में महाराजाओं से भी ऊपर । महर्षि बहुत अच्छे *राजपुरोहित* भी थे । वेद-मंत्रों के माध्यम से उन्होंने कई तरह के महायज्ञ राजाओं के यहाँ किये ।

पिता काण्व ऋषि द्वारा युवावस्था में विवाह के लिए बार-बार समझाते हैं लेकिन वो विवाह के लिए मना कर देते हैं यह स्वभाव उनके *युवाहठ* को दर्शाता है । महर्षि *वास्तुकला प्रेमी* रहे उन्होंने विश्वकर्मा को अपनी 50 पत्नियों को रानी की तरह रहें इसलिए, भव्य व आलीशान भवन बनाने को कहा था जिनके सामने राजमहल की चमक भी धुंधली थी ।

परिवार से *मोह* तथा समयकाल बीतने पर परिवार से उचित समय पर घर छोड़कर *गृहत्यागी* होने का उदाहरण पेश करते हैं । 50 पत्नियों के साथ *महर्षि* इस प्रकार रहते हैं कि किसी को कोई समस्या न आये और किसी के साथ भेदभाव न हो, यह करके उन्होंने *पतिव्रत धर्म* को निभाया । 50 पत्नियों द्वारा वानप्रस्थ की ओर जब जाते हैं तो पचास की पचासों पत्नियां उनके साथ वनगमन करती हैं । यह  व्यवहार उनके वृद्धावस्था में भी अच्छे *सामंजस्य* को दर्शाता है ।

*महर्षि सौभरि* जी ने  भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ को भगाकर मछली व सर्पों की जान बचायी इसलिये वो शरणागतवत्सल भी कहलाए । वो *पर्यावरण हितेषी* थे । उन्होंने *दयालुता* के माध्यम से जीवों की रक्षा की। महर्षि सौभरि जी तपस्या के समय यमुना नदी जल के जल में *योग* करते थे । उनके द्वारा जल के अंदर *वॉटर मेडिटेशन* की यह *योगविद्या* निराली ही थी । महर्षि सौभरि* यमुना जल से बाहर निकल कर पारवारिक लीला करने हेतु,राजा मान्धाता के पास पहुँचकर उनसे शादी का प्रस्ताव रख, *आत्मविश्वासी, निडर, स्पष्टवक्ता, स्वयंवर समर्थक* आदि होने का बड़ा ही अच्छा नमूना पेश करते हैं ।💐

 साभार:-

: Oman Saubhari Bhurrak, Bharanakalan (Mathura)


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सौभरेयवंशजों को अपने गोत्र व प्रवर ऋषियों के बारे में पढ़ना ही चाहिये ।

ब्रजभाषा के माध्यम महर्षि सौभरि जी कथा का वर्णन

सौभरेय ब्राह्मण समाज की जानकारी के संबंध में मन में उठने वाले प्रश्न

सृष्टि रचना से लेकर अब तक ब्राह्मणों का इतिहास व इनके कर्तव्य एवम अधिकारों से आपका परिचय

सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी व उनके पुत्रों के वंशज “ब्राह्मणों के परिचय” के साथ-साथ आप पढ़ेंगे की कैसी-कैसी भ्रांतियां अन्य समाजों में ब्राह्मणों के प्रति फैली हुई हैं?

सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी जोकि हिन्दू धर्म में एक प्रमुख देवता हैं। ये हिन्दुओं के तीन प्रमुख देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) में से एक हैं। ब्रह्मा जी को सृष्टि का रचयिता कहा जाता है।
ब्रह्मा के हाथों में वेद ग्रंथों का चित्रण किया गया है। उनकी पत्नीं गायत्री के हाथों में भी वेद ग्रंथ है।
ब्रह्माजी देवता, दानव तथा सभी जीवों के पितामह हैं। सभी देवता ब्रह्माजी के पौत्र माने गए हैं, अत: वे पितामह के नाम से प्रसिद्ध हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा जी के चार मुख हैं। वे अपने चार हाथों में क्रमश: वरमुद्रा, अक्षरसूत्र, वेद तथा कमण्डलु धारण किए हैं।

ब्रह्मा जी के पुत्र:-

1. मरीचि 2. अत्रि 3. अंगिरस 4. पुलस्त्य 5. पुलह 6. कृतु 7. भृगु 8. वशिष्ठ 9. दक्ष 10. कर्दम 11. नारद 12. सनक 13. सनन्दन 14. सनातन 15. सनतकुमार 16. स्वायम्भुव मनु और शतरुपा 17. चित्रगुप्त 18. रुचि 19. प्रचेता 20. अंगिरा

ब्रह्मा की प्रमुख पुत्रियां:-

1. सावित्री 2. गायत्री 3. श्रद्धा 4. मेधा 5. सरस्वती

ब्रह्माजी के 7 पुत्र जोकि उत्तर दिशा में आकाश में सप्तर्षि के रूप में स्थित हैं- 
मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, कर्तु, पुलस्त्य तथा वशिष्ठ ।

ब्रह्मा के प्रमुख पुत्रों की जन्म की अवस्था:-

1. मन से मारिचि।
2. नेत्र से अत्रि।
3. मुख से अंगिरस।
4. कान से पुलस्त्य।
5. नाभि से पुलह।
6. हाथ से कृतु।
7. त्वचा से भृगु।
8. प्राण से वशिष्ठ।
9. अंगुष्ठ से दक्ष।
10. छाया से कंदर्भ।
11. गोद से नारद।
12. इच्छा से सनक, सनन्दन, सनातन और सनतकुमार।
13. शरीर से स्वायंभुव मनु और शतरुपा।
14. ध्यान से चित्रगुप्त।

उपरोक्त सभी पुत्रों के ही वंशज आज भारत में निवास करते हैं।

ब्राह्मण कौन है?


ब्राह्मण शब्द ज्ञान साधना, शील, सदाचार, त्याग और आध्यात्मिक जीवन-वृत्ति के आधार पर अपना जीवन जीने वाले लोगों के लिए एक सम्मानित संबोधन है ।
जो आत्मा के द्वैत भाव से युक्त न हो; जाति गुण और क्रिया से भी युक्त न हो; षड उर्मियों और षड भावों आदि समस्त दोषों से मुक्त हो; सत्य, ज्ञान, आनंदस्वरूप, स्वयं निर्विकल्प स्थिति में रहने वाला, अशेष कल्पों का आधार रूप, समस्त प्राणियों के अंतस में निवास करने वाला, अंदर-बाहर आकाशवत संव्याप्त; अखंड आनंद्वान, अप्रमेय, अनुभवगम्य, अप्रत्यक्ष भासित होने वाले आत्मा का करतल आमलकवत परोक्ष का भी साक्षात्कार करने वाला; काम-राग द्वेष आदि दोषों से रहित होकर कृतार्थ हो जाने वाला; शम-दम आदि से संपन्न; मात्सर्य, तृष्णा, आशा, मोह आदि भावों से रहित; दंभ, अहंकार आदि दोषों से चित्त को सर्वथा अलग रखने वाला हो, वही ब्राह्मण है ।

न क्रुद्ध्येन्न प्रहृष्येच्च मानितोऽमानितश्च यः । सर्वभूतेष्वभयदस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥
भावार्थ: जो व्यक्ति सम्मान दिए जाने अथवा अपमान किये जाने पर न तो प्रसन्न होता है और न ही नाखुश, और जो सभी प्राणियों अभय देता है उसी को देवतागण ब्राह्मण कहते हैं ।

देवाधीनाजगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवता: ।
ते मन्त्रा: ब्राह्मणाधीना:तस्माद् ब्राह्मण देवता ।
भावार्थ:- सारा संसार देवताओं के अधीन है तथा देवता मन्त्रों के अधीन हैं और मन्त्र ब्राह्मण के अधीन हैं इस कारण ब्राह्मण देवता हैं ।

ब्राह्मण सिर्फ मंदिर में पूजा करता हुआ पुजारी नहीं है,
ब्राह्मण घर-घर भीख मांगता भिखारी नहीं है।
ब्राह्मण गरीबी में सुदामा-सा सरल है,
ब्राह्मण त्याग में दधीचि-सा विरल है।
ब्राह्मण विषधरों के शहर में शंकर के समान है,
ब्राह्मण के हस्त में शत्रु के लिए परशु कीर्तिवान है ।
हे शक्तिपुंज ब्राह्मण तुम, स्वशक्ति भूलकर रुको नहीं।
तुम रास्ते बाधाओं के देख, किसी के सम्मुख झुको नहीं ।

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ब्राह्मणों को सम्पूर्ण भारतवर्ष में विभिन्न उपनामों से जाना जाता है, जैसे -

पूर्वी उत्तर प्रदेश में शुक्ल,त्रिवेदी, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, दिल्ली, हरियाणा व राजस्थान के कुछ भागों में आदिगौड़, खाण्डल विप्र, ऋषीश्वर (गौर),वशिष्ठ, कौशिक, भारद्वाज ,सनाढ्य ब्राह्मण, राय ब्राह्मण त्यागी अवध (मध्य उत्तर प्रदेश) तथा मध्यप्रदेश के बुन्देलखंड से निकले जिझौतिया ब्राह्मण,रम पाल, राजस्थान, मध्यप्रदेश व अन्य राज्यों में वैष्णव(बैरागी)ब्राह्मण, बाजपेयी, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश ,बंगाल व नेपाल में भूमिहार, जम्मू कश्मीर, पंजाब व हरियाणा के कुछ भागों में महियाल, मध्य प्रदेश व राजस्थान में गालव, गुजरात में श्रीखण्ड,भातखण्डे अनाविल, महाराष्ट्र के महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण, मुख्य रूप से देशस्थ, कोंकणस्थ , दैवदन्या, देवरुखे और करहाड़े है. ब्राह्मणमें चितपावन एवं कार्वे, कर्नाटक में अयंगर एवं हेगडे, केरल में नम्बूदरीपाद, तमिलनाडु में अयंगर एवं अय्यर, आंध्र प्रदेश में नियोगी एवं राव, उड़ीसा में दास एवं मिश्र आदि तथा राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार में शाकद्वीपीय (मग)कहीं उत्तर प्रदेश में जोशी जाति भी पायी जाती है।


इनमें से अंगिरस गोत्री मूल निवासी सुनरखवासी(वृन्दावनवासी) व दाउजी के पंडा पुरोहित ब्राह्मण “आदिगौड़ सौभरेय अहिवासी ब्राह्मण” के नाम से जाने जाते हैं । “अहिवासी” इनकी उपाधि है । 

ब्राह्मण अपने जीवनकाल में सोलह प्रमुख संस्कार करते हैं-
*जन्म से पूर्व*-
1-गर्भधारण 
2-पुन्सवन (गर्भ में नर बालक को ईश्वर को समर्पित करना)
3-सिमन्तोणणयन (गर्भिणी स्त्री का केश-मुण्डन *बाल्यकाल में*-
4-जातकर्म (जन्मानुष्ठान)
5-नामकरण
6-निष्क्रमण
7-अन्नप्रासन
8- चूडकर्ण
9- कर्णवेध * बालक के शिक्षण-काल में*-
10-विद्यारम्भ
11-उपनयन अर्थात यज्ञोपवीत्
12-वेदारम्भ
13-केशान्त अथवा गोदान
14-समवर्तनम् या स्नान
*वयस्क होने पर*-
15-विवाह तथा मृत्यु पश्चात
16-अन्त्येष्टि प्रमुख संस्कार

ब्राह्मणों के मुख्य 6 कर्तव्य (षट्कर्म) बताए गए हैं-
1. पठन
2. पाठन
3 यजन
4. याजन
5. दान
6. प्रतिग्रह।

ब्राह्मण के अधिकार – 
1. अर्चा 
2. दान 
3. अजेयता
4. अवध्यता।

ब्राह्मण के 9 गुण-
1. सम
2. दम
3. तप
4. शौच
5. क्षमा
6. सरलता
7. ज्ञान
8. विज्ञान
9. आस्तिकता

ब्राह्मणों के प्रति जनमानस में कुछ भ्रांतियां-

ब्राह्मण भारत में आर्यों की समाज व्यवस्था अर्थात् वर्ण व्यवस्था का सबसे ऊपर का वर्ण है। आधुनिक इतिहासकार हमें सिखाते हैं कि भारत के ब्राह्मण सदा से दलितों का शोषण करते आये हैं जो घृणित वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तक रहे हैं और साथ वो यह भी कहते हैं कि ब्राह्मणों ने कभी किसी अन्य जाति के लोगों को पढने लिखने का अवसर नहीं दिया। बड़े बड़े विश्वविद्यालयों के बड़े बड़े शोधकर्ता यह सिद्ध करने में लगे रहते हैं कि ब्राह्मण सदा से समाज का शोषण करते आये हैं और आज भी कर रहे हैं, कि उन्होंने हिन्दू ग्रन्थों की रचना केवल इसीलिए की कि वे समाज में अपना स्थान सबसे ऊपर घोषित कर सकें ।

मैं इन सभी बातों का एक सिरे से खंडन करता हूँ आप जरा दिल और दिमाग से सोचें कि यदि विद्या केवल ब्राह्मणों की पूंजी रही होती तो वाल्मीकि जी रामायण कैसे लिखते और तिरुवलुवर तिरुकुरल कैसे लिखते?

ब्राह्मण समुदाय ही था जिसके कारण हमारे देश का बच्चा बच्चा गुरुकुल में बिना किसी भेदभाव के समान रूप से शिक्षा पाकर एक योग्य नागरिक बनता था? क्या हम भूल गए कि ब्राह्मण ही थे जो ऋषि मुनि कहलाते थे, जिन्होंने विज्ञान को अपनी मुट्ठी में कर रखा था?

पुराने समय के अनुसार जिन दो पुस्तकों में वर्णव्यवस्था (जाति व्यवस्था नहीं) का वर्णन आता है उनमें पहली पुस्तक है 
मनुस्मृति जिसके रचियता थे *मनु* जो कि एक क्षत्रिय थे जिनकी वर्ण व्यवस्था के अनुसार अनादि से ही भारत संसार का सबसे धनवान देश रहा था और आज जो ब्राह्मण व इस पुरानी व्यवस्था के विरोधियों द्वारा बनायी गई नई व्यवस्था से भारत पिछड़ा हुआ ‘थर्ड वर्ल्ड कंट्री’ कहलाता है।

महर्षि मनु ने मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित समाज व्यवस्था की रचना कर की थी
(यहाँ देखें- ऋग्वेद- 10.10.11-12, यजुर्वेद-31.10-11, अथर्ववेद-19.6.5-6)।

भगवान बुद्ध क्षत्रिय थे, स्वामी विवेकानंद कायस्थ थे, पर अति उत्कृष्ट स्तर के ब्रह्मवेत्ता थे जिनमें ब्रह्मचेतना और धर्मधारणा जीवित और जाग्रत थी भले ही वो किसी भी वंश में क्यूं न उत्पन्न हुए हों।

दूसरी पुस्तक है श्रीमदभगवदगीता जिसके रचियता थे श्री *वेदव्यास जी* जो कि मछुआरन से पैदा हुए पुत्र थे। यदि इन दोनों ने अपने ग्रन्थों में ब्राह्मण को उच्च स्थान दिया तो केवल उसके ज्ञान एवं शील के कारण ना कि किसी स्वार्थ के कारण ।

ब्राह्मण हमेशा से अहिंसावादी व पूर्ण रूप से शाकाहारी रहे थे और सात्विक भी और इसलिए उनकी वृतियां भी सात्विक रही थी। भारत का ब्राह्मण वह मृग है जिसे वन का प्रत्येक जन्तु इस मृग का शिकार करना चाहता है, उसे खा जाना चाहता है ।

यह पोस्ट किसी जातिवाद को बढ़ावा देने के लिए नहीं वरन ब्राह्मणों के विरुद्ध समाज में लोगों द्वारा फैलाई जा रही भ्रांतियां व नकारात्मकता के बारे में है । कृपया करके उनसे निवेदन है जो इन भ्रांतियों को अपने मस्तिष्क से निकालें और बास्तविक सच्चाई को जानें । वेदों, पुराणों, उपनिषद इत्यादियों को इनकी गहराइयों में जाकर पढ़ें फिर सही से ब्राह्मण समाज का आंकलन करें ।

:ओमन सौभरि भुर्रक, भरनाकलां (मथुरा)


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ब्रजभाषा के माध्यम महर्षि सौभरि जी कथा का वर्णन


आइये आज हम ब्रह्मा जी के 10 मानस पुत्रन में ते ज्येष्ठ पुत्र ब्रह्मर्षि अंगिरा और इनके पुत्र ऋषि घोर तथा घोर जी के महर्षि कण्व एवं कण्व जी के वंश में उत्पन्न एक अत्यन्त विद्वान एवं तेजस्वी भगवद रूप महापुरुष “ब्रह्मऋषि सौभरि जी” के बारे में पढतें । विन्नै वेद-वेदांगन के अध्ययन-मनन ते ईश्वर, संसार और इनकी वस्तु तथा परमार्थ कूँ अच्छी तरह समझ लियौ हतो। वो हर समय अध्ययन एवं ईश्वर के भजन में लगे रहमत हते, विनकौ मन संसार की अन्य काऊ वस्तून में नाँय लगतौ हतो। एक बार विनके मन में जे इच्छा उत्पन्न भई कै वन में जाय कैं तपस्या करी जाय । जब विनके माता-पिता कूँ या बात के बारे में पतौ चलौ, तौ विन्नै सौभरि जी कूँ समझाते भये कही, “बेटा या समय तुम युवा हो, तुम्हें अपनौ विवाह करकैं गृहस्थ-धर्म कौ पालन करनौ चहियै। चौं कै हर वस्तु उचित समय पै ही अच्छी लगतै, या लैं पहले अपनी जिम्मेदारीन कूँ निभाऔ, फ़िर विनते मुक्त  हैकैं, संसार कूँ त्यागकैं भगवान कौ भजन करियो, वा समय तुम्हें कोई नाँय रोकेगौ। हालांकि अबहु तुम्हारौ मन वैराग्य की ओर है, परन्तु युवावस्था में मन चंचल हैमतौ है, नैक देर में ही डिग जामतौ है। या प्रकार  ते अस्थिर चित्त ते तुम तपस्या एवं साधना कैसैं करैगौ? लेकिन सौभरि जी तौ जैसे दृढ़-निश्चय कर चुके हते। विनके माता-पिता की कोई हु बात विन्नै टस ते मस नाँय कर सकी और एक दिना वे सत्य की खोज में वन की ओर निकर पड़े। चलते-2 वे एक अत्यन्त ही सुन्दर एवं रमणीय स्थान *सुनरख, वृन्दावन* पहुँचे जहाँ पास में ही यमुना नदी बह रही हती और पक्षी मधुर स्वर में कलरव कर रहे हते। ऐसौ शान्त वातावरण देख कैंच या स्थान कूँ विन्नै अपनी तपस्या-स्थली के रूप में चुन लियौ।

ऐसैं ही दिन बीत रहे हते, विनके शरीर पै अब काऊ हु मौसम कौ असर नाँय होंतौ हतो। ढिंग के ही गाँव वारे जो कुछ रूखौ-सूखौ भोजन दै जामते, वा ही ते वो अपना पेट भर लैमत हते। धीरे-2 कब युवावस्था बीत गई और कब बुढ़ापे नै विन पै अपनौ असर दिखानौ शुरु कर दियौ, पतौ ही नाँय चलौ। फ़िर एक दिन अचानक वो ही है गयौ, जो नाँय हैनौ चहियै हतो।

वहीं दूसरी तरफ, …सम्राट मान्धातृ अथवा मांधाता, इक्ष्वाकुवंशीय नरेश युवनाश्व और गौरी पुत्र अयोध्या में राज करते हते । वह सौ राजसूय, अश्वमेध यज्ञों के कर्ता और दानवीर, धर्मात्मा चक्रवर्ती सम्राट् हते । मान्धाता ने शशिबिंदु की पुत्री बिन्दुमती ते विवाह करो हतो । विनके मुचकुंद, अंबरीष और पुरुकुत्स नामक तीन पुत्र और 50 कन्याएँ उत्पन्न भयी हतीं।

राजा मान्धाता ‘युवनाश्व’ के पुत्र हते, युवनाश्व च्यवन ऋषि द्वारा संतानोंत्पति के लैं मंत्र-पूत जल कौ कलश पी गए हते । च्यवन ऋषि नै राजा ते कही कै अब आपकी कोख ते बालक जन्म लेगौ। सौ वर्षन के बाद अश्विनीकुमारन नै राजा की बायीं कोख फाड़कैं बालक कौ प्रसव  करायौ हतो। ऐसी स्थिति में  बालक कूँ पालनौ, एक बड़ी समस्या हती, तौ तबही इन्द्रदेव नै अपनी तर्जनी अंगुरिया वाय चुसामत भए कही- माम् अयं धाता (जे मोय कूँ ही पीबैगौ)। तबही ते बालक कौ नाम मांधाता पड गयौ।

महाराजा मांधाता के समय में ही ब्रह्मर्षि सौभरि जी जल के अंदर तप व चिंतन करते हते | वा जल में ‘संवद’ नामक मत्स्य निवास करतौ हतो । बू अपने परिवार के संग जल में विहार करतौहतो । एक दिना ब्रह्मर्षि सौभरि जी नै तपस्या ते निवृत हैकैं वा मत्स्य राज कूँ वाके परिवार सहित देखकैं अपने अंदर विचार करौ और सोची कै जे मछली की योनि में हु अपने परिवार के साथ रमण कर रह्यौ है चौं ना मैं हु या ही तरह ते अपने परिवार के संग ललित-क्रीड़ाएं करै करंगौ । वा ही समय जल ते निकलकैं गृहस्थ जीवन जीने की अभिलाषा ते राजा मान्धाता के पास पहुँचगे । अचानचक्क आये भए महर्षि कूँ देखकैं राजा मान्धाता आश्चर्यचकित भए और बोले, हे ब्रह्मर्षि! बताऔ मैं आपकी काह सेवा कर सकतौ हूँ, मोकूँ बतल देओ ।  सौभरि जी नै आसन ग्रहण करते भए राजा मान्धाता ते बोले हे राजन! मोय आपकी एक कन्या की आवश्यकता है वाके संग मैं अपनौ विवाह रचानौ चहामतौ हूँ । आपके समान अन्य राजान की पुत्रियां हु हैं परन्तु मैं यहाँ या लैं आयौ हूँ कै कोई हु याचक आपके यहाँ ते खाली हाथ कबहु नाँय लौटै । आपके तौ 50 कन्याएं हैं विनमें ते आप मोय सिर्फ एक ही दै देओ । राजा ने महर्षि की बात सुन व विनके बूढ़े शरीर कूँ देखकैं डरते भए बोले, हे ब्रह्मर्षि! आपकी जे इच्छा हमारे मन ते परे है चौं कै हमारे कुल में लड़की अपनौ वर स्वयं चुनतैं । ब्रह्मर्षि सौभरि सोचबे लगे जे बात केवल टालबे के लैं है और वो जे हु सोच रहे हते कै जे महाराज मेरे जर्जर शरीर कूँ देखकैं भयाभय है रहे हैं । राजा की ऐसी मनोदशा देखकैं वह बोले हे राजन! अगर आपकी पुत्री मोय चाहंगी तौ ही मैं विवाह करंगो अन्यथा नाँय । जे सुनकैं राजा मान्धाता बोले फिर तो आप स्वयं अंतःपुर कूँ चलिए, अंतःपुर में प्रवेश ते पहले ही ब्रह्मऋषि सौभरि जी नै अपने तपोबल ते गंधर्वन ते हु सुन्दर और सुडौल शरीर धारण कर लियौ । ब्रह्मऋषि के संग अंतःपुर रक्षक हतो, वा ते महर्षि ने कही कै अब वो राजा की पुत्रीन ते बोलै, जो कोई पुत्री मोय वर के रूप में स्वीकार करत होय वो मेरौ स्मरण करै इतेक सुनते ही राजा की सब पुत्रीन नै पने-अपने मन महर्षि जी कौ स्मरण करौ और परस्पर जे कहमन लगी जे आपके अनुरूप नाँय हैं या लैं मैं ही इनके संग विवाह करूंगी । देखत ही देखत राजा की पुतत्रीन नै आपस में कलह करबौ शुरू कर दियौ । जे सबरी बात अंतःपुर रक्षक नै राजा मान्धाता कूँ बताई । जे सुनकैं राजा कूँ बड़ौ आश्चर्य भयौ और बोले रक्षक तुम कैसी बात कर रहे हो । राजा अब सबरी बात समझ गए हते । बड़ी धूमधाम ते  50 कन्यान कौ विवाह संस्कार पूरा कियौ और वहाँ ते ऋषि कूँ पचासों पुत्रीन के संग विदा कियौ । ब्रह्मर्षि सौभरि जी विन पचासों कन्यान कूँ अपने आश्रम कूँ लै गये, आश्रम पहुंचते ही विश्वकर्मा कूँ बुलायौ और सब कन्यान के लैं अलग-अलग गृह बनबाबे के लैं कही  और जे हु कही कै चारों तरफ सुन्दर जलाशय और पक्षीन ते गूंजते भए बगीचे होंय । शिल्प विद्या के धनी विश्वकर्मा नै वे सबरी सुविधा उपलब्ध करायीं जो अनिवार्य हती । राज कन्यान के लैं अलग-अलग महल खड़े कर दिए । अब राज कन्यां बड़े मधर स्वभाव ते वहाँ रमण करबे लगीं ।

एक दिना राजा मान्धाता नै अपनी पुत्रीन कौ हाल जानबे के लैं महर्षि के आश्रम पहुंचे और वहाँ जाय कैं अपनी पुत्रीन ते एक-एक कर कैं विनकौ हाल-चाल पूछ्यौ और कही कै पुत्री खुश तौ है ना? तुम्हें काऊ प्रकार कौ कष्ट तौ नाँय है । पुत्रीन नै जवाब दियौ, नाँय मैं बहुत खुश  हूँ बस एक बात है कै मेरे स्वामी सौभरि जी मोय छोड़कैं अन्य बहनन के पास जामत ही नाँय । या ही तरह राजा नै दूसरी पुत्री ते हु वही प्रश्न कियौ वानै हु पहली वारी पुत्री की तरह ही जवाब दियौ | या ही तरह ते राजा मान्धाता कूँ सब पुत्रीन ते समान उत्तर सुनबे कूँ मिलौ । राजा सब कछू समझ गए और ब्रह्मर्षि सौभरि जी के सामने हाथ जोड़कैं बोले महर्षि जे आपके तपोबल कौ ही परिणाम है । अंत में राजा अपने राज्य को लौट आये । महर्षि सौभरि जी के 5000 पुत्र भए । कई वर्षन तक ऋषि सौभरि जी नै अपनी पत्नी और बच्चन के संग सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करौ । अब वे आयगे की सोचबे लगे कै अब विनके पुत्रन के हु पुत्र हुन्गे, या ही तरह अंदर ही अंदर विचार करबे लगे कै मेरी इच्छान के मनोरथ कौ विस्तार होंतौ ही जाय रह्यौ है । जे सब सोचकैं फिर ते विन्नै वैराग्य हैमन लगौ और  धीरे-2 विनकौ मन इन सब ते उचटबे लगौ। विनकौ मन विनते बार-2 एक ही प्रश्न करतौ कै, काह जे ही सांसारिक भोगन के लैं मैंनै तपस्या और कल्याण कौ मार्ग छोड़ दियौ हतो। विन्नै गृहस्थ-जीवन के सुख कूँ हु देखौ हतो और तपस्या के समय की शांति और संतोष कूँ हु। या प्रकार वे गृहस्थमोह सब कछु त्यागकैं अपनी स्त्रीन संग वन की ओर गमन कर गए । और याके बाद फिर ते भगवान् में आशक्त है कैं मोक्ष कूँ प्राप्त कियौ ।

साभार:-

पंडित ओमन सौभरि भुर्रक, भरनाकलाँ, गोवर्धन (मथुरा)


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Monday, 26 July 2021

वो काली रात जब, हुआ था हमारे पूर्वजों का बहिष्कार-

वो काली रात जब, हुआ था हमारे पूर्वजों का बहिष्कार-


वृन्दावन “सौभरि ब्राह्मण समाज” का मूल निवास रहा है(सुनरख धाम ) क्योंकि हमारे वंशधर "ब्रह्मऋषि सौभरि जी" व् पूर्वजौं की तपस्थली थी | लेकिन एक घटना है जिसको सुनते ही आज भी दिल कम्पित हो उठता है, शायद हमारी युवा पीढ़ी इस "वाक़या" से अनभिज्ञ होगी | हम उसको काला दिवस नही कह सकते लेकिन वो भयंकर काली रात रही होगी| जब हमारी पांडित्यपूर्ण पराकाष्ठा चरम पर थी और ब्रज के लगभग सभी बड़े देवालयों के पुरोहित थे तब अचानक ही एक ऐसी अनहोनी हुई जिसने हमको देश के कोने -कोने में जाने को मजबूर कर दिया | वो कुछ इस तरह से है-
सन १३०० ई० के करीब बस एक छोटी सी बात नामंजूर करने पर नबाब ने, यह कह कर सौभरि ब्राह्मण समाज का बहिष्कार कर दिया, कि आप सोने की भी गाय नही काट सकते, शहर वृन्दावन को खाली करने का फरमान जारी कर दिया | जितने भी जाति संसार के पूजनीय और कर्मनिष्ठ थे उनको चिंता सताने लगी | रातों रात सलाह मशविरा किया, निष्कर्ष निकाला कि "काटने " से "भागना " बेहतर है और उसी क्षण अपनी जान बचाने की खातिर और अपने ‘ब्राह्मणत्व कि गरिमा’ को ध्यान रखते हुए, चलते बने | उसी रात अपने बच्चों और सामान के साथ निकल लिए |अब इतनी बड़ी तादात, जाएं तो कहाँ जाएं, बुद्धजीवियों ने सोचा जिसको जहाँ-जहाँ जगह मिलती जाय वो वहीँ ठहर ते जाओ | फिर क्या था धीरे- धीरे रथों का टोला आगे बढ़ता गया और जिसको जैसी जगह मिली वह वहीँ बसता गया | इधर सैकड़ों परिवार हाथरस, अलीगढ और बरेली की तरफ निकल गए | उधर ये घटना भरतपुर नरेश को पता चला तो उसने अपने गुप्तचरो द्वारा कुछ ठिकाने दे दिए जहाँ वो रह सकें | इस तरीके से कबीलों की तरह बसते गए | कुछ लोगो को सुदूर भेज दिया गया | उस समय एक राज्य से दूसरे राज्य में घुसने के लिए अनुमति लेनी पड़ती थी|इसलिए कुछ राजा के द्वारा बतौर शरणार्थी, कुछ रात में सीमा लांघकर , परिवारों का जिम्मा भिंड मुरैना विरासतों ने संभाला और बाकि जबलपुर की तरफ बढ़ गए |
कितनी यातनायें झेलने के बाद आज हम फिर से समृद्धि की ओर हैं |
स्वजाति आबादी - ढाई लाख से ऊपर
संत, सती, हजारों इंजीनियर्स, टीचर्स, डॉक्टर्,  pwd ठेकेदार, हजारो से ज्यादा भारत सरकार के कर्मचारी, और करीब प्राथमिक रोजगार ‘खेती’ से आया हुआ करोड़ों रुपयों का टर्नओवर के मध्ये नजर अपने आसपास के इलाकों में सम्रद्धि की धाक जमाये हुए हैं |
ऐसे कर्मनिष्ठ समाज को मेरा शत शत नमन ...

: ओमन सौभरि(भरनाकलां )

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Sunday, 25 July 2021

स्वरचित पद्य के माध्यम से राजा मान्धाता व ब्रह्मर्षि सौभरि जी का वर्णन

इक्ष्वाकु वंश और सौभरि ऋषि-


yavnashwa.png

गोत्र अंगिरस मूल निवासी सुनरख ।

गांव भरनाकलां, उपगोत्र भुर्रक ||

“इक्ष्वाकुवंश”, जो श्री राम जी का वंश है और अंगिरसगोत्री सौभरेय वंश जो कि हमारा वंश (स्वसमाज का) है, इन दोनों में क्या संबंध है इसे एक नवनिर्मित पद्य के माध्यम से बतलाने की एक कोशिश…
(ज्ञान नहीं मुझमें बड़ा, शिशु लो मुझको जान । 
बिना समाज आशीष कहाँ, मिले कहीं ना मान ।।)

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 गौड़ों में आदिगौड़, ब्राह्मणों में अहिवासी ।हैं सर्वश्रेष्ठ उन सब में से, सौभरि ब्राह्मण सुनरख वासी |

 एक पिपासा थी मेरे मन में, लिखूं कहानी वंशधरों की ।सब के सामने रखूं सूचना अपने प्यारे मधुर जनों की ||

 करीं इक्ट्ठी जानकारियां, लोगों से औऱ ऑनलाइन ।
 धीरे धीरे एडिट करके, रखता गया ऑफलाइन ||

 सोचा कहाँ से कैसे करूँ प्रथम शुरुआत ।नमन सौभरि जी कीन्हा बुनता गया बात में बात ||

 पहले वर्णन ब्रह्मा जी फिर पुत्रों का किया उल्लेख ।इनके पुत्र अंगिरस जी की , ऋग्वेद में सूक्ति अनेक ।

अंगिरसपुत्र घोर ऋषि पीढी नम्बर है इनका तीन ।थे गुरुतुल्य श्री कृष्ण के, घोर आंगिरस नामचीन ||

चौथी पीढ़ी में हैं कण्व ऋषि, महर्षि घोर के पुत्र कहलाये । इनकी पांचवी पीढ़ी में, परम तपस्वी सौभरि जी आये ||

इक्ष्वाकु वंश में एक राजा हुए परमप्रतापी, न्यायप्रिय और प्रजापालक । थी सम्पन्न प्रजा राज्य में , परन्तु नहीं था उनके कोई बालक ।।

इस दुख से वह छोड़ राज्य, च्यवन ऋषि आश्रम में रहने की ठानी । पतिव्रता रानी ने भी, पतिदेव की बात मानी ।।
पुत्रहीन युवनाश्व पत्नी संग, गये यज्ञ करने वन में। 
पहुँच गए ले पुत्र की आशा, वात्सल्य दुःख लेकर मन में ।।
व्याकुल राजा को देख, वहाँ ऋषियों ने यज्ञ किया । 
हवन यज्ञ वेदी के ऊपर, जलकलश भरकर रख दिया ।।

 बोले ऋषि यज्ञोपवीत कलशजल, कल इसका पान करेगी रानी ।
होगा इससे वीर पुत्र, परमतेज और ज्ञानीधानी ।। 

अपनी-अपनी जगह सो गए, ऋषिवर और राजा रानी । आधी रात को राजा प्यासा, चारोँ ओर ढूँढे पानी ।।

जल देख प्यासा राजा, प्रसन्न हुआ बहुत भारी ।
बिन देखे ही पी गये, यज्ञवेदी जल की गगरी सारी ।।

रिक्त कलश सुबह देख मुनि ने, पूछा कलशजल किसने पिया । हाथ जोड़कर राजा ने सब कुछ, रात्रि में हुआ वो कह दिया ।।

बोले राजा च्यवन ऋषि से, जाग नींद से मैंने पिया पानी ।ऋषि यह सुनकर बोले, हे राजन क्यों की ऐसी नादानी ।।

सुनकर मुनि हुये चिंतित, देखेंगे अब विधि-विधाता ।
राजा के ठहरा गर्भ, फिर उनसे पुत्र हुए मान्धाता ।।

नर से जन्मा नर, अब इनका लालन-पालन हो कैसे।
वहाँ आकर इंद्रदेव मान्धातृ को, उंगली पिलाने लगे जैसे -तैसे ।।

धीरे-धीरे हुए बड़े, और राज्य पादभर संभाल लिया अपना।
सबकुछ इनके पास, अब अगला पड़ाव शादी का सपना ।।

मान्धाता का हुआ स्वयंवर, रानी बिन्दुमती आयी ।
हुये इनके पुत्र तीन, सुंदर पचास कन्याएं जायीं ।।


पुत्रों के नाम हैं पुरुकुत्स, अम्बरीष और मुचकुन्द ।मुचकुन्द वही जिन्होंने, काटा था दैत्य कलियावन का फंद ।।
दूसरी ओर ब्रजमंडल में, परम तपस्वी ऋषि सौभरि ।
यमुना जल में करें तपस्या घनघोर, कण्वपुत्र सौभरि ।।

नित ध्यान रखा क़रते थे वो, यमुना के निर्मल जल के अंदर । गरुड़ से बचाया कालिया नाग को, और वास दिया रमन द्वीप पर।।

बालापन से वृद्धावस्था तक, ब्रह्मचारी रहे सौभरि ।
किया तप दश सहस्त्रवर्ष, थे घोरऋषि के पौत्र सौभरि ।।

मतस्य राज को देखा जल में, प्रबल मुदित मन हुये सौभरि ।
जल में देख मत्स्य कुटुंब को, हुए विचलित अंगिरस प्रपौत्र सौभरि ।।

जप तप सारे नियम भुलाकर विवाह की सोचें बारम्बार । मान्धाता की नगरी में पहुंचे, और राजा की करें पुकार ।।

हे नृपदेव तुम्हारी हैं पचास पुत्रियां अति प्यारी ।
इनमें से केवल एक की, करो स्वयंवर की तैयारी ।।

राजा थे चुपचाप सुन रहे, करें मंत्रणा अपने आप ।
डर था उनको ब्रह्मऋषि का, उनको कहीं न दे दें श्राप ।।

इनकी शक्ति से थे राजा परिचित, एकबार कृषि यज्ञ कराया । हवन यज्ञ के प्रभाव से मेघों ने जलधन बरसाया ।।

जटाधारी वृद्ध ऋषि को देख, राजा ने सोचा इनसे है कुछ नहीं कहना । जब ये जाएंगे महलों के अंदर, पुत्रियां ही स्वयं कर देंगीं मना ।।

अब राजा मुनि से बोले कि आप महलों के अंदर जाओ । अंतःपुर से पुत्रीस्वेच्छा से, तुम एक को वर कर ले आओ ।।

मुनिवर गए महल के अंदर, योग शक्ति से नवयुवक बने ।ऐसा रूप देखकर,सैनिक रह गये सन्न खड़े ।।

अब पहुंचे अन्तः पुर के अंदर, वहाँ थी खड़ी कन्यायें पचास । सुंदर उनका रूप देखकर, विवाह की सारी करें आश ।।

लगी झगड़ने ये मेरा वर-ये मेरा वर,सबने दी फिर माला डाल । हुआ स्वयंवर पचासों से, मुनि वर हुए घने निहाल ।।

ले विदा मान्धाता से,फिर सुनरख को वापस आये ।विश्कर्मा की सहायता से ,सुंदर सुंदर महल बनवाये ।।

हर रानी को दिया अलग महल, और दी सुख सुविधाएं । धर कर अपने बहुल रूप, सब के इच्छित पतिवर बन जाएं ।।

कुछ समय बाद वहां मान्धाता, आये सुनरख की ओर ।
पूछूँ अपनी पुत्रियों से, कैसे कट रही जीवन की डोर ।।

राजा ने पूछा आकर पहली बेटी से, क्या तुम पूर्ण सुखी हो । बोली मैं तो सुखी हूँ, लेकिन शायद दूसरी बहिन दुखी हो ।।

ठीक है मैं उन सबसे पूछुंगा, एक-एककर बारी-बारी ।राजा ने दूसरी पुत्री से भी किया प्रश्न, कैसी हो पुत्री प्यारी ।।
बोली पिताश्री पतिवर ने, मुझे कभी नहीं किया उदास ।रहते हमेशा महल में मेरे, जाते नहीं दूसरी बहिन के पास ।।
आगे बोली मैं तो सुखी हूँ, मेरी बहिनें होंगी दुखी ।
राजा बारी- बारी पूछते जाएं, सबने बोला हम तो हैं परम सुखी ।।

सुन सारी बातों को राजा, मन ही मन हर्षाये ।
समझ गए ऋषि शक्ति को, वापस स्वराज्य लौट आये ।।

सौभरि जी के दाम्पत्य जीवन में, पुत्र हुए पांच हजार । इतने सारे कुटुंब को देखकर, करने लगे सोच विचार ।।

इनके भी होंगी संतानें, क्यों कुटुम्ब मोह और बढाऊँ । जी गया भर मेरा देख ये सब, फिर से वनगमन को जाऊं ।।

छोडकर सब वनगमन की ओर, ऋषि इच्छा हो रही बलबती। पचास की पचास रानियां भी, वन को चल पड़ी संग पति ।।

वन में जाकर फिर से करी तपस्या भारी ।
आने जाने के जीवनचक्र से, अपनी समस्या छुटायी सारी ।।
दिव्य ऋषि ने पत्नियों संग, परमलोक किया गमन ।
ऐसे परम पूज्य पितामह को, हम करते बारम्बार नमन ।।

इनके वंशज अब सुनरख से फैले, अखिल भारत में । अधिकांशतः बसते हैं राजस्थान मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में ।।

कहलाते हैं अंगिरस गोत्री, पचास उपगोत्रों में बँटे हुए हैं ।हर क्षेत्र में अपनी क्षमताओं का परचम लेकर डटे हुए हैं ।।
डेढ़ सौ से ऊपर हैं, गौरवमयी स्वसमाज के गाँव ।
सौभरि ब्राह्मणों को मिला है उपाधि रूप में अहिवासी नाम ।।
कथा हुई अब पूर्ण, कलम को देता हूँ अब थमा ।
कुछ हुई हो गलती मुझसे, कर देना मुझको क्षमा ।।


:ओमन सौभरी भुर्रक, भरनाकलाँ (मथुरा)


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महर्षि सौभरि के पिता श्री महर्षि काण्व के बारे जानिए

 महर्षि काण्व:- (अंगिरस गोत्र)

 सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामण्डल पर टिक जाती है।


वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- 1.वशिष्ठ, 2.विश्वामित्र, 3.कण्व, 4.भारद्वाज, 5.अत्रि, 6.वामदेव 7.शौनक

कण्व, महर्षि घोर के पुत्र थे जिन्होंने ऋग्वेद में अनेक मन्त्रों की रचना की है। घोर ऋषि ब्रह्माजी के पौत्र व अंगिरा जी के पुत्र थे । वेदों और पुराणों में इनका वंश विवरण मिलता है । घोर ऋषि जी के पुत्र कण्व ऋषि थे । कण्वऋषि से भी एक पुत्र हुए जिनका नाम ब्रह्मऋषि सौभरि जी, जिनकी वंशावली ” आदिगौड़ सौभरेय ब्राह्मण” कहलाती है जो कि यमुना नदी के किनारे गांव सुनरख वृन्दावन ,मथुरा व आसपास के क्षेत्रों में इनका निवास है । गोकुल के पास बसी कृष्ण के बडे भाई की “दाऊजी की नगरी” में इनके वंशज ही “दाऊमठ” के पुजारी (पंडा जी) हैं । इसके अलावा राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में भी ये सौभरेय ब्राह्मण अच्छी संख्या में हैं । विष्णु पुराण व भागवद पुराण में इनके उल्लेख मिलता है । 

सदैव तपस्या में लीन रहने वाले ऋषि कण्व का रमणीक आश्रम था जहां शिष्यों की शिक्षा-दीक्षा अनवरत चलती रहती थी। उस काल में वृत्तासुर का आतंक संत-महात्माओं के लिए कष्टदायक बना हुआ था। उसने इन्द्र से इन्द्रासन बलपूर्वक छीन लिया था। वृत्तासुर को भस्म करने के लिए इन्द्र ने महर्षि दधीचि से प्रार्थना की तथा उनकी अस्थि बज्र बनाया और वृत्तासुर को मार दिया। वृत्तासुरके भस्म होने के बाद बज्र सृष्टि को भी अपने तेज से जलाने लगा। इस समाचार को नारद जी ने भगवान विष्णु से कहा और सृष्टि की रक्षा हेतु निवेदन किया। भगवान विष्णु ने नारद जी को बताया कि जहां एक ओर बज्रमें नष्ट करने की शक्ति है; तो दूसरी ओर सृजन करने की विलक्षण क्षमता भी है। विष्णु जी ने नारद जी से भूमण्डल पर महर्षि दधीचि के समकक्ष किसी तपस्वी ऋषि का नाम बताने को कहा। नारद ने महर्षि कण्व की प्रशंसा करते हुए उन्हीं का नाम इस हेतु प्रस्तावित किया। भगवान विष्णु महर्षि कण्व के आश्रम पर पहुंचे और बज्र के तेज को ग्रहण करने का आग्रह किया। ऋषि श्रेष्ठ ने सृष्टि के कल्याण के लिए उस तेज को ग्रहण करना स्वीकार किया। विष्णु भगवान ने कहा कि बज्र का तेज संहारक के साथ-साथ गर्भोत्पादक भी है। कुछ दिनों बाद ऋषि पत्नी गर्भवती हुई। पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। ये ही आगे चलकर तपोधन महर्षि सौभरि हुए। बालक सौभरि ने पिता कण्व से तत्वमसि का ज्ञान प्राप्त किया। ऋषि कण्व ने उन्हें सबका मूल सत् बताया। जगत का ईश्वर हमारी अपनी ही अन्तरात्मा स्वरूप है उसे दूरवर्ती कहना ही नास्तिकता है। ऋषि ने आगे कहा-वत्स! जगत की अनन्त शक्ति तुम्हारे अन्दर है। मन के कुसंस्कार उसे ढके हैं, उन्हें भगाओ, साहसी बनो, सत्य को समझो और आचरण में ढालो। कण्व पुन:बोले-पुत्र! जैसे समुद्र के जल से वृष्टि हुई वह पानी नदी रूप हो समुद्र में मिल गया।नदियां समुद्र में मिलकर अपने नाम तथा रूप को त्याग देती हैं; ठीक इसी प्रकार जीव भी सत् से निकल कर सत् में ही लीन हो जाता है। सूक्ष्म तत्व सबकी आत्मा है, वह सत् है। स्रोत:- महाभारत, ऋग्वेद, रामायण, विष्णुपुराण स्कंद पुराण

इनके अतिरिक्त छह सात और कण्व हुए हैं जो इतने प्रसिद्ध नहीं हैं ।

 दूसरे कण्व ऋषि काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।

सोनभद्र में जिला मुख्यालय से आठ किलो मीटर की दूरी पर कैमूर शृंखला के शीर्ष स्थल पर स्थित कण्व ऋषि की तपस्थली है जो कण्डाकोट नाम से जानी जाती है।

तीसरे कण्व ऋषि कण्डु के पिता थे जो अयोध्या के पूर्व स्थित अपने आश्रम में रहते थे। रामायण के अनुसार वे राम के लंका विजय करके अयोध्या लौटने पर वहाँ आए और उन्हें आशीर्वाद दिया।

चौथे कण्व पुरुवंशी राज प्रतिरथ के पुत्र थे जिनसे काण्वायन गोत्रीय ब्रह्मणों की उत्पत्ति बतलाई जाती है । इनके पुत्र मेधातिथि हुए और कन्या इंलिनी। (यह जानकारी कण्व गोत्रीय ब्राह्मणों के लिए लाभकारी हो सकती है)

पांचवा कण्व ऐतिहासिक काल में मगध के शुंगवंशीय राज देवमूर्ति के मन्त्री थे जिनके पुत्र वसुदेव हुए। इन्होंने राजा की हत्या करके सिंहासन छीन लिया और इनके वंशज काण्वायन नाम से डेढ़ सौ वर्ष तक राज करते रहे।

छठे कण्व पुरुवंशीय राज अजामील के पुत्र थे

सातवे कण्व महर्षि कश्यप के पुत्र।

विष्णु पुराण के अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :- वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत। विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।। अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।

इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है। महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। 


ओमन सौभरि भुर्रक, भरनाकलां, मथुरा


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