Tuesday, 3 August 2021

महर्षि सौभरि जी के चरित्र से संबंधित कुछ कथाएं


चरित्र रक्षा से बढ़कर कोई सिद्धि नहीं

 विधान ये है कि जो उपयुक्त पात्र हो, जिसे तितीक्षा की कसौटी पर भली प्रकार कस लिया गया हो उसे ही सिद्धि का अधिकार प्रदान किया जाये।


यह कहकर महामुनि क्रौष्टक चुप हो गए। उनकी मुख मुद्रा देखने से ऐसा प्रतीत होता था, जैसे अब उनकी चेतना विचारों के अगाध सागर में विलीन हो गयी हो। वे कुछ गम्भीर चिन्तन में निमग्न हो गए हैं-ऐसा समझकर कुछ आगे की बात न करके शिष्य सौभरि भी चुप हो गए और वहाँ से उठकर आचार्य देव के लिए संध्यादि के प्रबन्ध में जुट गए।

देर तक विचार करने के बाद भी क्रौष्टक अन्तिम निर्णय न कर सके कि महर्षि सौभरि को सिद्धि प्रदान करने वाली उच्चस्तरीय साधनाओं का अधिकार प्रदान किया जाये अथवा नहीं। उनकी करुणा, उनका सहज स्नेह उमड़ता और कहता सौभरि ने तुम्हारी बड़ी सेवाएँ की हैं, उसे यह अधिकार मिलना ही चाहिए। किन्तु शास्त्र, अनुभव आड़े आ खड़े होते और पूछते-क्रौष्टक सिद्धि पाने के बाद भी क्या तुझे विचलित करने वाली परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़ा? क्या तुझे इन्द्रिय लालसाओं के दमन में अत्यधिक कठोरता बरतनी नहीं पड़ी? क्या यह सम्भव है कि सिद्धि पाने के बाद सौभरि को ऐसे सामाजिक जीवन के अनिवार्य सन्दर्भों का सामना नहीं करना पड़ेगा? मान लो यदि सौभरि तब अपने को न संभाल पाया, तो होगा न सिद्धि का दुरुपयोग? क्या यह ठीक नहीं, कि पहले उसे अग्नि दीक्षा में कस कर देख लिया जाये? पीछे पंचाग्नि साधना में प्रवेश दिया जाये?

क्रौष्टक का अन्तिम निर्णय यही रहा। दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही शिष्य सौभरि को उन्होंने अपने समीप बुलाया और बड़े स्नेह के साथ कहा-वत्स आश्रम जीवन की कठोरता के कारण तुम थक गए होंगे। आओ मैं तुम्हारे पैरों में एक अभिमंत्रित लेप करता हूँ। उससे तुम जहाँ भी पहुँचने की इच्छा करोगे, वायुवेग से वहीं जा पहुँचोगे और जब तक चाहोगे वहाँ पर विचरण करते रह सकोगे। इससे तुम्हारा श्रम, तुम्हारी उद्विग्नता दूर हो जाएगी।

गुरुदेव के वचन और इस अप्रत्याशित परिस्थिति पर ऋषि सौभरि को आश्चर्य अवश्य हुआ किन्तु देश-भ्रमण की लालसा वेगवती हो उठी, सो उसने गुरुदेव की योजना का कोई विरोध नहीं किया।

क्रौष्टक ने मुनि सौभरि के पाँवों में अभिमन्त्रित औषधि का लेप कर दिया। अब मुझे महेन्द्र पर्वत(हिमालय) चलना चाहिए-ऐसी इच्छा करते ही ऋषि सौभरि क्षण भर में उत्तर दिशा की ओर उड़ चले। उस रमणीय हिम और पुष्प लताओं से आच्छादित सुरम्य शिखरावली तक पहुँचने में उन्हें कुछ ही क्षण लगे। यहाँ की वन श्री, वन सौरभ स्वर्ग से भी बढ़कर अतुलित सौंदर्य वाले देखकर सौभरि का मन बड़ा प्रसन्न हुआ। वे भूमि पर उतरकर बहुत देर तक वहाँ विचरण करते रहे।

सुख की अभीप्सा है ही कुछ ऐसी कि व्यक्ति के विवेक, चातुर्य और जागरूकता को थोड़ी ही देर में नष्ट कर डालती है। ध्यान रहा नहीं। सौभरि के पैर शीतल तुषार में चलते रहे और धीरे-धीरे पैर में लगा सारा अनुलेप खुल गया। जब उनके मन में वापस लौटने की इच्छा हुई, तब पता चला कि वहाँ से वापस लौटा ले चलने वाली शक्ति तो नष्ट हो चुकी। सौभरि बड़े दुखी हुए और पश्चाताप करने लगे। आज पहली बार उन्हें किसी सिद्धि के प्रति घृणा और मानवीय पुरुषार्थ के प्रति विराट् आस्था का बोध हुआ। उन्होंने अनुभव किया-यह सामर्थ्य आत्म पराक्रम में ही है, जो व्यक्ति को चरम सीमा तक पहुँचाकर वहाँ से उद्धार भी कर सकती है।”

ब्रह्मऋषि सौभरि अभी इसी तरह के विचारों में खोए ही थे कि उन्हें उस पर्वतीय उपत्यिका में शनैः शनैः समीप आती हुई सी पायलों की मधुर झंकार सुनायी दी। सौभरि सोचने लगे-यहाँ और कौन हो सकता है? तभी तिलोत्तमा के समान अप्रतिम सौंदर्य वाली मौलेया अप्सरा वरुथिनी आ उपस्थित हुई। ऋषि सौभरि को उसने दूर से ही देख लिया था। वह सौभरि की सुगठित देह यष्टि और उनके दीप्तिमान सौंदर्य के प्रति आसक्त हो उठी थी। सौभरि को आकर्षित कर प्रणय जाल में बाँध लेने की इच्छा से वह जितना श्रृंगार कर सकती थी, किया था। स्वर्ण थाल में लाए वस्त्राभूषण, सुगन्धित अनुलेप और मधुर भोज्य प्रस्तुत करते हुए वरुथिनी ने एक लुभावनी दृष्टि सौभरि पर डाली और बोली-महाभाग मैंने पूर्व जन्म में कोई श्रेष्ठ पुण्य किया है, तभी आप जैसे प्रतापी सिंह पुरुष को पाने का सौभाग्य मिला है।”

“ओह भद्रे!” बहुत देर बाद ब्रह्मऋषि सौभरि का कण्ठ फूटा-मैं तुम्हारी क्या सेवा कर सकता हूँ? तुम्हें किसी ने बंदी बनाया हो तो शीघ्र बताओ, मैं अभी उसे परास्त कर तुम्हें मुक्त कर सकता हूँ। तुम पर किसी ने ओछी दृष्टि डाली हो तो बताओ। आर्ये, तुम निश्चित जानो, मैं उसका मान मर्दन करने में किंचित् भी डरुँगा नहीं।”

यह सब होता तो वरुथिनी कहती भी। वह तो उस योग माया की तरह आयी थी जो संसार को क्षणिक सुख आकर्षण में बाँधकर, पारलौकिक सुख, संयम, शक्ति और जीवन से विच्युत किया करता है। एक क्षीण किन्तु मर्माहत कामुक दृष्टि से निक्षेप करते हुए वरुथिनी ने कहा-देव पुरुष! आपको पाकर मुझे अब एक ही वस्तु प्राप्त करने की इच्छा रह गई है। आप जानते ही होंगे, स्त्री पत्नी बनने के बाद एक मात्र मातृत्व की इच्छा रखती है। सो मैं भी उसी लालसा से आपकी सेवा में प्रस्तुत हुई हूँ। महान् पुरुष किसी की इच्छा ठुकराते नहीं हैं।” यह कहती हुई वरुथिनी महर्षि सौभरि के बिलकुल समीप तक जा पहुँची।

सौभरि मुनि हतप्रभ रह गए। एक ओर मोहक रूप जाल था− दूसरी तरफ अध्यात्म का प्रकाशमान राज मार्ग। एक की दिशा सर्वस्व नाश की ओर थी, दूसरा अनन्तता की प्राप्ति का आश्वासन देता था। वह सोचने लगे, वासना जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकती। अगले पल उनका मन दृढ़ हो गया। उनके आध्यात्मिक संस्कार बड़े बलवान थे, वरुथिनी का आकर्षण जाल उन्हें बाँध नहीं पाया। उन्होंने कहा-भद्रे “मैंने जिस क्षण तुम्हें देखा, उसी समय मुझे अपनी कनिष्ठ सहोदरा का ध्यान आया था। तुम मेरी बहिन के समान हो। मैं तुम्हारे साथ समागम कैसे कर सकता हूँ?

नीति-मर्यादा का परिपालन ही सदाचार है। जहाँ सदाचार होता है, वहाँ सुव्यवस्था कायम रहती है ओर उन्नति-प्रगति भी होती रहती है। इसका लोप ही अव्यवस्था का कारण बनता है और पतन का निमित्त भी।

सदाचार में ऋजुता, सरलता और साधुता का समावेश है। इन्हीं से ऐसे लोग प्रशंसा पाते एवं महान् बनते हैं, किन्तु कठोर और क्रूर प्रकृति के कारण कदाचारी सर्वत्र अपयश और अपमान के भागी बनते हैं। नीतिवानों का जीवन यज्ञमय होता है। यज्ञ परमार्थ का पर्याय है। इसीलिए यज्ञीय जीवन को दिव्य जीवन कहा गया है। जहाँ यज्ञीय भाव है, वहाँ प्रकारान्तर से सदाचरण की ही उपस्थिति समझना चाहिए। सदाचार युक्त नैतिक जीवन की पराकाष्ठा यज्ञ में हुई है। इसी से सत्कर्म पैदा होते, उसी में स्थिर रहते और उसी में उनकी पूर्णता है।

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'गणेश जी के मूषक को वाहन बनाने की सुनाई कथा'

 प्राचीन समय में सुमेरू अथवा महामेरू पर्वत पर सौभरि ऋषि का अत्यंत मनोरम आश्रम था। उनकी अत्यंत रूपवती और पतिव्रता पत्नी का नाम मनोमयी था। एक दिन ऋषि लकड़ी लेने के लिए वन में गए और मनोमयी गृह-कार्य में लग गई।

उसी समय एक दुष्ट कौंच नामक गंधर्व वहां आया और उसने अनुपम लावण्यवती मनोमयी को देखा तो व्याकुल हो गया। अपनी व्याकुलता में कौंच ने ऋषि-पत्नी का हाथ पकड़ लिया। रोती और कांपती हुई ऋषि पत्नी उससे दया की भीख मांगने लगी। उसी समय महर्षि सौभरि आ गए। उन्होंने कौंच को श्राप देते हुए कहा 'तूने चोर की तरह मेरी पत्नी का हाथ पकड़ा है, इस कारण तू मूषक होकर धरती के नीचे और चोरी करके अपना पेट भरेगा।' कांपते हुए गंधर्व ने मुनि से प्रार्थना की -'दयालु मुनि, अविवेक के कारण मैंने आपकी पत्नी के हाथ का स्पर्श किया था, मुझे क्षमा करें। ऋषि सौभरि ने कहा मेरा श्राप व्यर्थ नहीं होगा।'

उन्होंने गंधर्व को श्राप देते हुए कहा 'तूने चोर की तरह मेरी सहधर्मिणी का हाथ पकड़ा है, इस कारण तू मूषक होकर धरती के नीचे और चोरी करके अपना पेट भरेगा।काँपते हुए गंधर्व ने मुनि से प्रार्थना की-'दयालु मुनि, अविवेक के कारण मैंने आपकी पत्नी के हाथ का स्पर्श किया था। मुझे क्षमा कर दें। ब्रह्मऋषि सौभरि ने कहा मेरा श्राप व्यर्थ नहीं होगा, तथापि द्वापर में महर्षि पराशर के यहाँ गणपति देव गजमुख पुत्र रूप में प्रकट होंगे (हर युग में गणेशजी ने अलग-अलग अवतार लिए) तब तू उनका डिंक नामक वाहन बन जाएगा, जिससे देवगण भी तुम्हारा सम्मान करने लगेंगे। सारे विश्व तब तुझें श्रीडिंकजी कहकर वंदन करेंगे।


इसी संदर्भ में...

एक बार की बात है कि गजमुखासुर नाम का एक दैत्य हुआ करता। अपने बल से उसने देवताओं की नाक में दम कर दिया। वह हर समय उन्हें परेशान करता रहता। उसे यह वरदान प्राप्त था कि वह किसी शस्त्र से पराजित नहीं हो सकता ना ही उसकी शस्त्र के प्रहार से मृत्यु हो सकती है। देवताओं को उसे हराने की कोई युक्ति नहीं सूझी तो उन्होंनें भगवान गणेश की शरण ली। गजमुखासुर से मुक्ति दिलाने के लिये भगवान गणेश ने उससे युद्ध किया। अब शस्त्र से वह हार नहीं सकता था तो भगवान गणेश ने अपने एक दांत को तोड़कर उससे उस पर प्रहार करना चाहा। अब गजमुखासुर को अपनी मृत्यु दिखाई देने लगी। वह चूहा बनकर भागने लगा लेकिन भगवान गणेश ने उसे मूषक रूप में ही अपना वाहन बना लिया।

इस के अतिरिक्त एक कथा और मिलती है जिसके अनुसार एक बहुत ही बलशाली मूषक ने ऋषि पराशर के आश्रम में भयंकर उत्पात मचा रखा था। उसने ऋषि के अन्न भंडार को नष्ट कर दिया, मिट्टी के पात्रों (बर्तनों) को तबाह कर दिया। यहां तक कि सभी वस्त्र, ग्रंथ आदि भी उसने कुतर डाले। महर्षि ने भगवान गणेश से प्रार्थना की, तब भगवान गणेश ने अपना पाश फेंका जो पाताल से मूषक घसीटा हुआ भगवान गणेश के सामने ले आया। अब मूषक भगवान गणेश की आराधना करते हुए उनसे अपने प्राणों की भीख मांगने लगा। भगवान गणेश ने कहा तुमने ऋषि को बहुत परेशान किया है इसकी सजा तुम्हें मिलनी चाहिये लेकिन चूंकि तुम मेरी शरण में हो इसलिये तुम्हारी रक्षा भी मैं करूंगा मांगो क्या मांगते हो। इससे मूषक का अंहकार फिर से जाग गया और बोला मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिये बल्कि आप मुझसे कुछ भी मांग सकते हो। भगवान गणेश उसका अंहकार देखकर थोड़ा हंसे और बोले चलो ठीक है फिर तुम मेरे वाहन बन जाओ। मूषक ने तथास्तु कह दिया फिर क्या था अपनी विशालकाय देह के साथ भगवान गणेश उस पर बैठ गये। मूषक उनके भार को सह न सका उसे अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ और श्री गणेश से प्रार्थना की कि वे उसकी क्षमता के अनुसार ही अपने शरीर का भार बना लें तब उसके अंहकार को चूर होता देख भगवान गणेश ने उसके अनुसार ही अपना वजन कम किया।

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एक बार मछुआरों ने मछली पकड़ने के लिए जाल डाला तो मछलियों के साथ सौभरि ऋषि भी जाल में फंसकर खिंच आये । भार अधिक लगने के कारण मछुआरों  ने सोचा कि कोई बड़ी मछली जल में फंस गई है । जाल को जल से बाहर खींचा तो उन्हें पता चल कि ये तो सौभरि ऋषि है ।

मछुआरे डरकर घबराने लगे । ऋषि ने कहा – भैय्या ! जब हम तुम्हारे जाल में आ ही गए है तो तुम बेच दो हमे । मछुआरे सोच में पड़ गए  और राजा के पास आकर सारी बात बताई । बात अब उनके मूल्य कि थी कि उनका मूल्य कैसे आँका जाये ? सभी दुविधा में पड़ गए । ऋषि द्वारा बताने पर निश्चय हुआ कि गाय के रोम – रोम में अनगिनत देवताओ का वास है , अतः राजा ने ऋषि के बदले में गाय देकर ऋषि को मुक्त करा दिया ।


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एक समय की बात है…

सम्राट मान्धातृ अथवा मांधाता, इक्ष्वाकुवंशीय नरेश युवनाश्व और गौरी पुत्र अयोध्या में राज्य किया करते थे | च्यवन ऋषि द्वारा संतानोंत्पति के लिए  मंत्र-पूत जल का कलश पी गए थे | च्यवन ऋषि ने राजा से कहा कि अब आपकी कोख से बालक जन्म लेगा। सौ वर्षो के बाद अश्विनीकुमारों ने राजा की बायीं कोख फाड़कर बालक को निकाला। अब बालक को पालना, एक बड़ी समस्या थी, तो तभी इन्द्रदेव ने अपनी तर्जनी अंगुली उसे चुसाते हुए कहा- माम् अयं धाता (यह मुझे ही पीयेगा)। इसी से बालक का नाम मांधाता पड़ा। 

वह सौ राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञों के कर्ता और दानवीर, धर्मात्मा चक्रवर्ती सम्राट् थे | मान्धाता ने शशबिंदु की पुत्री बिन्दुमती से विवाह किया |उनके मुचकुंद, अंबरीष और पुरुकुत्स नामक तीन पुत्र और 50 कन्याएँ उत्पन्न हुई थीं। इधरअयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट राजा मान्धाता वर्षा न होने के कारण राज्य में अकाल पडने से बहुत दुखी थे। अपनी सहधर्मिणी से प्रजा के कष्टों की चर्चा कर ही रहे थे; कि घूमते-घूमते नारद जी सम्राट मान्धाताके राजमहल में पधारे। सम्राट ने अपनी व्यथा नारद जी को निवेदित कर दी। नारद जी ने अयोध्या नरेश को परामर्श दिया कि वे शास्त्रों के मर्मज्ञ, यशस्वी एवं त्रिकालदर्शी महर्षि सौभरि से यज्ञ करायें। निश्चय ही आपके राज्य एवं प्रजा का कल्याण होगा। राजा मान्धातानारद जी के परामर्श अंतर्गत ब्रह्मर्षि सौभरिके यमुना हृदस्थित आश्रम में पहुंचे तथा अपनी व्यथा कथा अर्पित की। महर्षि ने ससम्मान अयोध्यापति को आतिथ्य दिया और प्रात:काल जनकल्याणकारी यज्ञ कराने हेतु अयोध्यापति के साथ अयोध्या पहुंच जाते हैं।यज्ञ एक माह तक अनवरत रूप से अपना आनंद प्रस्फुटित करता है और वर्षा प्रारम्भ हो जाती है। सम्राट दम्पति ब्रह्मर्षि को अत्यधिक सम्मान सहित उनके आश्रम तक पहुंचाने आये।


साभार:-

ओमन सौभरि भुर्रक, भरनाकलां, मथुरा


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