A- योगी:- शिव-संहिता पाठ योगी को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है जो जानता है कि संपूर्ण ब्रह्मांड अपने शरीर के भीतर स्थित है, और योग-शिखा-उपनिषद दो प्रकार के योगियों का वर्णन करता है: पहले वो जो विभिन्न योग तकनीकों के माध्यम से सूर्य (सूर्या) में प्रवेश करते हैं और दूसरे वो जो योग के माध्यम से केंद्रीय नलिका (सुषुम्ना-नाड़ी) तक पहुंचते हैं ।
जैसे- आदि शंकराचार्य, योगी रामदेव बाबा ।
B- साधु:- संस्कृत में साधु शब्द से तात्पर्य है सज्जन व्यक्ति। लघुसिद्धांत कौमुदी में साधु का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि "साध्नोति परकार्यमिति साधु : अर्थात जो दूसरे का कार्य करे वह साधु है। किसी विषय की साधना करने वाले व्यक्ति को साधु कहा जाता है। प्राचीन काल में कई व्यक्ति समाज से हट कर या कई बार समाज में ही रहकर किसी विषय की साधना करते थे और उस विषय में विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते थे। विषय को साधने या उसकी साधना करने के कारण ही उन्हें साधु कहा गया।
C- मुनि:- मुनि भी एक तरह के ऋषि ही होते थे किन्तु उनमें राग द्वेष का आभाव होता था। भगवत गीता में मुनियों के बारे में कहा गया है जिनका चित्त दुःख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निस्चल बुद्धि वाले संत मुनि कहलाते हैं। मुनि शब्द मौनी यानि शांत या न बोलने वाले । मुनि ऋषि परंपरा से सम्बन्ध रखते हैं किन्तु वे मन्त्रों का मनन करने वाले और अपने चिंतन से ज्ञान के व्यापक भंडार की उत्पति करने वाले होते हैं। मुनि के दो अर्थ हैं, पहला वह जो मनन करता है अर्थात् बौद्धिक ‘‘ इन्टलेक्चुअल’ और दूसरा वह जिसने अपने मन को परमपुरुष में मिला लिया है।
D- संन्यासी:- वह है जो त्याग करता है। त्यागी ही संन्यासी है। संन्यासी बिना किसी संपत्ति के एक अविवाहित जीवन जीता है तथा योग ध्यान का अभ्यास करता है या अन्य परंपराओं में, अपने चुने हुए देवता या भगवान के लिए प्रार्थनाओं के साथ भक्ति, या भक्ति ध्यान करता है। हिन्दू धर्म में संन्यासियों को तीन भागों में बांटा गया है:-
जैसे- स्वामी विवेकानंद
1. परिव्राजक:- वह संन्यासी जो सदा भ्रमण करता रहे जैसे शंकराचार्य, रामानुजाचार्य।
2. परमहंस:- यह संन्यासी की उच्चतम श्रेणी है। इसके अंतर्गत आते हैं।
3. यती:- यह शब्द संस्कृत से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘वह जो उद्देश्य की सहजता के साथ प्रयास करता है’। इसका उदाहरण, लक्ष्मण यती हैं।
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ऋषि भारतीय परंपरा में श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने (यानि यथावत समझ पाने) वाले जनों को कहा जाता है। वे व्यक्ति विशिष्ट जिन्होंने अपनी विलक्षण एकाग्रता के बल पर गहन ध्यान में विलक्षण शब्दों के दर्शन किये उनके गूढ़ अर्थों को जाना व मानव अथवा प्राणी मात्र के कल्याण के लिये ध्यान में देखे गए शब्दों को लिखकर प्रकट किया। इसीलिये कहा गया - ऋषि:तु मन्त्र द्रष्टारः न तु कर्तारः अर्थात् ऋषि तो मंत्र के देखनेवाले हैं ना कि बनानेवाले। ऋग्वैदिक काल से ही उन्नत चेतना के लोगों को ऋषि कहा जाता रहा है।
वैदिक युग से ही ऋषियों के चार प्रकार माने गए हैं, महर्षि, देवर्षि, राजर्षि और ब्रह्मर्षि। हम सभी मनुष्यो में तीन प्रकार के चक्षु होते है वह है ज्ञान चक्षु, दिव्य चक्षु और परम चक्षु । जिसका ज्ञान ज्ञान जाग्रत होता है उसे ऋषि कहते है, जिसका दिव्य चक्षु जाग्रत होता है उसे महर्षि कहते है एवं जिसका परम चक्षु भी जाग्रत हो जाता है उसे ब्रह्मर्षि कहते है । भारतीय धर्म ग्रंथों में ऋषि, राजर्षि, महर्षि, देवर्षि और ब्रह्मर्षि जैसे विशेष शब्दों का बहुत उपयोग हुआ है। इसलिए इन विशेष शब्दों या उपाधि की पृष्ठभूमि को समझना होगा।
ऋषित्येव गतौ धातु: श्रुतौ सत्ये तपस्यथ्।
एतत् संनियतस्तस्मिन् ब्रह्ममणा स ऋषि स्मृत:॥
अर्थ- श्लोक के अनुसार ‘ऋषि’ धातु के चार अर्थ होते हैं- गति, श्रुति, सत्य तथा तपस। ब्रह्माजी द्वारा जिस व्यक्ति में ये चारों वस्तुएँ नियत कर दी जाएं, वही ‘ऋषि’ होता है। रत्नकोष में भी कहा गया है-
सप्त ब्रह्मर्षि-देवर्षि-महर्षि-परमर्षय:।
काण्डर्षिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावरा:।।
अर्थात:-ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि, राजर्षि ये सातों क्रम से अवर हैं। यथा – व्यास (महर्षि), भेल (परमर्षि), कण्व (देवर्षि), वसिष्ठ (ब्रह्मर्षि), सुश्रुत (श्रुतर्षि), ऋतुपर्ण (राजर्षि), जैमिनि (काण्डर्षि)।
1- महर्षि:- वे व्यक्ति जो अपने साॅसारिक रूपसे आवश्यक कर्म करते हुए दर्शन के दोनों पक्षों ‘आरण्यक और उपनिषद’ के अनुसार उच्चतर स्तर को पाने के लिए ध्यान, चिन्तन और साधना करते हुए आध्यात्म पथ पर पूर्णता प्राप्त कर सामज सेवा में जुट जाते हैं, उन्हें ‘‘महर्षि’’ कहा जाता है।
जैसे- महर्षि वाल्मीकि
2- राजर्षि:- वे व्यक्ति जो सामाजिक उत्तरदायित्व (जैसे राजसिक कार्य) निर्वहन करते हुए अपने हृदय की पुकार पर आध्यात्मिक चेतना के साथ अपने को संतृप्त कर चुकते हैं उन्हें राजर्षि कहा जाता है जैसे राजर्षि जनक।
3- देवर्षि:- वे व्यक्ति जिन्होंने उत्तम देवकुल में जन्म लेकर अपने को आध्यात्मिक साधना के द्वारा उन्नत चेतना में स्थापित कर लिया है वे देवर्षि कहलाते हैं ।
जैसे- देवर्षि नारद।
4- ब्रह्मर्षि:- वह ऋषि जिसे ब्रह्म या तत्व का ज्ञान हो गया हो । ब्रह्मर्षि में “ब्रह्म” शब्द जुड़ा है अर्थात जिसने स्वयं ब्रह्म अवस्था को प्राप्त कर लिया है ।
जैसे- अंगिरा, सौभरि आदि ।
साभार:-ओमन सौभरि भुर्रक, भरनाकलां, मथुरा
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