Thursday, 16 January 2020

ब्रह्मर्षि सौभरि जी ने राजा मान्धाता को यमुना मैया के 1000 नाम ' यमुना कवच ' इस प्रकार बताये ।






यमुना कवच:- सौभरि उवाच:

यमुनायाश्च कवचं सर्वक्षाकरं नृणाम् । 
चतुष्पदार्थदं साक्षाच्छृणु राजन् महामते ॥१॥
कृष्णां चतुर्भुजां पुण्डरीकदलेक्षणाम् । 
रथस्थां सुन्दरीं ध्यात्वा धारयेत कवचं तत: ॥२॥

भावार्थ:-  महर्षि सौभरि बोले –हे नरेश ! यमुना जी का कवच मनुष्यों की सब प्रकार से सक्षा करने वाला तथा साक्षात् चारों पदार्थों को देनेवाला है, तुम इसे सुनो – यमुनाजी के चार भुजाएँ है । वे श्यामा (श्यामवर्णा एवं षोडश वर्षकी अवस्था से युक्त) है । उनके नेत्र प्रफल्ल कमलदल के समान सुन्दर एवं विशाल है । वे परम सुन्दर है और दिव्य रथपर बैठी हुई हैं । उनका ध्यान करके कवच धारण करे, स्नान करके पूर्वाभिमुख हो मौनभाव से कुशासन पर बैठे और कुशों द्वारा शिखा बाँधकर संध्या-वन्दन करने के अनन्तर ब्रह्मण (अथवा द्विजमात्र) स्वस्तिकासन से स्थित हे कवच का पाठ करे ।

कवच-
स्नात: पूर्वमुखो मौनी कृतसंध्य: कुशासने । 
कुशैर्बद्धशिखो विप्र: पठेद् वै स्वस्तिकासन:॥३॥
यमुना मे शिर: पातु कृष्णा नेत्रद्वयं सदा । 
श्यामा भ्रूभङ्गदेशं च नासिकां नाकवासिनी ॥४॥
कपोलौ पातु मे साक्षात् परमानन्दरूपिणी । कृष्णवामांससम्भूता पातु कर्णद्वयं मम ॥५॥
अधरौ पातु कालिन्दी चिबुकं सूर्यकन्यका । 
यमस्वसा कन्धरां च हृदयं मे महानदी ॥६॥
कृष्णप्रिया पातु पृष्ठं तटिनी मे भुजद्वयम् । 
श्रोंणीतटं च सुश्रोणी कटिं मे चारुदर्शना ॥७॥
ऊरुद्वयं तु रम्भोरूर्जानुनी त्वङ्घ्रिभेदिनी । 
गुल्फौ रासेश्वरी पातु पादौ पापापहारिणी ॥८॥
अन्तर्बहिरधश्चोर्ध्वं दिशासु विदिशासु च ।
 समन्तात् पातु जगत: परिपूर्णतमप्रिया ॥९॥

भावार्थ:- यमुना मेरे मस्तक की रक्षा करे और कृष्णा सदा दानों नेत्रों की । श्यामा भ्रूभंग-देश की और नाकवासिनी नासिका की रक्षा करें । साक्षात् परमानन्दरूपिणी मेरे दोनों कपोलों की रक्षा करें । कृष्णवामांससम्भूता (श्रीकृष्णके बायें कंधे से प्रकट हुई वे देवी) मेरे दोनों कानों का संरक्षण करें । कालिन्दी अधरों की और सूर्यकन्या चिबुक (ठोढी) की रक्षा करें । यमस्वसा (यमराज की बहिन) मेरी ग्रीवा की और महानदी मेरे हृदयकी रक्षा करें । कृष्णप्रिया पृष्ठ –भागका और तटिनी मेरी दोनों भुजाओंका रक्षण करें । सुश्रोणी श्रोणीतट (नितम्ब) की और चारुदर्शना मरे कटिप्रदेश की रक्षा करें । रम्भरू दोनों ऊरुओं (जाँघो) की और अङ्घ्रिभेदिनी मेरे दोनों घुटनों की रक्षा करें । रासेश्वरी गुल्फों (घट्ठयों) का और पापापहारिणी पादयुगलका त्राण करें । परिपूर्णतमप्रिया भीतर-बहार, नीचे-ऊपर तथा दिशाओं और विदिशाओं में सब ओर से मेरी रक्षा करें ॥

फलश्रुति:-
इदं श्रीयमुनायाश्च कवचं पामाद्भुतम् ।
 दशवारं पठेद् भक्त्या निर्धनो धनवान् भवेर् ॥१०॥
त्रिभिर्मासै: पठेद् धिमान् ब्रमाचारी मिताशन: । सर्वराज्याधिपत्यत्वं प्राप्यते नात्र संशय: ॥११॥
दशोत्तशतं नित्यं त्रिमासावधि भक्तित: । 
य: पठेत् प्रयतो भूत्वा तस्य किं किं न जायते ॥१२॥
य: पठेत् प्रातरुत्थाय सर्वतीर्थफलं लभेत् । 
अन्ते व्रजेत् परं धाम गोलोकं योगिदुर्भम् ॥१३॥

भावार्थ:- यह श्रीयमुना का परम अद्भुत कवच है । जो भक्तिभाव से दस इसका पाठ करता है, वह निर्धन भी धनवान् हो जाता है । जो बुद्धिमान् मनुष्य ब्रह्मचर्य के पालनपूर्वक परिमित आहार का सेवन करते हुए तीन मास तक इसका पाठ करेगा, बह सम्पूर्ण राज्यों का आधिपत्य प्राप्त कंर लेगा, इसमें संशय नहीं है । जो तीन महीन की अवधि तक प्रतिदिन भक्तिभाव से शुद्धचित्त हो इसका एक सौ दस बार पाठ करगा, उसको क्या-क्या नहीं मिल जायगा ? जो प्रात:काल उठकर इसका पाठ करेगा, उसे सम्पूर्ण तीर्थो में स्नान का फल मिल जायगा तथा अन्त में वह योगिदुर्लभ परमधाम गोलोक में चला जायगा ॥ 

(गर्गसंहिता, माधुर्य खण्ड, १६। १२-१४)

"इति श्रीगर्गसंहिता माधुर्यखण्डे श्रीसौभरि-मांधाता संवादे यमुना कवचम् सम्पूर्णम्"
(श्रीगर्गसंहिता में माधुर्यखण्ड के अन्तर्गत श्री सौभरि-मांधाताके संवाद में यमुना कवच )। 




ओमन सौभरि भुर्रक, भरनाकलां, मथुरा

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