Monday, 16 August 2021

अंगिरा ऋषि से उत्पन्न अंगिरस गोत्र के बारे में जानिए ।

 अंगिरस गोत्र (अंगिरा वंशज) :- अंगिरा की पत्नी दक्ष प्रजापति की पुत्री स्मृति (मतांतर से श्रद्धा) थीं। अंगिरा के प्रमुख पुत्र जो कि इस प्रकार से हैं- महर्षि घोर उतथ्य, संवर्त और बृहस्पतिऋग्वेद में उनका वंशधरों का उल्लेख मिलता है। इनके अतिरिक्त और भी पुत्रों का उल्लेख मिलता है- हविष्यत्‌, उतथ्य, बृहत्कीर्ति, बृहज्ज्योति, बृहद्ब्रह्मन्‌ बृहत्मंत्र; बृहद्भास और मार्कंडेय। भानुमती, रागा (राका), सिनी वाली, अर्चिष्मती (हविष्मती), महिष्मती, महामती तथा एकानेका (कुहू) इनकी 7 कन्याओं के भी उल्लेख मिलते हैं। अंगिरा जी ने ऋषि मरीचि की बेटी सुरूपा व कर्दम ऋषि की बेटी स्वराट् और मनु ऋषि कन्या पथ्या से भी विवाह किया था । सुरूपा के गर्भ से बृहस्पति, स्वराट् से गौतम, प्रबंध, वामदेव, उतथ्य और उशिर ये 5 पुत्र जन्मे। पथ्या के गर्भ से विष्णु, संवर्त, विचित, अयास्य, असिज, दीर्घतमा, सुधन्वा ये 7 पुत्र जन्मे। 
 
 महाभारत के आदिपर्व के अनुसार बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र तथा देवताओं के पुरोहित हैं। देवगुरु बृहस्पति की एक पत्नी का नाम शुभा और दूसरी का तारा है। उनकी तीसरी पत्नी ममता से भारद्वाज और कच नामक 2 पुत्र उत्पन्न हुए। प्रथम पुत्र कच 
 जिन्होंने शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सीखी और दूसरे पुत्र ऋषि भारद्वाज जिनके प्रमुख पुत्रों के नाम इस प्रकार से हैं- ऋजिष्वा, गर्ग, नर, पायु, वसु, शास, शिराम्बिठ, शुनहोत्र, सप्रथ और सुहोत्र। उनकी 2 पुत्रियां थीं रात्रि और कशिपा। 
 
घोर आंगिरस:- इसी अंगिरस गोत्र में घोर नाम के ऋषि पैदा हुए जिन्हें घोर आंगिरस कहा जाता है और जो भगवान श्री कृष्ण के विद्याधर गुरु भी कहे जाते हैं।

 आंगिरस ऋषियों के द्वारा स्थापित किए गए इस वंश की जानकारी ऋग्वेद, ब्रह्मांड, वायु एवं मत्स्य पुराण, भागवत पुराण, स्कंद पुराण, विष्णु पुराण, गर्ग संहिता इत्यादि में मिलती है। इनके पुत्र महर्षि काण्व जी जो कि एक ऋग्वैदिक ऋषि थे, इनके ऋग्वेद में बहुत मंत्र हैं जिनसे एक पुत्र हुआ। उनका नाम ब्रह्मर्षि सौभरि जी था इन्होंने यमुना नदी के जल में 60 हजार वर्ष तक तपस्या की । इसके बाद इक्ष्वाकु वंश के राजा मान्धाता की 50 पुत्रियों से इनका विवाह हुआ । ब्रह्मर्षि सौभरि ब्रज के अहिवास क्षेत्र (सुनरख, वृन्दावन) में रहते थे । इनके वंशज आदिगौड़ अहिवासी ब्राह्मण (आदिगौड़ सौभरेय ब्राह्मण) कहलाते हैं । महर्षि सौभरि जी के 50 पत्नियों से 5000 पुत्र उत्पन्न हुए जिनमें कुशक नाम के ऋषि हुये जिनका विवाह भारद्वाज ऋषि की बेटी रात्रि से हुआ था । इनके 50 पत्नियों से उत्पन्न संतानों के 50 अलग-अलग कुल हैं । इनके वंशज उत्तरप्रदेश के जिला मथुरा, अगर, हाथरस, अलीगढ़, सीतापुर, मध्यप्रदेश के जिला, भिंड मुरैना, ग्वालियर, जबलपुर इत्यादि व राजस्थान के भरतपुर, अलवर जिले में पाए जाते हैं ।
प्रसिद्ध महापुरुष:- श्री कल्याण देवाचार्य, प्रोफेसर माधवाचार्य पांडा जी, संत शिरोमणि प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी, सती हरदेवी जी, प्रसिद्द चित्रकार जगन्नाथ मुरलीधर अहिवासी जी ।

साभार-  ओमन सौभरि भुरर्क, भरनाकलां, मथुरा

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सौभरि ब्राह्मणों से सम्बंधित प्रश्न


 

Sunday, 15 August 2021

अंगिरस गोत्री सौभरि ब्राह्मणों (आदिगौड़ अहिवासी ब्राह्मणों) का संक्षिप्त परिचय

अंगिरस गोत्री सौभरि ब्राह्मणों (आदिगौड़ अहिवासी ब्राह्मणों) का संक्षिप्त परिचय:-


वंश:- ब्राह्मण
गोत्र:- अंगिरस 
प्रवर:- अंगिरा, घोरऋषि, महर्षि काण्व, ब्रह्मर्षि सौभरि
जाति:- आदिगौड़ अहिवासी ब्राह्मण
कुलदेवी:- कात्यायनी, यमुना
देवता:- ब्रह्मा जी
इष्टदेव:- श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता व शेषअवतार श्री बलदेव जी
वेद:- ऋग्वेद
शाखा:
पत्रिका:- 
प्रसिद्ध महापुरुष:- श्री कल्याण देवाचार्य, प्रोफेसर माधवाचार्य पांडा जी, संत शिरोमणि प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी, सती हरदेवी जी, प्रसिद्द चित्रकार जगन्नाथ मुरलीधर अहिवासी जी ।
सूत्र:
अंगिरस गोत्रियों का महामंत्र:--
प्राचीन निवास क्षेत्र:- अहिवास क्षेत्र, सुनरख, वृन्दावन
उपगोत्र:- 50
कुल स्वजाति जनसँख्या:- 3 लाख (लगभग)
सबसे बड़ा गांव:- खायरा
सबसे बड़ा नगर:- दाऊजी (बल्देव नगर)
भाषा:- ब्रज (मूलभाषा ), संस्कृत, हिंदी, बुंदेली, अवधी, इंग्लिश
किन प्रदेशों में स्वसमाज के गांव पड़ते हैं:- उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि ।
सामाजिक धर्मशाला:- गोवर्धन कुञ्ज
ब्रज के १२ वनों के अंतर्गत आने वाला वन:- भद्रवन (भदावल गॉंव), खदिरवन (खायरा गॉंव) 
दाऊजी मंदिर के संस्थापक:- गोस्वामी कल्याणदेव जी
भगवती चरित के रचयिता (ब्रजभाषा):- प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी: 
सतीत्व:- सती हरदेवी जी 
प्रोफ़ेसर व समाजसेवक:- माधवाचार्य जी  
ब्रह्मर्षि सौभरि जी की तपस्थली:- सुनरख {वृन्दावन } 
स्वसमाज की संसद:- गोवर्धन कुन्ज 
सम्पूर्ण भारत में गाँवों की संख्या:- 162 से ज्यादा 
अखिल भारत में गांवों की दृष्टि से सामजिक फैलाव जिलेवार:- 25 से ज्यादा
उत्तरप्रदेश में गाँवों संख्या:- 12 गाँव (यमुना आर, मथुरा), 12 गांव(यमुना पार, अलीगढ़, हाथरस, आगरा), दाऊजी, 12 (गंगा पार, बरेली जिला), 12 गॉंव (सीतापुर जिला)
राजस्थान में गाँवों की संख्या:- 28 गॉंव (भरतपुर, अलवर जिला)
मध्यप्रदेश में गाँवों की संख्या:-  70 से ज्यादा
महाराष्ट्र में गाँवों की संख्या:-
सबसे बड़ा राष्ट्रीय संगठन:- अखिल भारतीय सौभरेय ब्राह्मण संगठन: ( स्वजनों को जागरूक कराने में क्रांतिकारी योगदान)
विरासत स्थल:- दाऊजी मंदिर (बलदेव ), सेवा कुन्ज वृन्दावन, सती हरदेवी मंदिर पलसौं(परशुराम खेरा ), प्रभुदत्त ब्रह्मचारी आश्रम झूसी (इलाहबाद ), राधाबल्लभ कुन्ज गोवर्धन, सूर्यकुण्ड भरनाखुर्द, खदिरवन खायरा गॉंव, दाउजीबगीची शोध संस्थान वृन्दावन, सौभरि वन वृन्दावन, सौभरि उद्यान गाजियाबाद, बद्रिकाश्रम उत्तराखंड ।
राजधानी (पंडौं की नगरी):- बलदेव नगरी
उपाधि:- अहिवासी ब्राह्मण
देवालय:- श्री दाऊजी मन्दिर
प्रमुख त्योहार:- होली का हुरंगा
सबसे बड़ा गांव:- खायरा
भाषा- ब्रज (मूलभाषा ), संस्कृत, हिंदी, बुंदेली, अवधी, इंग्लिश
किन प्रदेशों में स्वसमाज के गांव पड़ते हैं:- उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान
स्वसमाज का मूलनिवास स्थान:- सुनरख, वृन्दावन
 स्वसमाज का विस्तार:- 25  जिलों से ज्यादा
दाऊजी मंदिर के संस्थापक:-  गोस्वामी कल्याणदेव जी
प्रथम आईएएस:- श्री राजेश पांडे
प्रथम MLA:- श्री किशोरी श्याम शर्मा
उपगोत्र के नाम से गाँव का नाम:- सीह गांव (उपगोत्र-सीहइयाँ)
प्रथम ब्लॉकप्रमुख:-
प्रथम जिला पंचायत सदस्य:-
स्वसमाज की टोटल वर्थ:- 50000 करोड़ से ज्यादा ।


साभार-  ओमन सौभरि भुरर्क, भरनाकलां, मथुरा

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Saturday, 14 August 2021

ब्राह्मण समाज का क्षेत्र व गोत्रों के हिसाब से वर्गीकरण

              अखिल भारतीय ब्राह्मण समाज

ब्राह्मण समुदाय को कल्हण (12 वीं सदी) की राजतरंगिणी  के अनुसार पंचगौड़ ब्राह्मण और पंच-द्रविड़ ब्राह्मणों के पारंपरिक रूप में दो क्षेत्रीय समूहों में विभाजित किया गया हैं:-

कर्णाटकाश्च तैलंगा द्राविडा महाराष्ट्रकाः।
गुर्जराश्चेति पञ्चैव द्राविडा विन्ध्यदक्षिणे।
सारस्वताः कान्यकुब्जा गौडा उत्कलमैथिलाः।
पन्चगौडा इति ख्याता विन्ध्स्योत्तरवासिनः।
कर्णाटकाश्च तैलंगा द्राविडा महाराष्ट्रकाः।
गुर्जराश्चेति पञ्चैव द्राविडा विन्ध्यदक्षिणे।
सारस्वताः कान्यकुब्जा गौडा उत्कलमैथिलाः।
पन्चगौडा इति ख्याता विन्ध्स्योत्तरवासिनः।

उत्तर भारत के पंचगौड़  ब्राह्मणों में पाँच ब्राह्मणों को सम्मिलित किया जाता है। 'पंचगौड़' विभाग स्कंदपुराण के 'सह्याद्रि खंड' में भी मिलता है और किसी भी प्राचीन ग्रंथ में इसका उल्लेख नहीं है। इन ब्राह्मणों में जो शामिल किये जाते हैं, वे हैं- 
 
1- गौड़ ब्राह्मण:- पंच गौड़ ब्राह्मणों में एक वर्ग ”गौड़” के नाम से जाना गया है। इतिहास में उल्लेखित सन्दर्भों के अनुसार ’गौड़ ब्राह्मण’ मूल रूप से पश्चिम बंगाल के "गौड़ प्रदेश" के मूल निवासी हैं जो कालान्तर में मध्य और उत्तर भारत के राज्यों में आकर बस गये। समस्त उत्तर भारतीय ब्राह्मण संयुक्त रुप से गौड़ कहलाते थे। परंतु लंका विजय के बाद, इन ब्राह्मणों में वर्ग या समूह स्थापित होने प्रारंभ हो गए। परंतु वर्गीकरण से पूर्व प्रभु परशुराम ने जिन ब्राह्मणों को शासन दिया सभी गौड़ वंश के भाग रहे हैं । गौड़ ब्राह्मण, आदि गौड़, श्री आदि गौड़ एक ही वंश है, आदिगौड़ (सृष्टि के प्रारंभ से गौड़ या आदि काल से ) । गौड़ ब्राह्मणों की प्रमुखतः निम्न शाखाएं मानी गई है:- 

(अ) आदिगौड़ ब्राह्मण - मूलतः पश्चिमी उत्तरप्रदेश, हरियाणा और दिल्ली में रहने वाले दो तिहाई ब्राह्मण आदिगौड़ ब्राह्मण हैं। आदिगौड़ ब्राह्मण मूलतः वैष्णव सम्प्रदाय को मानने वाले हैं तथा सभी हिन्दू देवी देवताओं की समान रूप से आराधना करते हैं। प्राचीन काल में गेहूँ, सरसों, ज्वार, मक्का, गन्ने आदि की खेती करके जीवन-यापन करते थे। इनमें से कुछ आयुर्वेद की शिक्षा ग्रहण करके लोगों का इलाज करने लगे जो आगे जाकर व्यापार की ओर अग्रसर हुए, वहीं कुछ ने पूजा-पाठ को अपनी आजीविका बनाया और ’पंडित’ या ’पंडा’ कहलाये। दाऊजी (बल्देव नगर) के पंडे आदिगौड़ ब्राह्मण हैं। इनका मूल निवास "अहिवास क्षेत्र (सुनरख, वृन्दावन)" है । 
 
(ब) गौड़ ब्राह्मण - राजस्थान, उत्तर व मध्य भारत में आकर बसे गौड़ ब्राह्मणों ने अन्य विषेशणात्मक शब्द का प्रयोग न करके सिर्फ गौड़ शब्द को ही अपनाया। राजस्थान व पश्चिमी उत्तरप्रदेश के अधिकांश ब्राह्मण ये गौड़ ब्राह्मण हैं । 

(स) गुर्जर गौड़ - इतिहास के मुताबिक गौड़ ब्राह्मणों का एक वर्ग गुर्जरों के धर्म गुरू बने और मूलतः गुजरात और मध्य भारत के भू-भाग में बस गये। इन्होने अपने नाम के साथ गुर्जर शब्द लगा लिया। कालान्तर में ये गुर्जर गौड़ कहलाये।

2- सारस्वत 
3- कान्यकुब्ज
4- मैथिल 
5- उत्कल

1- एक वेद को पढ़ने  वाले ब्रह्मण को पाठक कहा गया। 
2- दो वेद पढ़ने वाले को द्विवेदी कहा गया, जो कालांतर में दुबे हो गया। 
3- तीन वेद को पढ़ने वाले को त्रिवेदी कहा गया जिसे त्रिपाठी भी कहने लगे, जो कालांतर में तिवारी हो गया।
4- चार वेदों को पढ़ने वाले चतुर्वेदी कहलाए, जो कालांतर में चौबे हो गए। 
5- शुक्ल यजुर्वेद को पढ़ने वाले शुक्ल या शुक्ला कहलाए।  
6- चारो वेदों, पुराणों और उपनिषदों के ज्ञाता को पंडित कहा गया, जो आगे चलकर पाण्डेय, पांडे या पंडा, पंडिया हो गए। 
7- शास्त्र धारण करने वाले या शास्त्रार्थ करने वाले शास्त्री की उपाधि से विभूषित हुए।
8- वेद अध्ययन करने वाले उपाध्याय



मनु-स्मॄति” के अनुसार आर्यवर्त वैदिक लोगों की भूमि है। “गोत्र” शब्द का अर्थ संस्कृत भाषा में “वंश” है। ब्राह्मण जाति के लोगों में, गोत्रों को पितृसत्तात्मक रूप से माना जाता है। प्रत्येक गोत्र एक प्रसिद्ध ऋषि या ऋषि का नाम लेता है जो उनके जन्मदाता थे। समाज बनने के बाद अब देखा जाए तो भारत में सबसे ज्यादा विभाजन या वर्गीकरण ब्राह्मणों में ही है। 

इसी प्रकार ब्राह्मणों में सबसे ज्यादा उपनाम (सरनेम या टाईटल ) भी प्रचलित है। ब्राह्मणों की श्रेणियां-

ब्राह्मणों को सम्पूर्ण भारतवर्ष में विभिन्न उपनामों से जाना जाता है, जैसे पूर्वी उत्तर प्रदेश में दीक्षित, शुक्ल, द्विवेदी त्रिवेदी, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल में उप्रेती, दिल्ली, हरियाणा व राजस्थान के कुछ भागों में खाण्डल विप्र, ऋषीश्वर, वशिष्ठ, कौशिक, भारद्वाज, सनाढ्य ब्राह्मण, राय ब्राह्मण, त्यागी , अवध (मध्य उत्तर प्रदेश) तथा मध्यप्रदेश के बुन्देलखंड से निकले जिझौतिया ब्राह्मण,रम पाल, राजस्थान, मध्यप्रदेश व अन्य राज्यों में बैरागी वैष्णव ब्राह्मण, बाजपेयी, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश ,बंगाल व नेपाल में भूमिहार, जम्मू कश्मीर, पंजाब व हरियाणा के कुछ भागों में महियाल, मध्य प्रदेश व राजस्थान में गालव, गुजरात में श्रीखण्ड,भातखण्डे अनाविल, महाराष्ट्र के महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण, मुख्य रूप से देशस्थ, कोंकणस्थ , दैवदन्या, देवरुखे और करहाड़े है. ब्राह्मणमें चितपावन एवं कार्वे, कर्नाटक में निषाद अयंगर एवं हेगडे, केरल में नम्बूदरीपाद, तमिलनाडु में अयंगर एवं अय्यर, आंध्र प्रदेश में नियोगी एवं राव, उड़ीसा में दास एवं मिश्र आदि तथा राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार में शाकद्वीपीय कहीं-कहीं उत्तर प्रदेश में जोशी जाति भी पायी जाती है। 

ब्राह्मण गोत्र और गोत्रकार ऋषियों के नाम:-



 (1). अत्रि, (2). भृगु, 
💐(3). आंगिरस 【अंगिरा-घोर-काण्व-सौभरि( आदिगौड़ अहिवासी ब्राह्मण】💐, 
       Maharishi Ghor and Lord Krishna

(4). मुद्गल, (5). पातंजलि, (6). कौशिक,(7). मरीच, (8). च्यवन, (9). पुलह, (10). आष्टिषेण, (11). उत्पत्ति शाखा, (12). गौतम गोत्र,(13). वशिष्ठ और संतान (13.1). पर वशिष्ठ, (13.2). अपर वशिष्ठ, (13.3). उत्तर वशिष्ठ, (13.4). पूर्व वशिष्ठ, (13.5). दिवा वशिष्ठ, (14). वात्स्यायन, (15). बुधायन, (16). माध्यन्दिनी, (17). अज, (18). वामदेव, (19). शांकृत्य, (20). आप्लवान, (21). सौकालीन,  (22). सोपायन, (23). गर्ग, (24). सोपर्णि, (25). शाखा, (26). मैत्रेय, (27). पराशर, (28). अंगिरा, (29). क्रतु, (30. अधमर्षण, (31). बुधायन, (32). आष्टायन कौशिक, (33). अग्निवेष भारद्वाज, (34). कौण्डिन्य, (34). मित्रवरुण, (36). कपिल, (37). शक्ति, (38). पौलस्त्य, (39). दक्ष, (40). सांख्यायन कौशिक, (41). जमदग्नि, (42). कृष्णात्रेय, (43). भार्गव, (44). हारीत, (45). धनञ्जय, (46). पाराशर, (47). आत्रेय, (48). पुलस्त्य, (49). भारद्वाज, (50). कुत्स, (51). शांडिल्य, (52). भरद्वाज, (53). कौत्स, (54). कर्दम, (55). पाणिनि गोत्र, (56). वत्स, (57). विश्वामित्र, (58). अगस्त्य, (59). कुश, (60). जमदग्नि कौशिक, (61). कुशिक, (62). देवराज गोत्र, (63). धृत कौशिक गोत्र, (64). किंडव गोत्र, (65). कर्ण, (66). जातुकर्ण, (67). काश्यप, (68). गोभिल, (69). कश्यप, (70). सुनक, (71). शाखाएं, (72). कल्पिष, (73). मनु, (74). माण्डब्य, (75). अम्बरीष, (76). उपलभ्य, (77). व्याघ्रपाद, (78). जावाल, (79). धौम्य, (80). यागवल्क्य, (81). और्व, (82). दृढ़, (83). उद्वाह, (84). रोहित, (85). सुपर्ण, (86). गालिब, (87). वशिष्ठ, (88). मार्कण्डेय, (89). अनावृक, (90). आपस्तम्ब, (91). उत्पत्ति शाखा, (92). यास्क, (93). वीतहब्य, (94). वासुकि, (95). दालभ्य, (96). आयास्य, (97). लौंगाक्षि, (98). चित्र, (99). विष्णु, (100). शौनक, (101). पंच शाखा, (102).सावर्णि, (103).कात्यायन, (104).कंचन, (105).अलम्पायन, (106).अव्यय, (107). विल्च, (108). शांकल्य, (109). उद्दालक, (110). जैमिनी, (111). उपमन्यु, (112). उतथ्य, (113). आसुरि, (114). अनूप और (115). आश्वलायन।

Wednesday, 11 August 2021

योगी, संन्यासी, साधु, मुनि, ऋषि, महर्षि, राजर्षि, देवर्षि, ब्रह्मर्षि में क्या अंतर होता है?

A- योगी:- शिव-संहिता पाठ योगी को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है जो जानता है कि संपूर्ण ब्रह्मांड अपने शरीर के भीतर स्थित है, और योग-शिखा-उपनिषद दो प्रकार के योगियों का वर्णन करता है: पहले वो जो विभिन्न योग तकनीकों के माध्यम से सूर्य (सूर्या) में प्रवेश करते हैं और दूसरे वो जो योग के माध्यम से केंद्रीय नलिका (सुषुम्ना-नाड़ी) तक पहुंचते हैं ।

जैसे- आदि शंकराचार्य, योगी रामदेव बाबा ।

B- साधु:- संस्कृत में साधु शब्द से तात्पर्य है सज्जन व्यक्ति। लघुसिद्धांत कौमुदी में साधु का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि "साध्नोति परकार्यमिति साधु : अर्थात जो दूसरे का कार्य करे वह साधु है। किसी विषय की साधना करने वाले व्यक्ति को साधु कहा जाता है। प्राचीन काल में कई व्यक्ति समाज से हट कर या कई बार समाज में ही रहकर किसी विषय की साधना करते थे और उस विषय में विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करते थे। विषय को साधने या उसकी साधना करने के कारण ही उन्हें साधु कहा गया।

C- मुनि:- मुनि भी एक तरह के ऋषि ही होते थे किन्तु उनमें राग द्वेष का आभाव होता था। भगवत गीता में मुनियों के बारे में कहा गया है जिनका चित्त दुःख से उद्विग्न नहीं होता, जो सुख की इच्छा नहीं करते और जो राग, भय और क्रोध से रहित हैं, ऐसे निस्चल बुद्धि वाले संत मुनि कहलाते हैं। मुनि शब्द मौनी यानि शांत या न बोलने वाले । मुनि ऋषि परंपरा से सम्बन्ध रखते हैं किन्तु वे मन्त्रों का मनन करने वाले और अपने चिंतन से ज्ञान के व्यापक भंडार की उत्पति करने वाले होते हैं। मुनि के दो अर्थ हैं, पहला वह जो मनन करता है अर्थात् बौद्धिक ‘‘ इन्टलेक्चुअल’ और दूसरा वह जिसने अपने मन को परमपुरुष में मिला लिया है। 

D- संन्यासी:- वह है जो त्याग करता है। त्यागी ही संन्‍यासी है। संन्यासी बिना किसी संपत्ति के एक अविवाहित जीवन जीता है तथा योग ध्यान का अभ्यास करता है या अन्य परंपराओं में, अपने चुने हुए देवता या भगवान के लिए प्रार्थनाओं के साथ भक्ति, या भक्ति ध्यान करता है। हिन्दू धर्म में संन्‍यासियों को तीन भागों में बांटा गया है:-

जैसेस्वामी विवेकानंद 

1. परिव्राजक:- वह संन्यासी जो सदा भ्रमण करता रहे जैसे शंकराचार्य, रामानुजाचार्य।
2. परमहंस:- यह संन्यासी की उच्चतम श्रेणी है। इसके अंतर्गत आते हैं।
3. यती:- यह शब्द संस्कृत से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘वह जो उद्देश्य की सहजता के साथ प्रयास करता है’। इसका उदाहरण, लक्ष्मण यती हैं।

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ऋषि भारतीय परंपरा में श्रुति ग्रंथों को दर्शन करने (यानि यथावत समझ पाने) वाले जनों को कहा जाता है। वे व्यक्ति विशिष्ट जिन्होंने अपनी विलक्षण एकाग्रता के बल पर गहन ध्यान में विलक्षण शब्दों के दर्शन किये उनके गूढ़ अर्थों को जाना व मानव अथवा प्राणी मात्र के कल्याण के लिये ध्यान में देखे गए शब्दों को लिखकर प्रकट किया। इसीलिये कहा गया - ऋषि:तु मन्त्र द्रष्टारः न तु कर्तारः अर्थात् ऋषि तो मंत्र के देखनेवाले हैं  ना कि बनानेवाले। ऋग्वैदिक काल से ही उन्नत चेतना के लोगों को ऋषि कहा जाता रहा है।

 वैदिक युग से ही ऋषियों के चार प्रकार माने गए हैं, महर्षि, देवर्षि, राजर्षि और ब्रह्मर्षि। हम सभी मनुष्यो में तीन प्रकार के चक्षु होते है वह है ज्ञान चक्षु, दिव्य चक्षु और परम चक्षु । जिसका ज्ञान ज्ञान जाग्रत होता है उसे ऋषि कहते है, जिसका दिव्य चक्षु जाग्रत होता है उसे महर्षि कहते है एवं जिसका परम चक्षु भी जाग्रत हो जाता है उसे ब्रह्मर्षि कहते है । भारतीय धर्म ग्रंथों में ऋषि, राजर्षि, महर्षि, देवर्षि और ब्रह्मर्षि जैसे विशेष शब्दों का बहुत उपयोग हुआ है। इसलिए इन विशेष शब्दों या उपाधि की पृष्ठभूमि को समझना होगा।

ऋषित्येव गतौ धातु: श्रुतौ सत्ये तपस्यथ्।
एतत् संनियतस्तस्मिन् ब्रह्ममणा स ऋषि स्मृत:॥
अर्थ-  श्लोक के अनुसार ‘ऋषि’ धातु के चार अर्थ होते हैं- गति, श्रुति, सत्य तथा तपस। ब्रह्माजी द्वारा जिस व्यक्ति में ये चारों वस्तुएँ नियत कर दी जाएं, वही ‘ऋषि’ होता है। रत्नकोष में भी कहा गया है-

सप्त ब्रह्मर्षि-देवर्षि-महर्षि-परमर्षय:। 
काण्डर्षिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावरा:।।
अर्थात:-ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षि, काण्डर्षि, श्रुतर्षि, राजर्षि ये सातों क्रम से अवर हैं। यथा – व्यास (महर्षि), भेल (परमर्षि), कण्व (देवर्षि), वसिष्ठ (ब्रह्मर्षि), सुश्रुत (श्रुतर्षि), ऋतुपर्ण (राजर्षि), जैमिनि (काण्डर्षि)।

1- महर्षि:-  वे व्यक्ति जो अपने साॅसारिक रूपसे आवश्यक कर्म करते हुए दर्शन के दोनों पक्षों ‘आरण्यक और उपनिषद’ के अनुसार उच्चतर स्तर को पाने के लिए ध्यान, चिन्तन और साधना करते हुए आध्यात्म पथ पर पूर्णता प्राप्त कर सामज सेवा में जुट जाते हैं, उन्हें  ‘‘महर्षि’’ कहा जाता है। 
जैसे- महर्षि वाल्मीकि

2- राजर्षि:-  वे व्यक्ति जो सामाजिक उत्तरदायित्व (जैसे राजसिक कार्य) निर्वहन करते हुए अपने हृदय की पुकार पर आध्यात्मिक चेतना के साथ अपने को संतृप्त कर चुकते हैं उन्हें राजर्षि कहा जाता है जैसे राजर्षि जनक।

3- देवर्षि:- वे व्यक्ति जिन्होंने उत्तम देवकुल में जन्म लेकर अपने को आध्यात्मिक साधना के द्वारा उन्नत चेतना में स्थापित कर लिया है वे देवर्षि कहलाते हैं ।
जैसे- देवर्षि नारद।

4- ब्रह्मर्षि:- वह ऋषि जिसे ब्रह्म या तत्व का ज्ञान हो गया हो । ब्रह्मर्षि में “ब्रह्म” शब्द जुड़ा है अर्थात जिसने स्वयं ब्रह्म अवस्था को प्राप्त कर लिया है ।
जैसे- अंगिरा, सौभरि आदि ।


साभार:-ओमन सौभरि भुर्रक, भरनाकलां, मथुरा

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Sunday, 8 August 2021

ब्रजभूमि में महर्षि सौभरि जी नाम पर सबसे बड़े पार्क का निर्माण


इस स्थान पर उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा पवित्र तीर्थस्थल सुनरख, वृन्दावन  में 460 एकड़ भू-भाग में महर्षि सौभरि वन (सिटी फॉरेस्ट) के रूप में एक पार्क का विकास किया जाएगा।

460 एकड़ में प्रस्तावित एशिया के सबसे बड़े "सौभरि वन" (सुनरख वन) में चार योग केंद्र स्थापित होंगे। इसके साथ ही पर्यटकों के लिए अन्य कई सुविधाएं भी होंगी। इस पूरे प्रोजेक्ट की अनुमानित लोग 325 करोड़ रुपये होगी।


इस वन में सरोवर, पौधरोपण, फव्वारे, आॅर्गेनिक खेती और साइिकल ट्रैक आदि को अलग अलग लोकेशन पर रखा जाएगा। इसमें पेट्रोल डीजल से चलने वाले वाहनों के बजाय बैटरी चालित वाहनों का संचालन आवागमन के लिए किया जाएगा।


साभार-  ओमन सौभरि भुरर्क, भरनाकलां, मथुरा

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महर्षि सौभरि, कालिया नाग व गरुड़ की कथा


कालिया नाग पन्नग जाति का नाग था । नागों की माता कद्रू और कश्यप का पुत्र था । कालिया पहले रमण द्वीप में निवास करता था । किंतु पक्षीराज गरुड़ से उसकी शत्रुता हो गई तो जान बचाने के लिए वह यमुना नदी में कुण्ड में आकर रहने लगा था । यद्यपि जब गरूड़ नागों का संहार करने लगे तो गरूड और नागों के बीच एक समझौता हुआ कि गरूड़ को प्रत्येक माह में अमावस्या के दिन एक नियत वृक्ष के नीचे एक सर्प गरूड के आहार के लिए दिया जाएगा ।

सभी सर्प जाति इस नियम का पालन कर रही थी । कालिय नाग को अपने विष और बल का बड़ा घमंड था । उसने नागों की स्थापित परंपरा को ठुकरा दिया । उसने गरूड के लिए बलि देना तो दूर गरूड की बलि को स्वयं ही खा लिया. सर्प और नाग जाति इससे बड़ी क्रुद्ध हुई कि अपने वंश का होकर भी वह ऐसे कार्य कर रहा है. उन्हें गरूड़ के क्रोध का भय भी था । नागों ने गरूड़ को सारी बात बता दी ।

गरूड ने कालिया पर आक्रमण किया । कालिया ने अपने सौ फल फैलाए और गरूड पर विषप्रहार किया । गरूड तो अमृत कलश के वाहक रहे थे । उन पर विष का प्रभाव नहीं हुआ. कालिया ने अपने दांतों से गरूड़ पर प्रहार किया और पकड़ लिया । पीडा से गरूड़ ने अपने शरीर को जोर से झटका । उसका प्रभाव इतना अधिक था कि कालिया जाकर यमुना में गिरा । वह भागकर कालियदह कुंड तक चला आया क्योंकि गरूड़ यहां आ नहीं सकते थे ।

यमुना जी का यह कुण्ड गरुड़ के लिए सौभरि ऋषि के शाप के कारण प्रवेश से वर्जित था । एक बार गरूड़ को बहुत भूख लगी । वह इसे बर्दाश्त नही कर पा रहे थे । गरुड़ की नजर एक मछली पर पड़ी । सौभरी मुनि वहीं स्नान कर हे थे । मछली ने सौभरि से सहायता मांगी । सौभरि ने गरूड से कहा कि हो सके तो इस शरणागत मत्स्य को मत खाओ लेकिन गरूड से भूख सहन नहीं हुई । उन्होंने मना करने पर भी उस मछली को खा लिया । महर्षि सौभरि क्रोधित हो गए । उन्होंने गरुड़ को शाप दिया- यदि गरुड़ आप फिर कभी इस कुण्ड में घुसकर मछलियों को खाएंगे तो उसी क्षण मृत्यु हो जाएगी । तब से गरूड़ उधर नहीं जाते थे । कालिय नाग यह बात जानता था । इसीलिए वह यमुना के उसी कुण्ड में रहने आ गया था. उसके विष के प्रकोप के कारण वह कुंड कालियदह कहा जाने लगा । कालिया उसमें निर्भीक होकर अपनी असंख्य पत्नियों के साथ रहता था ।

मुनिवर ने सभी को आश्वस्त किया तथा मछली एवं अहिभक्षी गरुड को शाप दिया कि यदि उनके सुनरखस्थित क्षेत्र में पद रखा तो भस्म हो जाएगा। इस क्षेत्र को महर्षि ने अहिवास क्षेत्र घोषित कर दिया। तभी से महर्षि सौभरि “अहि“ को 'वास' देने के कारण अहिवासी कहलाये। इस प्रकार उस स्थल में अहि,मछली तथा सभी जीव जन्तु, शान्ति पूर्वक निवास करते रहे।

साभार-  ओमन सौभरि भुरर्क, भरनाकलां, मथुरा

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Thursday, 5 August 2021

Business Tycoon Shobharam Sharma ji

वर्तमान ब्लॉकप्रमुख, भूतपूर्व ग्राम प्रधान भरनाकलां, राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिल भारतीय सौभरेय ब्राह्मण संघ, व बिजनेसमैन शोभराम शर्मा जी का जन्म सन्... में ब्रज मंडल मथुरा जिले के गॉंव भरनाकलां में आदिगौड़ अहिवासी ब्राह्मण  परिवार में हुआ था । 

इनके पिता पं. श्री राधेश्याम भगत जी हैं। भगत जी नित्य प्रति श्री गिरिराज पर्वत (गोवर्धन महाराज) की परिक्रमा करते हैं । सन्... में शर्मा जी ने ... स्कूल से  शिक्षा प्राप्त की ।

 सन ... में शोभाराम जी अपना बिज़नेस एक टेम्पू से शुरू किया लेकिन काम ज्यादा चला नहीं और कुछ दिनों बाद चुनावों के दौरान वो ग्राम प्रधान चुने गए । इसके बाद शर्मा जी pwd के ठेकेदार बन गए । आपने देश के कई प्रदेशों के शहरों व ग्रामों में सड़क का निर्माण कराया । आपका वर्तमान निवास स्थल आनंदवन मथुरा है ।
 हाल ही में आपकी पत्नी श्रीमती जमुना देवी जी ब्लॉक चौमुहा से ब्लॉक प्रमुख का चुनाव जीतकर स्वसमाज का नाम गौरवान्वित किया है । इससे पहले स्वसमाज के मथुरा जिले के 12 गांवों से कोई भी स्वजन इस पड़ को नहीं जीत पाया था । आपके पास अब प्रशासनिक, राजनैतिक, व्यापार इत्यादि का बड़ा मजबूत अनुभव है । ग्रामवासियों व क्षेत्रवासियों को आपसे विकास की बहुत उम्मीदें हैं ।
आपका परिवार पहले से ही भागवत प्रेमी व साधुसंगत रहा है ।  काठिया बाबा महंत श्री श्री डोरी बाबा का आपके ऊपर हमेशा आशीर्वाद बना रहता है ।
पिछले कई महीनों पहले मिनी कुंभ वृन्दावन में हरिप्रिया शरणदास जी महाराज, डोरी बाबा आश्रम में हुई श्रीमद भागवत कथा के दौरान मुख्य यजमान की भूमिका में रहे ।
 आपके 3 भाई और 1 बहिन है । आपके ... पुत्र व ... पुत्रियां हैं ।
 आपके पास ... अरब मूल्य की संपत्ति है, जिसके अनुसार आप गॉंव के  सबसे धनी व्यक्ति हैं और जिले में आप top 50 की लिस्ट में आते हैं ।
आप SRSC कंपनी के फाउंडर हैं । जिसमें करीब 100 से ज्यादा वर्कर काम करते हैं ।
आपका आसपास के क्षेत्र में सबसे बड़ा व्यापारिक घराना है। [06/08, 17:28] Omprakash Sharma: आप अखिल भारतीय सौभरेय ब्राह्मण संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद आसीन हैं । वार्षिक होली मिलन समारोह व स्वसामाजिक कार्य आपकी देख-रेख में होते हैं ।

श्री शोभाराम शर्मा जी की धर्मपत्नी श्रीमती जमुना देवी  जी को चौमुहां ब्लॉक की प्रमुख निर्दलीय/निर्विरोध निर्वाचित होने पर बहुत-बहुत हार्दिक बधाई


साभार:-ओमन सौभरि भुर्रक, भरनाकलां, मथुरा

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Wednesday, 4 August 2021

गोत्रकार ऋषि परिवारों की सदस्य सँख्या :-

ऋषि परिवारों की सदस्य सँख्या :-

(1). आग्नेयः (4) :- कुमारः, केतु:, वत्स: तथा श्येन:।
(2). आङ्गिरसः (56) :- अभिवर्त:, अहमीयू:, अयास्यः, उचथ्यः, उरुः, उर्धसद्मा, कुत्सः, कृतयशा:, कृष्ण:, घोर:, तिरश्चि:, दिव्यः, धरुणः, ध्रुव:,  भूषः, नृमेध:, पवित्रः, पुरुमीळहः, पुरुमेधः, पुरुहन्मा, पुरुदक्ष:, प्रभूवसुः, प्रियमेधः, बरुः, बिन्दुः, बृहस्पति:, भिक्षु:, मूर्धन्यान्, रहूगणः, वसुरोचिषः, विरूपः, विहव्यः, वीतहव्य:, व्यश्व:, शिशु:, श्रुतकक्षः, संवननः, संवर्तः, सप्तगु:, सव्य:,  सुकक्षः, सुदीतिः, हरिमन्तः, हिरण्यस्तूपः, अर्चन हैरण्यस्तूपः, शश्र्वत्याङ्गिरसः, विश्वाकः,  कार्ण्णि:, शकपूतो:, नार्मेधः, सिन्धुक्षित् प्रैयमेधः, दीर्घतमा ओचथ्यः, कक्षीवान् दैर्घतमसः, काक्षीवती घोषा, सुहस्तो घौषेषः शबर: काक्षीवतः तथा सुकीर्तिः काक्षीवतः।
(3). अत्रेयः (38) :- अत्रिभौमः, अर्चनानाः, अवस्यु:, ईष:, उरुचक्रि:, एव्यामरुत्, कुमारः, गयः, गविष्ठिर:, गातुः, गोपवन:, घुम्नः, द्वितः, पूरु:, पौरः, प्रतिक्षत्र, प्रतिक्षत्र:, प्रतिप्रभ:, प्रतिभानुः, बभ्रुः, बाहुवृक्त:, बुधः, यजत:, रातहव्यः, व्व्रि:, विश्वसामा, श्यावाश्वः, श्रुतवित्, सत्यश्रवाः, सदापृण:, सप्तध्रि:, ससः, सुतम्भरः, स्वस्ति:, वसूयव आग्रेयाः, अन्धीगुः श्यावाश्र्वि:, अपाला तथा विश्ववारा।
(4). आथर्वणः (2) :- बृहद्दिवः तथा भिषग्।
(5). आपत्य: (3) :- त्रितः, द्वितः तथा भुवनः।
(6). ऐन्द्रः (14) :- अप्रतिरथः, जयः, लव:, वसुक्रः, विमदः, वृषाकपिः, सर्वहरिः, इन्द्रः, इन्द्रो मुष्कवान्, इन्द्रो वैकुण्ठः, इन्द्राणी, इन्द्रस्य स्नुषा (वसुक्रपत्नी), इन्द्रमातरो देवजामयः तथा शची पौलोमी।
(7). काण्वः (33) :- आयुः, इरिम्बिठिः, कुरुसुतिः, कुसीदी, कृशः, त्रिशाोकः, देवातिथिः, नाभाकः, नारदः, गीपातथिः, पर्वत:, पुनर्वत्सः, पुष्टिगुः, पृषध्रः, प्रगाथ:, प्रस्कण्वः, ब्रह्मातिथिः, मातरिश्वाः, मेधातिथि:, मेध्यः, मेध्यातिथिः, वत्सः, शशकर्णः, श्रुष्टिगुः, सध्वंस, सुपर्णः, सौभरिः, कुशिकः सौभरः, अश्वसूकती काण्वायनः, गोषूक्ती  काण्वायन:, कलिः प्रागाथः, धर्मः प्रागाथः तथा हर्यतः प्रागाथः।
(8). काश्यपः (10) :- अधत्सारः, असितः, कश्यपो गरीचः, देवलः, निध्रुविः, भूतांशः, रेभः, रेभसून,  मेला तथा शिखण्डिन्याप्सरसी काश्यप्यौ।
(9). कौत्सः (2) :- दुर्मित्रः तथा सुमित्रः।
(10). गौतम: (4) :- गोतमः, नोधाः, वामदेवः तथा एक द्युर्नोधस:।
(11). गौपायनः (4) :- बन्धुः, विप्रबन्धुः, श्रुतबन्धु:, तथा सुबन्धु:।
(12). तापसः (3) :- अग्निः, धर्मः तथा मन्युः।
(13). दैवोदासि: (1) :- परुच्छेप:, प्रतर्दन: तथा अनानत: पारुच्छेपि:।
(14). प्राजापत्य: (9) :- पतङ्ग:, प्रजावान्, यक्ष्मनाशनः, यज्ञ:, विमद:, विष्णुः, संवरण:, हिरण्यगर्भ: तथा दक्षिणा।
(15). बार्हस्पत्य (4) :- अग्नि:, तपुर्मूर्धा, भरद्वाज: तथा शंयु:।
(16). ब्राह्म: (2) :- ऊर्ध्वनाभा तथा रक्षोहा।
(17). भारत: (1) :- अश्वमेधः, देववात: तथा देवश्रवा:।
(18). भारद्वाजः (11) :- ऋजिश्वा, गर्ग:, नर:, पायु:, वसुः, शास:, शिरिम्बिठ:, शुनहोत्र:, सप्रथ:, सुहोत्र: तथा रात्रि:।
(19). भार्गव (14) :- इट:, कपि:, कृन्तु:, गृत्समदः, च्यवनः, जमदग्नि:, नेम:, प्रयोग:, वेन:,  सोमाहुति:,  स्यूमरश्मि:, उशना काव्य:,  कुर्मो गार्त्स्मद:  तथा रामो जामदग्न्य:।
(20). भौवन: (2) :- विश्वकर्मा तथा साधनः।
(21). माधुच्छन्दस: (2) :- अधमर्षण:, तथा जेता।
(22). मानवः (4) :- चक्षुः, नहुष:,  नमः, गाभारदिशः
(23). मैत्रावरुणिः (2) :- वशिष्ठ: तथा अगस्त्य: (मान्य)।
(24). आगस्त्यः (5) :- अगस्त्यशिष्या, अगस्त्यपत्नी (लोपामुदा), अगस्त्यस्वसा (लोपायनमाता), दृळ्हच्युत:, इध्मवाहो दार्ढ़च्युत:।
(25). यामायनः (7) :- ऊर्ध्वकृशन:,  कुमारः, दमनः, देवश्रवा:, मथितः, शङ्ख:, तथा  संकुसुत:।
(26). वातरशन: (7) :-  ऋष्यशृङ्ग:, एतशः, करिक्रतः, जूति:, वातजूति:, विप्र जूतिः, तथा वृषाणकः।
(27). वातायन: (2) :- अनिल तथा  उलः।
(28). वामदेव्यः (3) :- अंहोमुक्, बृहदुक्थ:  तथा मूर्धन्वान्।
(29). वारुणिः (2) :- भृगु: तथा सत्यघृति:।
(30). वर्षागिरः (6) :- अम्बरीषः, ऋजाश्व:, भयमानः, सहदेवः, सुराधा तथा सिन्धुद्वीप: (आम्बरीष:)।
(31). वासिष्ठः (13) :- इन्द्रप्रमतिः, उपमन्यु, कर्णश्रुत्, चित्रमहा, द्युम्नीकः, प्रथ:, मन्युः, मृळीकः, वसुक्र:, वृषगणः, व्याघ्रपात्, शक्ति: समा वसिष्ठपुत्रा:।
(32). वासुकः (2) :- वसुकर्णः तथा वसुकृत्।
(33). वैरूपः (4) :- अष्ट्रादंष्ट्र, नभ:प्रभेदनः, शतप्रभेदन: तथा सध्रिः
(34). वैवस्वत: (3) :- मनु:, यमः तथा यमी।
(35). वैश्वामित्रः (12) :- कुशिक ऐषीरथिः (विश्वामित्र पूर्वज:), विश्वामित्रो गाधिन:, अष्टकः, ऋषभः, कतः, देवरातः, पूरणः, प्रजापतिः, मधुच्छन्दाः, रेणुः, गाथी कौशिक: तथा उत्कीलः कात्यः।
(36). शाक्त्यः (2) :- गौरवीतिः तथा पाराशर:।
(37). शार्ङ्गः (4) :- जरिता, द्रोण:, सारिसृक्वः तथा स्तम्बमित्रः।
(38). सर्पः (4) :- अर्बुद: काद्रवेय:, जरत्कर्ण ऐरावत:, ऊर्ध्वग्रावा आर्बुदि: तथा सार्पराज्ञी।
(39). सौर्य: (4) :- अभितपाः, धर्मः, चक्षुः तथा विभ्राट्।
(40). सौहोत्रः (2) :- अजमीळह: तथा पुरुमीळहः।
(41). स्थौरः (2) :- अग्रियूतः तथा अग्नियूपः।
(42).सोमपरिवार: (4) :- सोमः, बुधः, सौम्यः तथा पुरूरवा ऐकः (आयुः, नहुषः) ययातिर्नाहुषः।
(43). ताक्ष्र्य: (2) :- अरिष्टनेमिः तथा सुपर्णस्ताक्ष्र्यपुत्र:।

अंगिरसगोत्री ब्राह्मणओमन सौभरि भुर्रक, गांव-भरनाकलां, मथुरा

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Tuesday, 3 August 2021

महर्षि सौभरि जी के चरित्र से संबंधित कुछ कथाएं


चरित्र रक्षा से बढ़कर कोई सिद्धि नहीं

 विधान ये है कि जो उपयुक्त पात्र हो, जिसे तितीक्षा की कसौटी पर भली प्रकार कस लिया गया हो उसे ही सिद्धि का अधिकार प्रदान किया जाये।


यह कहकर महामुनि क्रौष्टक चुप हो गए। उनकी मुख मुद्रा देखने से ऐसा प्रतीत होता था, जैसे अब उनकी चेतना विचारों के अगाध सागर में विलीन हो गयी हो। वे कुछ गम्भीर चिन्तन में निमग्न हो गए हैं-ऐसा समझकर कुछ आगे की बात न करके शिष्य सौभरि भी चुप हो गए और वहाँ से उठकर आचार्य देव के लिए संध्यादि के प्रबन्ध में जुट गए।

देर तक विचार करने के बाद भी क्रौष्टक अन्तिम निर्णय न कर सके कि महर्षि सौभरि को सिद्धि प्रदान करने वाली उच्चस्तरीय साधनाओं का अधिकार प्रदान किया जाये अथवा नहीं। उनकी करुणा, उनका सहज स्नेह उमड़ता और कहता सौभरि ने तुम्हारी बड़ी सेवाएँ की हैं, उसे यह अधिकार मिलना ही चाहिए। किन्तु शास्त्र, अनुभव आड़े आ खड़े होते और पूछते-क्रौष्टक सिद्धि पाने के बाद भी क्या तुझे विचलित करने वाली परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़ा? क्या तुझे इन्द्रिय लालसाओं के दमन में अत्यधिक कठोरता बरतनी नहीं पड़ी? क्या यह सम्भव है कि सिद्धि पाने के बाद सौभरि को ऐसे सामाजिक जीवन के अनिवार्य सन्दर्भों का सामना नहीं करना पड़ेगा? मान लो यदि सौभरि तब अपने को न संभाल पाया, तो होगा न सिद्धि का दुरुपयोग? क्या यह ठीक नहीं, कि पहले उसे अग्नि दीक्षा में कस कर देख लिया जाये? पीछे पंचाग्नि साधना में प्रवेश दिया जाये?

क्रौष्टक का अन्तिम निर्णय यही रहा। दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही शिष्य सौभरि को उन्होंने अपने समीप बुलाया और बड़े स्नेह के साथ कहा-वत्स आश्रम जीवन की कठोरता के कारण तुम थक गए होंगे। आओ मैं तुम्हारे पैरों में एक अभिमंत्रित लेप करता हूँ। उससे तुम जहाँ भी पहुँचने की इच्छा करोगे, वायुवेग से वहीं जा पहुँचोगे और जब तक चाहोगे वहाँ पर विचरण करते रह सकोगे। इससे तुम्हारा श्रम, तुम्हारी उद्विग्नता दूर हो जाएगी।

गुरुदेव के वचन और इस अप्रत्याशित परिस्थिति पर ऋषि सौभरि को आश्चर्य अवश्य हुआ किन्तु देश-भ्रमण की लालसा वेगवती हो उठी, सो उसने गुरुदेव की योजना का कोई विरोध नहीं किया।

क्रौष्टक ने मुनि सौभरि के पाँवों में अभिमन्त्रित औषधि का लेप कर दिया। अब मुझे महेन्द्र पर्वत(हिमालय) चलना चाहिए-ऐसी इच्छा करते ही ऋषि सौभरि क्षण भर में उत्तर दिशा की ओर उड़ चले। उस रमणीय हिम और पुष्प लताओं से आच्छादित सुरम्य शिखरावली तक पहुँचने में उन्हें कुछ ही क्षण लगे। यहाँ की वन श्री, वन सौरभ स्वर्ग से भी बढ़कर अतुलित सौंदर्य वाले देखकर सौभरि का मन बड़ा प्रसन्न हुआ। वे भूमि पर उतरकर बहुत देर तक वहाँ विचरण करते रहे।

सुख की अभीप्सा है ही कुछ ऐसी कि व्यक्ति के विवेक, चातुर्य और जागरूकता को थोड़ी ही देर में नष्ट कर डालती है। ध्यान रहा नहीं। सौभरि के पैर शीतल तुषार में चलते रहे और धीरे-धीरे पैर में लगा सारा अनुलेप खुल गया। जब उनके मन में वापस लौटने की इच्छा हुई, तब पता चला कि वहाँ से वापस लौटा ले चलने वाली शक्ति तो नष्ट हो चुकी। सौभरि बड़े दुखी हुए और पश्चाताप करने लगे। आज पहली बार उन्हें किसी सिद्धि के प्रति घृणा और मानवीय पुरुषार्थ के प्रति विराट् आस्था का बोध हुआ। उन्होंने अनुभव किया-यह सामर्थ्य आत्म पराक्रम में ही है, जो व्यक्ति को चरम सीमा तक पहुँचाकर वहाँ से उद्धार भी कर सकती है।”

ब्रह्मऋषि सौभरि अभी इसी तरह के विचारों में खोए ही थे कि उन्हें उस पर्वतीय उपत्यिका में शनैः शनैः समीप आती हुई सी पायलों की मधुर झंकार सुनायी दी। सौभरि सोचने लगे-यहाँ और कौन हो सकता है? तभी तिलोत्तमा के समान अप्रतिम सौंदर्य वाली मौलेया अप्सरा वरुथिनी आ उपस्थित हुई। ऋषि सौभरि को उसने दूर से ही देख लिया था। वह सौभरि की सुगठित देह यष्टि और उनके दीप्तिमान सौंदर्य के प्रति आसक्त हो उठी थी। सौभरि को आकर्षित कर प्रणय जाल में बाँध लेने की इच्छा से वह जितना श्रृंगार कर सकती थी, किया था। स्वर्ण थाल में लाए वस्त्राभूषण, सुगन्धित अनुलेप और मधुर भोज्य प्रस्तुत करते हुए वरुथिनी ने एक लुभावनी दृष्टि सौभरि पर डाली और बोली-महाभाग मैंने पूर्व जन्म में कोई श्रेष्ठ पुण्य किया है, तभी आप जैसे प्रतापी सिंह पुरुष को पाने का सौभाग्य मिला है।”

“ओह भद्रे!” बहुत देर बाद ब्रह्मऋषि सौभरि का कण्ठ फूटा-मैं तुम्हारी क्या सेवा कर सकता हूँ? तुम्हें किसी ने बंदी बनाया हो तो शीघ्र बताओ, मैं अभी उसे परास्त कर तुम्हें मुक्त कर सकता हूँ। तुम पर किसी ने ओछी दृष्टि डाली हो तो बताओ। आर्ये, तुम निश्चित जानो, मैं उसका मान मर्दन करने में किंचित् भी डरुँगा नहीं।”

यह सब होता तो वरुथिनी कहती भी। वह तो उस योग माया की तरह आयी थी जो संसार को क्षणिक सुख आकर्षण में बाँधकर, पारलौकिक सुख, संयम, शक्ति और जीवन से विच्युत किया करता है। एक क्षीण किन्तु मर्माहत कामुक दृष्टि से निक्षेप करते हुए वरुथिनी ने कहा-देव पुरुष! आपको पाकर मुझे अब एक ही वस्तु प्राप्त करने की इच्छा रह गई है। आप जानते ही होंगे, स्त्री पत्नी बनने के बाद एक मात्र मातृत्व की इच्छा रखती है। सो मैं भी उसी लालसा से आपकी सेवा में प्रस्तुत हुई हूँ। महान् पुरुष किसी की इच्छा ठुकराते नहीं हैं।” यह कहती हुई वरुथिनी महर्षि सौभरि के बिलकुल समीप तक जा पहुँची।

सौभरि मुनि हतप्रभ रह गए। एक ओर मोहक रूप जाल था− दूसरी तरफ अध्यात्म का प्रकाशमान राज मार्ग। एक की दिशा सर्वस्व नाश की ओर थी, दूसरा अनन्तता की प्राप्ति का आश्वासन देता था। वह सोचने लगे, वासना जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकती। अगले पल उनका मन दृढ़ हो गया। उनके आध्यात्मिक संस्कार बड़े बलवान थे, वरुथिनी का आकर्षण जाल उन्हें बाँध नहीं पाया। उन्होंने कहा-भद्रे “मैंने जिस क्षण तुम्हें देखा, उसी समय मुझे अपनी कनिष्ठ सहोदरा का ध्यान आया था। तुम मेरी बहिन के समान हो। मैं तुम्हारे साथ समागम कैसे कर सकता हूँ?

नीति-मर्यादा का परिपालन ही सदाचार है। जहाँ सदाचार होता है, वहाँ सुव्यवस्था कायम रहती है ओर उन्नति-प्रगति भी होती रहती है। इसका लोप ही अव्यवस्था का कारण बनता है और पतन का निमित्त भी।

सदाचार में ऋजुता, सरलता और साधुता का समावेश है। इन्हीं से ऐसे लोग प्रशंसा पाते एवं महान् बनते हैं, किन्तु कठोर और क्रूर प्रकृति के कारण कदाचारी सर्वत्र अपयश और अपमान के भागी बनते हैं। नीतिवानों का जीवन यज्ञमय होता है। यज्ञ परमार्थ का पर्याय है। इसीलिए यज्ञीय जीवन को दिव्य जीवन कहा गया है। जहाँ यज्ञीय भाव है, वहाँ प्रकारान्तर से सदाचरण की ही उपस्थिति समझना चाहिए। सदाचार युक्त नैतिक जीवन की पराकाष्ठा यज्ञ में हुई है। इसी से सत्कर्म पैदा होते, उसी में स्थिर रहते और उसी में उनकी पूर्णता है।

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'गणेश जी के मूषक को वाहन बनाने की सुनाई कथा'

 प्राचीन समय में सुमेरू अथवा महामेरू पर्वत पर सौभरि ऋषि का अत्यंत मनोरम आश्रम था। उनकी अत्यंत रूपवती और पतिव्रता पत्नी का नाम मनोमयी था। एक दिन ऋषि लकड़ी लेने के लिए वन में गए और मनोमयी गृह-कार्य में लग गई।

उसी समय एक दुष्ट कौंच नामक गंधर्व वहां आया और उसने अनुपम लावण्यवती मनोमयी को देखा तो व्याकुल हो गया। अपनी व्याकुलता में कौंच ने ऋषि-पत्नी का हाथ पकड़ लिया। रोती और कांपती हुई ऋषि पत्नी उससे दया की भीख मांगने लगी। उसी समय महर्षि सौभरि आ गए। उन्होंने कौंच को श्राप देते हुए कहा 'तूने चोर की तरह मेरी पत्नी का हाथ पकड़ा है, इस कारण तू मूषक होकर धरती के नीचे और चोरी करके अपना पेट भरेगा।' कांपते हुए गंधर्व ने मुनि से प्रार्थना की -'दयालु मुनि, अविवेक के कारण मैंने आपकी पत्नी के हाथ का स्पर्श किया था, मुझे क्षमा करें। ऋषि सौभरि ने कहा मेरा श्राप व्यर्थ नहीं होगा।'

उन्होंने गंधर्व को श्राप देते हुए कहा 'तूने चोर की तरह मेरी सहधर्मिणी का हाथ पकड़ा है, इस कारण तू मूषक होकर धरती के नीचे और चोरी करके अपना पेट भरेगा।काँपते हुए गंधर्व ने मुनि से प्रार्थना की-'दयालु मुनि, अविवेक के कारण मैंने आपकी पत्नी के हाथ का स्पर्श किया था। मुझे क्षमा कर दें। ब्रह्मऋषि सौभरि ने कहा मेरा श्राप व्यर्थ नहीं होगा, तथापि द्वापर में महर्षि पराशर के यहाँ गणपति देव गजमुख पुत्र रूप में प्रकट होंगे (हर युग में गणेशजी ने अलग-अलग अवतार लिए) तब तू उनका डिंक नामक वाहन बन जाएगा, जिससे देवगण भी तुम्हारा सम्मान करने लगेंगे। सारे विश्व तब तुझें श्रीडिंकजी कहकर वंदन करेंगे।


इसी संदर्भ में...

एक बार की बात है कि गजमुखासुर नाम का एक दैत्य हुआ करता। अपने बल से उसने देवताओं की नाक में दम कर दिया। वह हर समय उन्हें परेशान करता रहता। उसे यह वरदान प्राप्त था कि वह किसी शस्त्र से पराजित नहीं हो सकता ना ही उसकी शस्त्र के प्रहार से मृत्यु हो सकती है। देवताओं को उसे हराने की कोई युक्ति नहीं सूझी तो उन्होंनें भगवान गणेश की शरण ली। गजमुखासुर से मुक्ति दिलाने के लिये भगवान गणेश ने उससे युद्ध किया। अब शस्त्र से वह हार नहीं सकता था तो भगवान गणेश ने अपने एक दांत को तोड़कर उससे उस पर प्रहार करना चाहा। अब गजमुखासुर को अपनी मृत्यु दिखाई देने लगी। वह चूहा बनकर भागने लगा लेकिन भगवान गणेश ने उसे मूषक रूप में ही अपना वाहन बना लिया।

इस के अतिरिक्त एक कथा और मिलती है जिसके अनुसार एक बहुत ही बलशाली मूषक ने ऋषि पराशर के आश्रम में भयंकर उत्पात मचा रखा था। उसने ऋषि के अन्न भंडार को नष्ट कर दिया, मिट्टी के पात्रों (बर्तनों) को तबाह कर दिया। यहां तक कि सभी वस्त्र, ग्रंथ आदि भी उसने कुतर डाले। महर्षि ने भगवान गणेश से प्रार्थना की, तब भगवान गणेश ने अपना पाश फेंका जो पाताल से मूषक घसीटा हुआ भगवान गणेश के सामने ले आया। अब मूषक भगवान गणेश की आराधना करते हुए उनसे अपने प्राणों की भीख मांगने लगा। भगवान गणेश ने कहा तुमने ऋषि को बहुत परेशान किया है इसकी सजा तुम्हें मिलनी चाहिये लेकिन चूंकि तुम मेरी शरण में हो इसलिये तुम्हारी रक्षा भी मैं करूंगा मांगो क्या मांगते हो। इससे मूषक का अंहकार फिर से जाग गया और बोला मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिये बल्कि आप मुझसे कुछ भी मांग सकते हो। भगवान गणेश उसका अंहकार देखकर थोड़ा हंसे और बोले चलो ठीक है फिर तुम मेरे वाहन बन जाओ। मूषक ने तथास्तु कह दिया फिर क्या था अपनी विशालकाय देह के साथ भगवान गणेश उस पर बैठ गये। मूषक उनके भार को सह न सका उसे अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ और श्री गणेश से प्रार्थना की कि वे उसकी क्षमता के अनुसार ही अपने शरीर का भार बना लें तब उसके अंहकार को चूर होता देख भगवान गणेश ने उसके अनुसार ही अपना वजन कम किया।

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एक बार मछुआरों ने मछली पकड़ने के लिए जाल डाला तो मछलियों के साथ सौभरि ऋषि भी जाल में फंसकर खिंच आये । भार अधिक लगने के कारण मछुआरों  ने सोचा कि कोई बड़ी मछली जल में फंस गई है । जाल को जल से बाहर खींचा तो उन्हें पता चल कि ये तो सौभरि ऋषि है ।

मछुआरे डरकर घबराने लगे । ऋषि ने कहा – भैय्या ! जब हम तुम्हारे जाल में आ ही गए है तो तुम बेच दो हमे । मछुआरे सोच में पड़ गए  और राजा के पास आकर सारी बात बताई । बात अब उनके मूल्य कि थी कि उनका मूल्य कैसे आँका जाये ? सभी दुविधा में पड़ गए । ऋषि द्वारा बताने पर निश्चय हुआ कि गाय के रोम – रोम में अनगिनत देवताओ का वास है , अतः राजा ने ऋषि के बदले में गाय देकर ऋषि को मुक्त करा दिया ।


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एक समय की बात है…

सम्राट मान्धातृ अथवा मांधाता, इक्ष्वाकुवंशीय नरेश युवनाश्व और गौरी पुत्र अयोध्या में राज्य किया करते थे | च्यवन ऋषि द्वारा संतानोंत्पति के लिए  मंत्र-पूत जल का कलश पी गए थे | च्यवन ऋषि ने राजा से कहा कि अब आपकी कोख से बालक जन्म लेगा। सौ वर्षो के बाद अश्विनीकुमारों ने राजा की बायीं कोख फाड़कर बालक को निकाला। अब बालक को पालना, एक बड़ी समस्या थी, तो तभी इन्द्रदेव ने अपनी तर्जनी अंगुली उसे चुसाते हुए कहा- माम् अयं धाता (यह मुझे ही पीयेगा)। इसी से बालक का नाम मांधाता पड़ा। 

वह सौ राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञों के कर्ता और दानवीर, धर्मात्मा चक्रवर्ती सम्राट् थे | मान्धाता ने शशबिंदु की पुत्री बिन्दुमती से विवाह किया |उनके मुचकुंद, अंबरीष और पुरुकुत्स नामक तीन पुत्र और 50 कन्याएँ उत्पन्न हुई थीं। इधरअयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट राजा मान्धाता वर्षा न होने के कारण राज्य में अकाल पडने से बहुत दुखी थे। अपनी सहधर्मिणी से प्रजा के कष्टों की चर्चा कर ही रहे थे; कि घूमते-घूमते नारद जी सम्राट मान्धाताके राजमहल में पधारे। सम्राट ने अपनी व्यथा नारद जी को निवेदित कर दी। नारद जी ने अयोध्या नरेश को परामर्श दिया कि वे शास्त्रों के मर्मज्ञ, यशस्वी एवं त्रिकालदर्शी महर्षि सौभरि से यज्ञ करायें। निश्चय ही आपके राज्य एवं प्रजा का कल्याण होगा। राजा मान्धातानारद जी के परामर्श अंतर्गत ब्रह्मर्षि सौभरिके यमुना हृदस्थित आश्रम में पहुंचे तथा अपनी व्यथा कथा अर्पित की। महर्षि ने ससम्मान अयोध्यापति को आतिथ्य दिया और प्रात:काल जनकल्याणकारी यज्ञ कराने हेतु अयोध्यापति के साथ अयोध्या पहुंच जाते हैं।यज्ञ एक माह तक अनवरत रूप से अपना आनंद प्रस्फुटित करता है और वर्षा प्रारम्भ हो जाती है। सम्राट दम्पति ब्रह्मर्षि को अत्यधिक सम्मान सहित उनके आश्रम तक पहुंचाने आये।


साभार:-

ओमन सौभरि भुर्रक, भरनाकलां, मथुरा


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हिन्दू धार्मिक सम्प्रदायों के बारे में जानिए

हिन्दू धार्मिक सम्प्रदाय-
शैवाश्च वैष्णवाश्चैव शाक्ताः सौरास्तथैव च | गाणपत्याश्च ह्यागामाः प्रणीताःशंकरेण तु || -देवीभागवत ७ स्कन्द


(१) शैव सम्प्रदाय
(२) वैष्णव सम्प्रदाय
(३) शाक्त सम्प्रदाय
(४) सौर सम्प्रदाय
(५) गाणपत सम्प्रदाय
(क)मत्स्येन्द्रमत नाथ सम्प्रदाय
(ख)शांकरमत दशनामी सम्प्रदाय
(६) महानुभाव सम्प्रदाय
एक ही धर्म की अलग अलग परम्परा या विचारधारा मानने वालें वर्गों को सम्प्रदाय कहते है। सम्प्रदाय हिंदू, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम आदि धर्मों में मौजूद है। सम्प्रदाय के अन्तर्गत गुरु-शिष्य परम्परा चलती है जो गुरु द्वारा प्रतिपादित परम्परा को पुष्ट करती है।


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वेद क्या है?

वेद, प्राचीन भारत के पवित्र साहित्य हैं जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं। वेद, विश्व के सबसे प्राचीन साहित्य भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के, मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं।

'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् ज्ञाने धातु से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान' है। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं।

आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है -

1- ऋग्वेद - सबसे प्राचीन तथा प्रथम वेद जिसमें मन्त्रों की संख्या 10527 है। ऐसा भी माना जाता है कि इस वेद में सभी मंत्रों के अक्षरों की संख्या 432000 है। इसका मूल विषय ज्ञान है। विभिन्न देवताओं का वर्णन है तथा ईश्वर की स्तुति आदि।
2- यजुर्वेद - इसमें कार्य (क्रिया) व यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये 1975 गद्यात्मक मन्त्र हैं।
3- सामवेद - इस वेद का प्रमुख विषय उपासना है। संगीत में गाने के लिये 1875 संगीतमय मंत्र।
4- अथर्ववेद - इसमें गुण, धर्म, आरोग्य, एवं यज्ञ के लिये 5977 कवितामयी मन्त्र हैं। ऐतिहासिक रूप से ब्रह्मा, उनके मरीचि, अत्रि आदि सात और पौत्र कश्यप और अन्य यथा जैमिनी, पतंजलि, मनु, वात्स्यायन, कपिल, कणाद आदि मुनियों को वेदों का अच्छा ज्ञान था।

यूनेस्को ने 7 नवम्बर 2003 को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृतियाँ और मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया।

 वेदों के विषय उनकी व्याख्या पर निर्भर करते हैं - अग्नि, यज्ञ, सूर्य, इंद्र (आत्मा तथा बिजली के अर्थ में), सोम, ब्रह्म, मन-आत्मा, जगत्-उत्पत्ति, पदार्थों के गुण, धर्म (उचित-अनुचित), दाम्पत्य, ध्यान-योग, प्राण (श्वास की शक्ति) जैसे विषय इसमें बारंबार आते हैं। यज्ञ में देवता, द्रव्य, उद्देश्य,और विधि आदि विनियुक्त होते हैं।

 ग्रंथों के हिसाब से इनका विवरण इस प्रकार है: -

ऋग्वेद- ऋग्वेद को चारों वेदों में सबसे प्राचीन माना जाता है। इसको दो प्रकार से बाँटा गया है। प्रथम प्रकार में इसे 10 मण्डलों में विभाजित किया गया है। मण्डलों को सूक्तों में, सूक्त में कुछ ऋचाएं होती हैं। कुल ऋचाएं 10627 हैं। दूसरे प्रकार से ऋग्वेद में 64 अध्याय हैं। आठ-आठ अध्यायों को मिलाकर एक अष्टक बनाया गया है। ऐसे कुल आठ अष्टक हैं। फिर प्रत्येक अध्याय को वर्गों में विभाजित किया गया है। वर्गों की संख्या भिन्न-भिन्न अध्यायों में भिन्न भिन्न ही है। कुल वर्ग संख्या 2024 है। प्रत्येक वर्ग में कुछ मंत्र होते हैं। सृष्टि के अनेक रहस्यों का इनमें उद्घाटन किया गया है। पहले इसकी 21 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में इसकी शाकल शाखा का ही प्रचार है।

यजुर्वेद- इसमें गद्य और पद्य दोनों ही हैं। इसमें यज्ञ कर्म की प्रधानता है। प्राचीन काल में इसकी 101 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में केवल पांच शाखाएं हैं - काठक, कपिष्ठल, मैत्रायणी, तैत्तिरीय, वाजसनेयी। इस वेद के दो भेद हैं - कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद का संकलन महर्षि वेद व्यास ने किया है। इसका दूसरा नाम तैत्तिरीय संहिता भी है। इसमें मंत्र और ब्राह्मण भाग मिश्रित हैं। शुक्ल यजुर्वेद - इसे सूर्य ने याज्ञवल्क्य को उपदेश के रूप में दिया था। इसमें 15 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में माध्यन्दिन को जिसे वाजसनेयी भी कहते हैं प्राप्त हैं। इसमें 40 अध्याय, 303 अनुवाक एवं 1975 मंत्र हैं। अन्तिम चालीसवां अध्याय ईशावास्योपनिषद है।

सामवेद- यह गेय ग्रन्थ है। इसमें गान विद्या का भण्डार है, यह भारतीय संगीत का मूल है। ऋचाओं के गायन को ही साम कहते हैं। इसकी 1001 शाखाएं थीं। परन्तु आजकल तीन ही प्रचलित हैं - कोथुमीय, जैमिनीय और राणायनीय। इसको पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक में बांटा गया है। पूर्वार्चिक में चार काण्ड हैं - आग्नेय काण्ड, ऐन्द्र काण्ड, पवमान काण्ड और आरण्य काण्ड। चारों काण्डों में कुल 640 मंत्र हैं। फिर महानाम्न्यार्चिक के 10 मंत्र हैं। इस प्रकार पूर्वार्चिक में कुल 650 मंत्र हैं। छः प्रपाठक हैं। उत्तरार्चिक को 21 अध्यायों में बांटा गया। नौ प्रपाठक हैं। इसमें कुल 1225 मंत्र हैं। इस प्रकार सामवेद में कुल 1875 मंत्र हैं। इसमें अधिकतर मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं। इसे उपासना का प्रवर्तक भी कहा जा सकता है।

अथर्ववेद- इसमें गणित, विज्ञान, आयुर्वेद, समाज शास्त्र, कृषि विज्ञान, आदि अनेक विषय वर्णित हैं। कुछ लोग इसमें मंत्र-तंत्र भी खोजते हैं। यह वेद जहां ब्रह्म ज्ञान का उपदेश करता है, वहीं मोक्ष का उपाय भी बताता है। इसे ब्रह्म वेद भी कहते हैं। इसमें मुख्य रूप में अथर्वण और आंगिरस ऋषियों के मंत्र होने के कारण अथर्व आंगिरस भी कहते हैं। यह 20 काण्डों में विभक्त है। प्रत्येक काण्ड में कई-कई सूत्र हैं और सूत्रों में मंत्र हैं। इस वेद में कुल 5977 मंत्र हैं। इसकी आजकल दो शाखाएं शौणिक एवं पिप्पलाद ही उपलब्ध हैं। अथर्ववेद का विद्वान् चारों वेदों का ज्ञाता होता है। यज्ञ में ऋग्वेद का होता देवों का आह्नान करता है, सामवेद का उद्गाता सामगान करता है, यजुर्वेद का अध्वर्यु देव:कोटीकर्म का वितान करता है तथा अथर्ववेद का ब्रह्म पूरे यज्ञ कर्म पर नियंत्रण रखता है।

उपवेद, उपांग:- प्रतिपदसूत्र, अनुपद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), धर्मशास्त्र, न्याय तथा वैशेषिक- ये ६ दर्शऩ उपांग ग्रन्थ भी उपलब्ध है। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद- ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाये हैं।
स्थापत्यवेद - स्थापत्यकला के विषय, जिसे वास्तु शास्त्र या वास्तुकला भी कहा जाता है, इसके अन्तर्गत आता है।
धनुर्वेद - युद्ध कला का विवरण। 
गन्धर्वेद - गायन कला।
आयुर्वेद - वैदिक ज्ञान पर आधारित स्वास्थ्य विज्ञान।

साभार:- ब्राह्मण ओमन सौभरि, Mathura

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पुराण क्या है?

पुराण, हिन्दुओं के धर्म-सम्बन्धी आख्यान ग्रन्थ हैं, जिनमें संसार - ऋषियों - राजाओं के वृत्तान्त आदि हैं। ये वैदिक काल के बहुत समय बाद के ग्रन्थ हैं, जो स्मृति विभाग में आते हैं। भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण प्राचीन भक्ति-ग्रन्थों के रूप में बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की गाथाएँ कही गयी हैं। कुछ पुराणों में सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक का विवरण दिया गया है।

पुराण' का शाब्दिक अर्थ है, 'प्राचीन' या 'पुराना'। पुराणों की रचना मुख्यतः संस्कृत में हुई है, किन्तु कुछ पुराण क्षेत्रीय भाषाओं में भी रचे गए हैं। हिन्दू और जैन दोनों ही धर्मों के वाङ्मय में पुराण मिलते हैं। 

पुराणों में वर्णित विषयों की कोई सीमा नहीं है। इसमें ब्रह्माण्डविद्या, देवी-देवताओं, राजाओं, नायकों, ऋषि-मुनियों की वंशावली, लोककथाएँ, तीर्थयात्रा, मन्दिर, चिकित्सा, खगोल शास्त्र, व्याकरण, खनिज विज्ञान, हास्य, प्रेमकथाओं के साथ-साथ धर्मशास्त्र और दर्शन का भी वर्णन है।  विभिन्न पुराणों की विषय-वस्तु में बहुत अधिक असमानता है। 

अष्टादश पुराण-
पुराणों की संख्या प्राचीन काल से अठारह मानी गयी है। पुराणों में एक विचित्रता यह है कि प्रायः प्रत्येक पुराण में अठारहों पुराणों के नाम और उनकी श्लोक-संख्या का उल्लेख है। देवीभागवत में नाम के आरंभिक अक्षर के निर्देशानुसार १८ पुराणों की गणना इस प्रकार की गयी हैं:-

​​मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम्।
​​अनापलिंगकूस्कानि पुराणानि पृथक्पृथक् ॥
म-२, भ-२, ब्र-३, व-४। ​
अ-१,ना-१, प-१, लिं-१, ग-१, कू-१, स्क-१ ॥

'विष्णुपुराण' के अनुसार अठारह पुराणों के नाम इस प्रकार हैं—ब्रह्म, पद्म, विष्णु, शैव (वायु), भागवत, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लिङ्ग, वाराह, स्कन्द, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड और ब्रह्माण्ड। क्रमपूर्वक नाम-गणना के उपरान्त श्रीविष्णुपुराण में इनके लिए स्पष्टतः 'महापुराण' शब्द का भी प्रयोग किया गया है।

बहुमत से अठारह पुराणों के नाम इस प्रकार हैं:-

ब्रह्म पुराण
पद्म पुराण
विष्णु पुराण -- (उत्तर भाग - विष्णुधर्मोत्तर)
वायु पुराण -- (भिन्न मत से - शिव पुराण)
भागवत पुराण -- (भिन्न मत से - देवीभागवत पुराण)
नारद पुराण
मार्कण्डेय पुराण
अग्नि पुराण
भविष्य पुराण
ब्रह्मवैवर्त पुराण
लिङ्ग पुराण
वाराह पुराण
स्कन्द पुराण
वामन पुराण
कूर्म पुराण
मत्स्य पुराण
गरुड पुराण
ब्रह्माण्ड पुराण

:- ओमन सौभरि भुर्रक, भरनाकलां

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उपनिषद् क्या है?

उपनिषद् शब्द का साधारण अर्थ है - ‘समीप उपवेशन’ या 'समीप बैठना (ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना)। यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से निष्पन्न हुआ है। सद् धातु के तीन अर्थ हैं : विवरण-नाश होना; गति-पाना या जानना तथा अवसादन-शिथिल होना। उपनिषद् में ऋषि और शिष्य के बीच बहुत सुन्दर और गूढ संवाद है जो पाठक को वेद के मर्म तक पहुंचाता है।


उपनिषद् हिन्दू धर्म के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ हैं। ये वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं। ये संस्कृत में लिखे गये हैं। इनकी संख्या लगभग 108 है, किन्तु मुख्य उपनिषद 13 हैं। हर एक उपनिषद किसी न किसी वेद से जुड़ा हुआ है। इनमें परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन दिया गया है। उपनिषदों के तत्त्वज्ञान और कर्तव्यशास्त्र का प्रभाव भारतीय दर्शन के अतिरिक्त धर्म और संस्कृति पर भी परिलक्षित होता है। उपनिषदों का महत्त्व उनकी रोचक प्रतिपादन शैली के कारण भी है। कर्इ सुन्दर आख्यान और रूपक, उपनिषदों में मिलते हैं। उपनिषद् भारतीय सभ्यता की अमूल्य धरोहर है। 
डॉ॰ ड्यूसेन, डॉ॰ बेल्वेकर तथा रानडे ने उपनिषदों का विभाजन प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से इस प्रकार किया है:-

1- गद्यात्मक उपनिषद्
१. ऐतरेय, २. केन, ३. छान्दोग्य, ४. तैत्तिरीय, ५. बृहदारण्यक तथा ६. कौषीतकि;
इनका गद्य ब्राह्मणों के गद्य के समान सरल, लघुकाय तथा प्राचीन है।

2- पद्यात्मक उपनिषद्
1.ईश, 2.कठ, 3. श्वेताश्वतर तथा नारायण
इनका पद्य वैदिक मंत्रों के अनुरूप सरल, प्राचीन तथा सुबोध है।

3अवान्तर गद्योपनिषद्
  1.प्रश्न, 2.मैत्री (मैत्रायणी) तथा 3.माण्डूक्य

4.आथर्वण (अर्थात् कर्मकाण्डी) उपनिषद्

उपनिषदों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जाता है-

1:- ऋग्वेदीय - 10 उपनिषद्
2:- शुक्ल यजुर्वेदीय - 19 उपनिषद्
3:-  कृष्ण यजुर्वेदीय - 32 उपनिषद्
4:- सामवेदीय - 16 उपनिषद्
5:- अथर्ववेदीय -31 उपनिषद्
कुल -108 उपनिषद्


साभार:- ओमन सौभरि भुरर्क, भरनाकलां, मथुरा

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