Sunday, 30 July 2023

भारतीय षडदर्शनों को जानिए

विज्ञान और जन सामान्य के जीवन को बेहतर बनाने के लिए शास्त्र लिखे गए तो विज्ञान और गणित के गूढ़तम रहस्यों के जवाब देने के लिए भी शास्त्र लिखे गए। वैदिक ज्ञान की अद्वितीय पुस्तक भगवद्गीता के ज्ञान का आधार वेद, उपनिषद और दर्शन शास्त्र ही है। भगवद्गीता गीता २-३९ और १३-४ मेंश्री कृष्ण कहा है कि :

एषा तेSभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रुणु।

बुद्धया युक्तो यथा पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।

अर्थ- हे अर्जुन! यह बुध्दि(ज्ञान) जो सांख्य के अनुसार मैंने तुझे कही है, अब यही बुध्दि मैं तुझे योग के अनुसार कहू¡गा, जिसके ज्ञान से तू कर्म-बन्धन को नष्ट कर सकेगा।

स्पष्टतः यदि हिंदू दर्शन शास्त्रों, खास तौर पर इन षड्दर्शनों का अध्ययन कर लिया जाए तो समस्त ज्ञान विज्ञान का सार हमें इसमें मिल जाएगा। वेद ज्ञान को समझने व समझाने के लिए दो प्रयास हुए:

1. ब्राह्यण और उपनिषदादि ग्रन्थ।

2. दर्शनशास्त्र

ब्राह्यण और उपनिषदादि ग्रन्थों में अपने-अपने विषय के आप्त ज्ञाताओं द्वारा अपने शिष्यों, श्रद्धावान व जिज्ञासु लोगों को मूल वैदिक ज्ञान सरल भाषा में विस्तार से समझाया है। 

▪️इसी तरह वेद ज्ञान को तर्क से समझाने के लिए छइ दर्शन शास्त्र लिखे गये। सभी दर्शन मूल वेद ज्ञान को तर्क से सिद्ध करते है। प्रत्येक दर्शन शास्त्र का अपना-अपना विषय है। प्रत्येक दर्शन अपने लिखने का उद्देश्य अपने प्रथम सूत्र में ही लिख तथा अन्त में अपने उद्देश्य की पूर्ति का सूत्र देता है।

सृष्टि की रचना क्यों और किसलिए हुई? भारतीय दर्शन इस प्रश्न का जवाब बहुत पहले दे चुका है । इसके अलावा चार्वाक दर्शन, बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन जैसे अनेक दर्शन कालांतर में लोकप्रिय हुए, लेकिन ये सभी इन छः दर्शनों के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। यही वजह है कि आज भी दर्शन शास्त्र का मूल स्त्रोत यही छः दर्शन माने जाते हैं। 

दरअसल, ये सभी आस्तिक दर्शन कहे जाते हैं यानी ईश्वरवादी दर्शन। हिंदू परंपरा का मूल ही ईश्वर विश्वास है। इसके बावजूद अनीश्वरवादी और भौतिकवादी दर्शनों को भी भारतीय परंपरा में स्थान मिला। यहीं सनातन परंपरा सबसे वैज्ञानक परंपरा सिध्द होती है। यहां किसी का निषेध नहीं है, लेकिन तर्क-वितर्क और उच्चतम सत्य की ही स्वीकार्यता अवश्य है। 


भारत में प्रचलित ये छः दर्शन इस प्रकार हैं- 

सांख्य दर्शन 

योग दर्शन 

न्याय दर्शन 

वैशेषिक दर्शन 

मीमांसा दर्शन 

वेदान्त दर्शन


१ सांख्य दर्शन:- इस दर्शन को सबसे अधिक सम्मान प्राप्त रहा क्योंकि ये सबसे गूढ़ प्रश्न का उत्तर देने में सक्षम रहा। प्रकृति-पुरुष का संबंध, कार्य-कारण का सिद्धांत, मनुष्य को मिलने वाले त्रितापों आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक के कारण और निवारण। ये बहुत ही वैज्ञानिक दर्शन है। महर्षि कपिल ने इसकी रचना की थी। बौध्द धर्म का मूल भी यही दर्शन है। 

सांख्य दर्शन प्रकृति से सृष्टि रचना और संहार के क्रम को विशेष रूप से मानता है। साथ ही इसमें प्रकृति के परम सूक्ष्म कारण तथा उसके सहित 24 कार्य पदाथों का स्पष्ट वर्णन किया गया है। पुरुष 25वां तत्व माना गया है, जो प्रकृति का विकार नहीं है। इस प्रकार प्रकृति समस्त कार्य पदार्थों का कारण तो है, परंतु प्रकृति का कारण कोई नहीं है, क्योंकि उसकी शाश्वत सत्ता है। पुरुष चेतन तत्व है, तो प्रकृति अचेतन। पुरुष प्रकृति का भोक्ता है, जबकि प्रकृति स्वयं नहीं है।

२ योग दर्शन - योग दर्शन व्यवहारिक पहलू है और सांख्य दर्शन थ्योरेटिकल पहलू। 

इसमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है। इसके अलावा योग क्या है, जीव के बंधन का कारण क्या है? चित्त की वृत्तियां कौन सी हैं? इसके नियंत्रण के क्या उपाय हैं इत्यादि यौगिक क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है। यह दर्शन चार पदों में विभक्त है जिनके सम्पूर्ण सूत्र संख्या १९४ है। ये चार पद है: समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद और कैवल्यपाद।

योग दर्शन के प्रथम दो सूत्र है।

अथ योगानुशासनम् ।। १ ।।

अर्थात योग की शिक्षा देना इस समस्त शास्त्र का प्रतिपाद्य विषय समझना चाहिए।

योगश्चित्तवृत्ति निरोध: ।। २ ।।

अर्थात् चित्त या मन की स्मरणात्मक शक्ति की वृत्तियों को सब बुराई से दूर कर, शुभ गुणो में स्थिर करके, पश्रमेश्वर के समीप अनुभव करते हुए मोक्ष प्राप्त करने के प्रयास को योग कहा जाता है।

अष्टांग योग: क्लेशों से मुक्ति पाने व चित्त को समहित करने के लिए योग के ८ अंगों का अभ्यास आवश्यक है। इस अभ्यास की अवधि ८ भागों में विभक्त है- १. यम, २. नियम, ३. शासन, ४. प्राणायाम, ५. प्रत्याहार, ६. धारणा, ७. ध्यान और ८. समाधि

३ न्याय दर्शन - इस दर्शन में पदार्थों के तत्वज्ञान से मोक्ष प्राप्ति का वर्णन है। पदार्थों के तत्वज्ञान से मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति होती है। फिर अशुभ कर्मो में प्रवृत्त न होना, मोह से मुक्ति एवं दुखों से निवृत्ति होती है। इसमें परमात्मा को सृष्टिकर्ता, निराकार, सर्वव्यापक और जीवात्मा को शरीर से अलग एवं प्रकृति को अचेतन तथा सृष्टि का उपादान कारण माना गया है और स्पष्ट रूप से त्रैतवाद का प्रतिपादन किया गया है। न्याय वह साधन है जिसकी सहायता से किसी प्रतिपाद्य विषय की सिद्ध या किसी सिद्धान्त का निराकरण होता है-

नीयते प्राप्यते विविक्षितार्थ सिद्धिरनेन इति न्याय:।।

अत: न्यायदर्शन में अन्वेषण अर्थात् जाँच-पड़ताल के उपायों का वर्णन किया गया है।

इस ग्रन्थ में पांच अध्याय है तथा प्रत्येक अध्याय में दो दो आह्रिक हैं। कुल सूत्रों की संख्या ५३९ हैं। सत्य की खोज के लिए सोलह तत्व है। उन तत्वों के द्वारा किसी भी पदार्थ की सत्यता (वास्तविकता) का पता किया जा सकता है। 

ये सोलह तत्व है-

(१) प्रमाण, (२) प्रमेय, (३)संशय, (४) प्रयोजन, (५) दृष्टान्त, (६) सिद्धान्त, (७)अवयव, (८) तर्क (९) निर्णय, (१०) वाद, (११) जल्प, (१२) वितण्डा, (१३) हेत्वाभास, (१४) छल, (१५) जाति और (१६) निग्रहस्थान

इन सबका वर्णन न्याय दर्शन में है और इस प्रकार इस दर्शन शास्त्रको तर्क करने का व्याकरण कह सकते हैं। वेदार्थ जानने में तर्क का विशेष महत्व है। अत: यहदर्शन शास्त्र वेदार्थ करने में सहायक है।

दर्शनशास्त्र में कहा है-

तत्त्वज्ञानान्नि: श्रेयसाधिगम:।।

अर्थात्- इन सोलह तत्वों के ज्ञान से निश्रेयस् की प्राप्ति होती है।(सत्य की खोज में सफलता प्राप्ति होती है)।

न्याय दर्शन के चार विभाग-

१. सामान्य ज्ञान की समस्या का निराकरण

२. जगत की समस्या का निराकरण

३. जीवात्मा की मुक्ति

४. परमात्मा का ज्ञान

४ वैशेषिक दर्शन - इसमें धर्म के अनुष्ठान पर जोर दिया गया है और ये धर्म छः प्रमुख पदार्थों से मिलकर बना है। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय। यह दर्शन भी परमात्मा को सर्वोच्च सत्ता मानता है और मनुष्य और परमात्मा दोनों के चैतन्य होने के बावजूद परमात्मा के श्रेष्ठ होने के प्रश्न पर भी महत्वपूर्ण जानकारी देता है। इसमें प्रकृति व पुरुष के हमारे जीवन में उपस्थिति का उल्लेख किया गया है। जिसमें व्यक्ति का तीनों गुणों का समावेश है (सत्व, रजस, तमस) सांख्य दर्शन के अनुसार सृष्टि का निर्माण प्रकृति व पुरुष से हुआ है।


५- मीमांसा दर्शन (पूर्व) :- परिवार की व्यवस्था क्या होनी चाहिए और राष्ट्र के प्रति हमारे क्या कर्तव्य हैं जैसे महत्वपूर्ण सिध्दांतों का प्रतिपादन ये महान दर्शन करता है। 

इस दर्शन में वैदिक यज्ञों में मंत्रों का विनियोग तथा यज्ञों की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है। ये दर्शन समझना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि राष्ट्र की उन्नति के लिए पुरातन ज्ञान कितना महत्वपूर्ण है इस बात के प्रमाण इससे हमें मिलते हैं। वैदिक अनुष्ठान और मंत्रों की परंपरा को आगे बढ़ाने पर इसीलिए जोर दिया गया है। राष्ट्र की उन्नति के परम ध्येय के लिए ये दर्शन वैदिक परंपरा को आगे बढ़ाए जाने का प्रतिपादन करता है। जिस प्रकार संपूर्ण कर्मकांड मंत्रों के विनियोग पर आधारित हैं, उसी प्रकार मीमांसा दर्शन भी मंत्रो के विनियोग और उसके विधान का समर्थन करता है। धर्म के लिए महर्षि जैमिनि ने वेद को भी परम प्रमाण माना है। उनके अनुसार यज्ञों में मंत्रों के विनियोग, श्रुति, वाक्य, प्रकरण, स्थान एवं समाख्या को मौलिक आधार माना जाता है। ये दर्शन ब्रह्म और जीव के भेद को स्पष्ट करता है। 

 ६ वेदांत (उत्तर मीमांसा):- पहली जिज्ञासा कर्म धर्म की जिज्ञासा थी और दूसरी जिज्ञासा जगत् का मूल कारण जानने ज्ञान की थी। इस दूसरी जिज्ञासा का उत्तर ही ब्रह्यसूत्र अर्थात् उत्तर मीमांसा है। चूँकि यह दर्शन वेद के परम ओर अन्तिम तात्पर्य का दिग्दर्शन कराता है, इसलिए इसे वेदान्त दर्शन के नाम से ही जाना जाता हैं । व्यास रचित ब्रह्मसूत्र को वेदान्त दर्शन का मूल ग्रंथ माना जाता है। उत्तर मीमांसा के नाम से भी इसी दर्शन को जाना जाता है। इस दर्शन में ब्रह्म को जगत का कर्ता-धर्ता व संहारकर्ता माना जाता है। ब्रह्म ही जगत के निमित्त का कारण है। ब्रह्म सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, आनंदमय, नित्य, अनादि, अनंतादि गुण विशिष्ट शाश्वत सत्ता है। साथ ही जन्म मरण आदि क्लेशों से रहित और निराकार भी है।

वेदस्य अन्त: अन्तिमो भाग ति वेदान्त:।

यह वेद के अन्तिम ध्येय ओर कार्य क्षेत्र की शिक्षा देता है। इस दर्शन में चार अध्याय, प्रत्येक अध्याय में चार-चार पाद (कुल १६ पाद) और सूत्रों की संख्या ५५५ है।


साभार-  ओमन सौभरि भुरर्क, भरनाकलां, मथुरा

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Sunday, 23 July 2023

हिंदू धर्म में उपवास और व्रत करने के कुछ विशेष नियम:-

 हिंदू धर्म में उपवास का विशेष महत्व है। आस्था और शास्त्रों के अनुसार, व्यक्ति सप्ताह के दिन, तिथि या फिर त्योहार के अनुसार व्रत रखता है। कई लोग मन्नत के अनुसार भी व्रत रखते हैं। दिनभर बिना अन्न ग्रहण किए, तो कई बिना जल ग्रहण किए व्रत रखते हैं। हर कोई अपनी आस्था के अनुसार व्रत रखता है। माना जाता है कि व्रत तप के समान होता है। जिसमें व्यक्ति को अन्न त्यागने के साथ-साथ कई चीजों का मोह त्यागना पड़ता है, जिससे दृढ़ शक्ति जाग्रत होती है। शास्त्रों के अनुसार, व्रत करते समय कुछ नियमों का जरूर पालन करना चाहिए, वरना पूजा का पूरा फल प्राप्त नहीं होता है।



हिंदू धर्म में सनातन काल से हैं भगवान की पूजा आराधना उन्हें प्रसन्न और अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए किया जाता हैं। ऐसी मान्यता हैं, कि व्रत के प्रभाव से भगवान जल्द प्रसन्न होकर व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं शीघ्र पूर्ण कर देते हैं। व्रत करने से व्यक्ति का चित्त बेहद पवित्र होता है। व्रत हमें मानसिक और आत्मिक शक्ति प्रदान करता हैं। हिंदू शास्त्र के अनुसार विधि-विधान से यदि व्रत को किया जाए, तो वह तप के समान हो जाता हैं। भारत में व्रत को सांस्कृतिक धरोहर माना जाता है ।

हिंदू धर्म में उपवास करने के खास नियम:-

1. सही समय पर लें व्रत का संकल्प

हिंदू धर्म के अनुसार व्रत का संकल्प हमेशा शुभ मुहूर्त या ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करने के बाद ही लें। यह समय बहुत ही शुभ माना जाता है।

2. उपवास से जुड़े नियमों का करें सही से पालन

व्रत रखने वाले व्यक्ति को हमेशा व्रत से जुड़े नियमों का पालन करना चाहिए। बच्चे, बुजुर्ग, गर्भवती महिलाओं या बीमार लोगों के लिए ही इन नियमों में छूट दी गई हैं।

3. नियमों के अनुसार करें पूजा 

यदि व्रत कर रहे है, तो आप उस दिन प्रातः काल स्नान करके घर और पूजा स्थल की अच्छे से सफाई करें। पूजा की सभी सामग्री और भगवान की मूर्ति पर पूजा स्थल पर स्थापित करके ही उनकी पूजा करें। पूजा हमेशा विधि विधान एंव मंत्रों के साथ करें। 

4. भूल कर ना पहनें कपड़ा

व्रत के दिन सुबह जल्दी स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें। उस दिन भूलकर भी काला कपड़ा ना पहनें। हिंदू धर्म में काला कपड़ा अशुभ माना जाता है।

5. उपवास के दौरान ब्रह्मचर्य का करें पालन

उपवास के दौरान ब्रह्मचर्य का पालन करें। ऐसा करने से व्रत में सफलता मिलती है। धर्म के अनुसार ब्रह्मचर्य का पालन करने से जातक का मन शांत रहता है। उपवास करने के दिन भूलकर भी क्रोध ना करें। इस दिन अपने मन में किसी प्रकार का नकारात्मक विचार ना रखें।

 🕉️ व्रत रखने से संबंधित महत्वपूर्ण कुछ और बातें जिनका भी हमको बड़ी संजीदगी से ध्यान रखना चाहिए-

सर्वप्रथम इस बात का ध्यान रखें कि आपको जितने व्रत करने हैं उसका संकल्प अवश्य लें। संकल्प के बिना व्रत अधूरा माना जाता है।

• व्रत में तन के साथ मन का संयम रखना भी आवश्यक होता है। यदि व्रत किया है तो अपने मन में किसी भी वस्तु को देखकर उसे ग्रहण करने का भाव न लाएं।

• व्रत में हल्का सुपाच्य भोजन लेना चाहिए, और किसी भी तरह के तामसिक या गरिष्ठ भोजन से बचना चाहिए।

• व्रत का अर्थ होता है ईश्वर के प्रति कुछ समय समर्पित करना। इसलिए व्रत में केवल ईश्वर का स्मरण करें। उपवास के दौरान मन में किसी प्रकार के गलत विचार न लाएं, किसी की निंदा न करें।

• व्रत में क्रोध नहीं करना चाहिए, क्रोध में मुख से अपशब्द निकल सकते हैं, जिसके कारण आपका पूरा व्रत विफल हो सकता है।

• यदि आपने किसी मन्नत के लिए व्रत का संकल्प लिया है तो किसी ज्योतिष आदि से सलाह लेकर शुभ मुहूर्त में व्रत आरंभ करें।

• इसके अलावा माना जाता है कि स्त्रियों को रजस्वला होने पर व्रत नहीं करना चाहिए। उन दिनों की गिनती न करें और आगे आने वाले व्रत करें।

• यदि व्रत के बीच में सूतक (किसी की मृत्यु या जन्म होने के पश्चात का कुछ समय) पड़ जाएं तो पुनः व्रत आरंभ करने चाहिए।

• यदि आप व्रत करते हैं तो देवी-देवताओं के साथ ही अपने पूर्वजों का स्मरण भी करना चाहिए।

• व्रत पूर्ण हो जाने पर उद्यापन अवश्य करवाना चाहिए। बिना उद्यापन  कराए व्रत पूर्ण नहीं माने जाते हैं।



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साभार-  ओमन सौभरि भुरर्क, भरनाकलां, मथुरा

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Thursday, 20 July 2023

संक्षिप्त में हिंदू धर्म (सनातन धर्म) को जानिए

 




हिन्दू धर्म के सिद्धांत, संप्रदाय, अवतार तथा अन्य शब्दवलियों का परिचय:-

1. षष्ठ कर्म का सिद्धांत ( नित्य, नैमित्य, काम्य, निष्काम्य, संचित और निषिद्ध ) 

2. पंच ऋण का सिद्धांत ( देव, ऋषि, पितृ, अतिथि और जीव ऋण)

3. पुरुषार्थ का सिद्धांत ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष)

 4. आध्यात्मवाद का सिद्धांत

5. आत्मा की अमरता का सिद्धांत

6. ब्रह्मवाद का सिद्धांत

 7. आश्रम का सिद्धांत (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास)

8. मोक्ष मार्ग का सिद्धांत

 9. व्रत और संध्यावंदन का सिद्धांत

 10. अवतारवाद का सिद्धांत

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हिंदू धर्म के विभिन्न संप्रदाय:-

1. वैदिक :- श्रोत परंपरा, आर्य समाज, ब्रह्मसमाज आदि ।

2. शैव :- पाशुपत, आगमिक, रसेश्वर, महेश्वर, कश्मीरी शैव, वीर शैव, तमिल शैव, नंदीनाथ, कालदमन, कोल, लकुलीश, कापालिक, कालामुख, लिंगायत, अघोरपंथ, दशनामी, नाथ, निरंजनी संप्रदाय - नाथ संप्रदाय से संबंधित, शैव सिद्धांत संप्रदाय ( सिद्ध संप्रदाय), श्रौत शैव सिद्धांत संप्रदाय (शैवाद्वैत / शिव - विशिष्टाद्वैत ) आदि । )

3. शाक्त :- श्रीकुल, कालीकुल आदि- जो सभी देवियों के उपासक हैं ।

 4. वैष्णव :- भागवत, दत्तात्रेय संप्रदाय, सौर संप्रदाय, पांचरात्र मत, वैरागी, दास, रामानंद - रामावत संप्रदाय, वल्लभाचार्य का रुद्र या पुष्टिमार्ग, निम्बार्काचार्य का सनक संप्रदाय, आनंदतीर्थ का ब्रह्मा संप्रदाय, माध्व, राधावल्लभ, सखी, चैतन्य गौड़ीय, वैखानस संप्रदाय, रामसनेही संप्रदाय, कामड़िया पंथ, नामदेव का वारक संप्रदाय, पंचसखा संप्रदाय, अंकधारी, तेन्कलै, वडकले, प्रणामी संप्रदाय अथवा परिणामी संप्रदाय, दामोदरिया, निजानंद संप्रदाय- कृष्ण प्रणामी संप्रदाय, उद्धव संप्रदाय स्वामी नारायण, एक शरण समाज, श्री संप्रदाय, मणिपुरी वैष्णव, प्रार्थना समाज, रामानुज का श्रीवैष्णव, रामदास का परमार्थ आदि ।

5. स्मार्त :- जो स्मृति पर आधारित है । यह पंच दोवों के उपासक हैं । पंच देव अर्थात सूर्य, विष्णु दुर्गा, गणेश और शिव । गणपत्य संप्रदाय, कौमारम संप्रदाय आदि ।

6. संत :-  शुद्ध वैदिक संप्रदाय के अलावा गायत्री परिवार रामकृष्ण मिशन, धामी संप्रदाय, कबीरपंथ, दादूपंथ, रविदासपंथ, थियोसॉफिकल सोसाइटी, राधास्वामी सत्संग, जयगुरुदेव आदि सभी भी वैदिक परंपरा के ही वाहक हैं ।

7. तांत्रिक संप्रदाय :- दक्षिणाचार, वामाचार ( वाममार्ग), कौलाचार (कुलमार्ग), विद्यापीठ (वामतंत्र, यामलतंत्र, शक्तितंत्र ) वैष्णव - सहजिया, त्रिक संप्रदाय और दोनों शाक्त संप्रदाय तांत्रिक संप्रदायों में भी गिने जाते हैं ।

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सनातन धर्म ग्रंथ वेद:-

वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् ज्ञाने धातु से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान' है। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं।

वेदों में क्या है ?

वेदों में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, संस्कार, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है। वेद 4 हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्व वेद और अथर्ववेद का स्थापत्य वेद ये क्रमश: चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।

आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है -

1- ऋग्वेद - सबसे प्राचीन तथा प्रथम वेद जिसमें मन्त्रों की संख्या 10527 है। ऐसा भी माना जाता है कि इस वेद में सभी मंत्रों के अक्षरों की संख्या 432000 है। इसका मूल विषय ज्ञान है। विभिन्न देवताओं का वर्णन है तथा ईश्वर की स्तुति आदि।

2- यजुर्वेद - इसमें कार्य (क्रिया) व यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये 1975 गद्यात्मक मन्त्र हैं।

3- सामवेद - इस वेद का प्रमुख विषय उपासना है। संगीत में गाने के लिये 1875 संगीतमय मंत्र।

4- अथर्ववेद - इसमें गुण, धर्म, आरोग्य, एवं यज्ञ के लिये 5977 कवितामयी मन्त्र हैं। ऐतिहासिक रूप से ब्रह्मा, उनके मरीचि, अत्रि आदि सात और पौत्र कश्यप और अन्य यथा जैमिनी, पतंजलि, मनु, वात्स्यायन, कपिल, कणाद आदि मुनियों को वेदों का अच्छा ज्ञान था।

यूनेस्को ने 7 नवम्बर 2003 को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृतियाँ और मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया

 वेदों के विषय उनकी व्याख्या पर निर्भर करते हैं - अग्नि, यज्ञ, सूर्य, इंद्र (आत्मा तथा बिजली के अर्थ में), सोम, ब्रह्म, मन-आत्मा, जगत्-उत्पत्ति, पदार्थों के गुण, धर्म (उचित-अनुचित), दाम्पत्य, ध्यान-योग, प्राण (श्वास की शक्ति) जैसे विषय इसमें बारंबार आते हैं। यज्ञ में देवता, द्रव्य, उद्देश्य,और विधि आदि विनियुक्त होते हैं।


 वेदों में विषयों का विवरण इस प्रकार है: -

1- ऋग्वेद-  ऋक अर्थात स्थिति और ज्ञान। इसमें भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन के मंत्रों के साथ बहुत कुछ है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा आदि की भी जानकारी मिलती है।

ऋग्वेद को चारों वेदों में सबसे प्राचीन माना जाता है। इसको दो प्रकार से बाँटा गया है। प्रथम प्रकार में इसे 10 मण्डलों में विभाजित किया गया है। मण्डलों को सूक्तों में, सूक्त में कुछ ऋचाएं होती हैं। कुल ऋचाएं 10627 हैं। दूसरे प्रकार से ऋग्वेद में 64 अध्याय हैं। आठ-आठ अध्यायों को मिलाकर एक अष्टक बनाया गया है। ऐसे कुल आठ अष्टक हैं। फिर प्रत्येक अध्याय को वर्गों में विभाजित किया गया है। वर्गों की संख्या भिन्न-भिन्न अध्यायों में भिन्न भिन्न ही है। कुल वर्ग संख्या 2024 है। प्रत्येक वर्ग में कुछ मंत्र होते हैं। सृष्टि के अनेक रहस्यों का इनमें उद्घाटन किया गया है। पहले इसकी 21 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में इसकी शाकल शाखा का ही प्रचार है।

2- यजुर्वेद- यजु अर्थात गतिशील आकाश एवं कर्म । यजुर्वेद में यज्ञ की विधियां और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। तत्वज्ञान अर्थात रहस्यमयी ज्ञान। ब्रम्हांड, आत्मा, ईश्वर और पदार्थ का ज्ञान। इस वेद की 2 शाखाएं हैं- शुक्ल और कृष्ण ।

 इसमें गद्य और पद्य दोनों ही हैं। इसमें यज्ञ कर्म की प्रधानता है। प्राचीन काल में इसकी 101 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में केवल पांच शाखाएं हैं - काठक, कपिष्ठल, मैत्रायणी, तैत्तिरीय, वाजसनेयी। इस वेद के दो भेद हैं - कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुर्वेद। कृष्ण यजुर्वेद का संकलन महर्षि वेद व्यास ने किया है। इसका दूसरा नाम तैत्तिरीय संहिता भी है। इसमें मंत्र और ब्राह्मण भाग मिश्रित हैं। शुक्ल यजुर्वेद - इसे सूर्य ने याज्ञवल्क्य को उपदेश के रूप में दिया था। इसमें 15 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में माध्यन्दिन को जिसे वाजसनेयी भी कहते हैं प्राप्त हैं। इसमें 40 अध्याय, 303 अनुवाक एवं 1975 मंत्र हैं। अन्तिम चालीसवां अध्याय ईशावास्योपनिषद है।

3- सामवेद- सामवेद: साम का अर्थ रूपांतरण और संगीत । सौम्यता और उपासना। इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है। इसमें सविता, अग्नि और इन्द्र देव के बारे में जिक्र मिलता है। इसी से शास्त्रीय संगीत और नृत्य का जिक्र भी मिलता है। इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। इसमें संगीत के विज्ञान और मनोविज्ञान का वर्णन भी मिलता है।

 यह गेय ग्रन्थ है। इसमें गान विद्या का भण्डार है, यह भारतीय संगीत का मूल है। ऋचाओं के गायन को ही साम कहते हैं। इसकी 1001 शाखाएं थीं। परन्तु आजकल तीन ही प्रचलित हैं - कोथुमीय, जैमिनीय और राणायनीय। इसको पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक में बांटा गया है। पूर्वार्चिक में चार काण्ड हैं - आग्नेय काण्ड, ऐन्द्र काण्ड, पवमान काण्ड और आरण्य काण्ड। चारों काण्डों में कुल 640 मंत्र हैं। फिर महानाम्न्यार्चिक के 10 मंत्र हैं। इस प्रकार पूर्वार्चिक में कुल 650 मंत्र हैं। छः प्रपाठक हैं। उत्तरार्चिक को 21 अध्यायों में बांटा गया। नौ प्रपाठक हैं। इसमें कुल 1225 मंत्र हैं। इस प्रकार सामवेद में कुल 1875 मंत्र हैं। इसमें अधिकतर मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं। इसे उपासना का प्रवर्तक भी कहा जा सकता है।

4- अथर्ववेद- अथर्ववेद: थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन। इस वेद में रहस्यमयी विद्याओं, जड़ी-बूटियों, चमत्कार और आयुर्वेद आदि का जिक्र है। इसमें भारतीय परंपरा और ज्योतिष का ज्ञान भी मिलता है।

इसमें गणित, विज्ञान, आयुर्वेद, समाज शास्त्र, कृषि विज्ञान, आदि अनेक विषय वर्णित हैं। कुछ लोग इसमें मंत्र-तंत्र भी खोजते हैं। यह वेद जहां ब्रह्म ज्ञान का उपदेश करता है, वहीं मोक्ष का उपाय भी बताता है। इसे ब्रह्म वेद भी कहते हैं। इसमें मुख्य रूप में अथर्वण और आंगिरस ऋषियों के मंत्र होने के कारण अथर्व आंगिरस भी कहते हैं। यह 20 काण्डों में विभक्त है। प्रत्येक काण्ड में कई-कई सूत्र हैं और सूत्रों में मंत्र हैं। इस वेद में कुल 5977 मंत्र हैं। इसकी आजकल दो शाखाएं शौणिक एवं पिप्पलाद ही उपलब्ध हैं। अथर्ववेद का विद्वान् चारों वेदों का ज्ञाता होता है। यज्ञ में ऋग्वेद का होता देवों का आह्नान करता है, सामवेद का उद्गाता सामगान करता है, यजुर्वेद का अध्वर्यु देव:कोटीकर्म का वितान करता है तथा अथर्ववेद का ब्रह्म पूरे यज्ञ कर्म पर नियंत्रण रखता है।




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वेदों के मुख्य ब्राह्मण ग्रंथ 5 हैं-

ब्राह्मण ग्रंथों की संख्या 13 है, जैसे ऋग्वेद के 2, यजुर्वेद के 2, सामवेद के 8 और अथर्ववेद के 1।

 1. ऐतरेय ब्राह्मण,

2. तैत्तिरीय ब्राह्मण,

3. तलवकार ब्राह्मण,

4. शतपथ ब्राह्मण और

5. ताण्डय ब्राह्मण।


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🔹आरण्यक हिन्दू धर्म के पवित्रतम और सर्वोच्च ग्रन्थ वेदों का गद्य वाला खण्ड है। ये वैदिक वाङ्मय का तीसरा हिस्सा है और वैदिक संहिताओं पर दिये भाष्य का दूसरा स्तर है। इनमें दर्शन और ज्ञान की बातें लिखी हुई हैं, कर्मकाण्ड के बारे में ये चुप हैं। इनकी भाषा वैदिक संस्कृत है। वेद, मंत्र तथा ब्राह्मण का सम्मिलित अभिधान है।

  मंत्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् (आपस्तंबसूत्र)। ब्राह्मण के तीन भागों में आरण्यक अन्यतम भाग है। ये अपने नाम के अनुसार ही अरण्य या वन से सम्बद्ध हैं। जो अरण्य में पढ़ा या पढ़ाया जाए उसे ‘आरण्यक’ कहते हैं- अरण्ये भवम् आरण्यकम्। आरण्यक ग्रन्थों का प्रणयन प्रायः ब्राह्मणों के पश्चात् हुआ है क्योंकि इसमें दुर्बोध यज्ञ-प्रक्रियाओं को सूक्ष्म अध्यात्म से जोड़ा गया है।

ऋग्वेद- ऐतरेय आरण्यक, कौषीतकि आरण्यक या शांखायन आरण्यक

सामवेद- तावलकर (या जैमिनीयोपनिषद्) आरण्यक

छान्दोग्य आरण्यक

यजुर्वेद- शुक्ल, वृहदारण्यक, कृष्ण, तैत्तिरीय आरण्यक

मैत्रायणी आरण्यक

अथर्ववेद- (कोई उपलब्ध नहीं)


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उपनिषद् क्या है?

उपनिषद् शब्द का साधारण अर्थ है - ‘समीप उपवेशन’ या 'समीप बैठना (ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना)। यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से निष्पन्न हुआ है। सद् धातु के तीन अर्थ हैं : विवरण-नाश होना; गति-पाना या जानना तथा अवसादन-शिथिल होना। उपनिषद् में ऋषि और शिष्य के बीच बहुत सुन्दर और गूढ संवाद है जो पाठक को वेद के मर्म तक पहुंचाता है।

उपनिषद् हिन्दू धर्म के महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ हैं। ये वैदिक वाङ्मय के अभिन्न भाग हैं। ये संस्कृत में लिखे गये हैं। इनकी संख्या लगभग 108 है, किन्तु मुख्य उपनिषद 13 हैं। हर एक उपनिषद किसी न किसी वेद से जुड़ा हुआ है। इनमें परमेश्वर, परमात्मा-ब्रह्म और आत्मा के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णन दिया गया है। उपनिषदों के तत्त्वज्ञान और कर्तव्यशास्त्र का प्रभाव भारतीय दर्शन के अतिरिक्त धर्म और संस्कृति पर भी परिलक्षित होता है। उपनिषदों का महत्त्व उनकी रोचक प्रतिपादन शैली के कारण भी है। कर्इ सुन्दर आख्यान और रूपक, उपनिषदों में मिलते हैं। उपनिषद् भारतीय सभ्यता की अमूल्य धरोहर है। 

1- गद्यात्मक उपनिषद्

१. ऐतरेय, २. केन, ३. छान्दोग्य, ४. तैत्तिरीय, ५. बृहदारण्यक तथा ६. कौषीतकि;

इनका गद्य ब्राह्मणों के गद्य के समान सरल, लघुकाय तथा प्राचीन है।

2- पद्यात्मक उपनिषद्

1.ईश, 2.कठ, 3. श्वेताश्वतर तथा नारायण

इनका पद्य वैदिक मंत्रों के अनुरूप सरल, प्राचीन तथा सुबोध है।

3- अवान्तर गद्योपनिषद्

  1.प्रश्न, 2.मैत्री (मैत्रायणी) तथा 3.माण्डूक्य

4.आथर्वण (अर्थात् कर्मकाण्डी) उपनिषद्

उपनिषदों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जाता है-

1:- ऋग्वेदीय - 10 उपनिषद्

2:- शुक्ल यजुर्वेदीय - 19 उपनिषद्

3:-  कृष्ण यजुर्वेदीय - 32 उपनिषद्

4:- सामवेदीय - 16 उपनिषद्

5:- अथर्ववेदीय -31 उपनिषद्

कुल -108 उपनिषद्

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उपवेद:-

आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद तथा स्थापत्यवेद- ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद कात्यायन ने बतलाये हैं।

1- स्थापत्यवेद - स्थापत्यकला के विषय, जिसे वास्तु शास्त्र या वास्तुकला भी कहा जाता है, इसके अन्तर्गत आता है।

2- धनुर्वेद - युद्ध कला का विवरण। 

3- गन्धर्वेद - गायन कला।

4- आयुर्वेद - वैदिक ज्ञान पर आधारित स्वास्थ्य विज्ञान।


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श्री मद भागवत गीता:- हिन्दुओं के धर्मग्रंथ तो वेद ही हैं। वेदों का सार उपनिषद है और उपनिषदों का सार गीता है।



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पुराण क्या है?

पुराण, हिन्दुओं के धर्म-सम्बन्धी आख्यान ग्रन्थ हैं, जिनमें संसार - ऋषियों - राजाओं के वृत्तान्त आदि हैं। ये वैदिक काल के बहुत समय बाद के ग्रन्थ हैं, जो स्मृति विभाग में आते हैं। भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण प्राचीन भक्ति-ग्रन्थों के रूप में बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म और अकर्म की गाथाएँ कही गयी हैं। कुछ पुराणों में सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक का विवरण दिया गया है।

पुराण' का शाब्दिक अर्थ है, 'प्राचीन' या 'पुराना'। पुराणों की रचना मुख्यतः संस्कृत में हुई है, किन्तु कुछ पुराण क्षेत्रीय भाषाओं में भी रचे गए हैं। हिन्दू और जैन दोनों ही धर्मों के वाङ्मय में पुराण मिलते हैं। 

पुराणों में वर्णित विषयों की कोई सीमा नहीं है। इसमें ब्रह्माण्डविद्या, देवी-देवताओं, राजाओं, नायकों, ऋषि-मुनियों की वंशावली, लोककथाएँ, तीर्थयात्रा, मन्दिर, चिकित्सा, खगोल शास्त्र, व्याकरण, खनिज विज्ञान, हास्य, प्रेमकथाओं के साथ-साथ धर्मशास्त्र और दर्शन का भी वर्णन है।  विभिन्न पुराणों की विषय-वस्तु में बहुत अधिक असमानता है।

अष्टादश पुराण/ 18 पुराण-

पुराणों की संख्या प्राचीन काल से अठारह मानी गयी है। पुराणों में एक विचित्रता यह है कि प्रायः प्रत्येक पुराण में अठारहों पुराणों के नाम और उनकी श्लोक-संख्या का उल्लेख है। देवीभागवत में नाम के आरंभिक अक्षर के निर्देशानुसार १८ पुराणों की गणना इस प्रकार की गयी हैं:-

​​मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम्।

​​अनापलिंगकूस्कानि पुराणानि पृथक्पृथक् ॥

म-२, भ-२, ब्र-३, व-४। ​

अ-१,ना-१, प-१, लिं-१, ग-१, कू-१, स्क-१ ॥

'विष्णुपुराण' के अनुसार अठारह पुराणों के नाम इस प्रकार हैं—ब्रह्म, पद्म, विष्णु, शैव (वायु), भागवत, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लिङ्ग, वाराह, स्कन्द, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड और ब्रह्माण्ड। क्रमपूर्वक नाम-गणना के उपरान्त श्रीविष्णुपुराण में इनके लिए स्पष्टतः 'महापुराण' शब्द का भी प्रयोग किया गया है।

 अठारह पुराणों के नाम इस प्रकार हैं:-

ब्रह्म पुराण

पद्म पुराण

विष्णु पुराण -- (उत्तर भाग - विष्णुधर्मोत्तर)

वायु पुराण -- (भिन्न मत से - शिव पुराण)

भागवत पुराण -- (भिन्न मत से - देवीभागवत पुराण)

नारद पुराण

मार्कण्डेय पुराण

अग्नि पुराण

भविष्य पुराण

ब्रह्मवैवर्त पुराण

लिङ्ग पुराण

वाराह पुराण

स्कन्द पुराण

वामन पुराण

कूर्म पुराण

मत्स्य पुराण

गरुड पुराण

ब्रह्माण्ड पुराण


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 वेदांग:-

वेदों के सर्वांगीण अनुशीलन के लिये वेदांग, जिन्हें ६ अंग कहते हैं। अंग के विषय इस प्रकार हैं -

शिक्षा - ध्वनियों का उच्चारण।

निरुक्त - शब्दों का मूल भाव। इनसे वस्तुओं का ऐसा नाम किस लिये आया इसका विवरण है। शब्द-मूल, शब्दावली, और शब्द निरुक्त के विषय हैं।

व्याकरण - संधि, समास, उपमा, विभक्ति आदि का विवरण। वाक्य निर्माण को समझने के लिए आवश्यक।

छन्द - गायन या मंत्रोच्चारण के लिए आघात और लय के लिए निर्देश।

ज्योतिष - इससे वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों का समय ज्ञात होता है। यहाँ ज्योतिष से मतलब `वेदांग ज्योतिष´ से है। यह वेद पूरुष का नेत्र माना जाता है। वेद यज्ञकर्म में प्रवृत होते हैं और यज्ञ काल के आश्रित होते है तथा जयोतिष शास्त्र से काल का ज्ञान होता है। अनेक वेदिक पहेलियों का भी ज्ञान बिना ज्योतिष के नहीं हो सकता।

कल्प - वेदों के किस मन्त्र का प्रयोग किस कर्म में करना चाहिये, इसका कथन किया गया है। इसकी तीन शाखायें हैं- श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र। कल्प वेद-प्रतिपादित कर्मों का भलीभाँति विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। इसमें यज्ञ सम्बन्धी नियम दिये गये हैं।

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 6 शास्त्र – छह शास्त्र अग्रलिखित छह दर्शन के नाम पर जाने जाते हैं। 

न्याय शास्त्र

वैशेषिक शास्त्र

सांख्य शास्त्र

योग शास्त्र

मीमांसा शास्त्र

वेदांत शास्त्र

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स्मृतियों का अर्थ है "वह जिसे याद रखा जाए"। वे पवित्र हिंदू ग्रंथों के एक विशिष्ट समूह का उल्लेख करते हैं। वे मनुष्यों द्वारा रचित हैं (वेदों के विपरीत) और किसी व्यक्ति को उनके दैनिक जीवन में मार्गदर्शन करने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं।


हिंदू धर्मग्रंथों की 18 स्मृतियाँ इस प्रकार हैं-


अंगिरस स्मृति

व्यास स्मृति

आपस्तम्ब स्मृति

दक्ष स्मृति

विष्णु स्मृति

याज्ञवल्क्य स्मृति

लिखिता स्मृति

समवर्त्त स्मृति

शंक स्मृति

बृहस्पति स्मृति

अत्रि स्मृति

कात्यायन स्मृति

पराशर स्मृति

मनु स्मृति

औशानसा स्मृति

हरिता स्मृति

गौतम स्मृति

यम स्मृति

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 महाकाव्य:-

रामायण (आदिकाव्य)

महाभारत (जय संहिता)

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हिंदू पौराणिक कथाओं और अथर्ववेद के मुताबिक, 14 लोक या भुवन हैं:

सत्लोक, तपोलोक, जनलोक, महलोक, ध्रुवलोक, सिद्धलोक, पृथ्वीलोक, अतललोक, वितललोक, सुतललोक, तलातललोक, महातललोक, रसातललोक, पाताललोक

अष्टधातु- आठ तरह की धातुओं का मिश्रण 

सोना, चांदी, तांबा, सीसा, जस्ता, टिन, लोहा, पारा

समुद्र मंथन से निकले 14 रत्नों के नाम- 

हलाहल विष, कामधेनु गाय, उच्चै:श्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, अप्सरा रंभा, माता लक्ष्मी, वारुणी, चंद्रमा, पांचजन्य शंख, पारिजात वृक्ष, शारंग धनुष, अमृत कलश ।

पञ्च देव:-

1 गणेश 2 विष्णु 3- शिव

4- देवी 5- सूर्य 

पंचामृत - दूध, दही, घी, शहद और शक्कर ।

दो पक्ष

शुक्ल पक्ष, कृष्ण पक्ष 

त्रिदोष

वात-पित्त-कफ

पंच तत्त्व

1- पृथ्वी 2- जल 3- गगन 4- अग्नि 5- वायु 

सप्त ऋषि 

1- विश्वामित्र 2 - जमदाग्नि 3-भरद्वाज 4- गौतम 5- अत्री 6- वशिष्ठ 7 कश्यप

युग 

1- सतयुग, त्रेतायुग, कलियुग, द्वापरयुग

चार धाम (४ पीठ)

1-शारदा पीठ (द्वारिका ) 

2 - ज्योतिष पीठ (जोशीमठ बद्रिधाम) 

3- गोवर्धन पीठ (जगन्नाथपुरी)

4- श्रृंगेरी मठ

सप्तपुरी

अयोध्यापुरी 2- मथुरापुरी

3- मायापुरी (हरिद्वार ) 4-काशीपुरी

5- कांचीपुरी (शिन कांची-विष्णु कांची)

6- अवंतिकापुरी 7- द्वारिकापुरी

 आठ योग (पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए अष्टांग योग)

1- यम 2- नियम 3-आसन

4- प्राणायाम 5 प्रत्याहार 6- धारणा

7- ध्यान 8- समाधि

चार अंतःकरण

1-मन 2- बुद्धि

3- चित्त 4- अहंकार

आठ लक्ष्मी

 1- आग्घ 2 विद्या 3 - सौभाग्य

4- अमृत 5 काम 6- सत्य 7 - भोग 8- योग लक्ष्मी

नव दुर्गा

1- शैल पुत्री 2 - ब्रह्मचारिणी 3- चंद्रघंटा 4- कुष्मांडा 5 स्कंदमाता 6- कात्यायिनी 7- कालरात्रि 8 महागौरी एवं 9 सिद्धिदात्री

दस दिशाएं

1- पूर्व 2- पश्चिम 3 उत्तर 4- दक्षिण 5- ईशान 6- नैऋत्य 7 वायव्य

विष्णु 10 अवतार

1 मत्स्य 2 कश्यप 3 वराह 4- नरसिंह 5 - वामन 6- परशुराम 7- श्री राम 8 कृष्ण 9- बुद्ध एवं 10- कल्कि

शिव के 19 अवतार

वीरभद्र, पिप्पलाद, नंदी अवतार,भैरव अवतार, अश्वत्थामा, शरभावतार, गृहपति, ऋषि दुर्वास, हनुमान जी, वृषभ, यतिनाथ, कृष्णदर्शन, अवधूत, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, किरात, ब्रह्मचारी अवतार, सुनटनतर्क और यक्ष अवतार. ये शिवजी के 19 अवतारों के नाम हैं।

बारह मास

1- चैत्र 2 वैशाख 3- ज्येष्ठ 4- अषाढ 5- श्रावण 6- भाद्रपद 7 अश्विन 8- कार्तिक 9 - मार्गशीर्ष 10 पौष 11- माघ 12 फागुन

12 ज्योतिर्लिंग

1- सोमनाथ 2- मल्लिकार्जुन 3 - महाकाल

4- ओमकारेश्वर 5- बैजनाथ 6- रामेश्वरम

 7- विश्वनाथ 8 - त्र्यंबकेश्वर 9- केदारनाथ

 10 - घुष्मेश्वर 11- भीमाशंकर, 12 नागेश्वर 

पंद्रह तिथियाँ

1- प्रतिपदा 2- द्वितीय 3- तृतीय

4-चतर्थी - पंचमी 6-षष्ठी 7 सप्तमी 8- अष्टमी 

9- नवमी 10- दशमी 11- एकादशी 12 द्वादशी

13 त्रयोदशी 14 चतुर्दशी

15- पूर्णिमा, अमावास्या

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अष्टसिद्धि का विवरण-

1. अणिमा - अपने शरीर को एक अणु के समान छोटा कर लेने की क्षमता। 2. महिमा - शरीर का आकार अत्यन्त बड़ा करने की क्षमता। 3. गरिमा - शरीर को अत्यन्त भारी बना देने की क्षमता। 4. लघिमा - शरीर को भार रहित करने की क्षमता। 5. प्राप्ति - बिना रोक टोक के किसी भी स्थान को जाने की क्षमता। 6. प्राकाम्य - अपनी प्रत्येक इच्छा को पूर्ण करने की क्षमता। 7. ईशित्व - प्रत्येक वस्तु और प्राणी पर पूर्ण अधिकार की क्षमता। 8. वशित्व - प्रत्येक प्राणी को वश में करने की क्षमता। 

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नव निधियों का विवरण:-

1. पद्म निधि- पद्म निधि के लक्षणों से संपन्न मनुष्य सात्विक गुण युक्त होता है, तो उसकी कमाई गई संपदा भी सात्विक होती है। सात्विक तरीके से कमाई गई संपदा से कई पीढ़ियों को धन-धान्य की कमी नहीं रहती है। ऐसे व्यक्ति सोने-चांदी रत्नों से संपन्न होते हैं और उदारता से दान भी करते हैं।

2. महापद्म निधि- महापद्म निधि भी पद्म निधि की तरह सात्विक है। हालांकि इसका प्रभाव 7 पीढ़ियों के बाद नहीं रहता। इस निधि से संपन्न व्यक्ति भी दानी होता है और 7 पीढियों तक सुख ऐश्वर्य भोगता है।

3. नील निधि- नील निधि में सत्व और रज गुण दोनों ही मिश्रित होते हैं। ऐसी निधि व्यापार द्वारा ही प्राप्त होती है इसलिए इस निधि से संपन्न व्यक्ति में दोनों ही गुणों की प्रधानता रहती है। इस निधि का प्रभाव तीन पीढ़ियों तक ही रहता है।

4. मुकुंद निधि- मुकुंद निधि में रजोगुण की प्रधानता रहती है इसलिए इसे राजसी स्वभाव वाली निधि कहा गया है। इस निधि से संपन्न व्यक्ति या साधक का मन भोगादि में लगा रहता है। यह निधि एक पीढ़ी बाद खत्म हो जाती है।

5. नंद निधि- नंद निधि में रज और तम गुणों का मिश्रण होता है। माना जाता है कि यह निधि साधक को लंबी आयु व निरंतर तरक्की प्रदान करती है। ऐसी निधि से संपन्न व्यक्ति अपनी तारीफ से खुश होता है।

6. मकर निधि- मकर निधि को तामसी निधि कहा गया है। इस निधि से संपन्न साधक अस्त्र और शस्त्र को संग्रह करने वाला होता है। ऐसे व्यक्ति का राजा और शासन में दखल होता है। वह शत्रुओं पर भारी पड़ता है और युद्ध के लिए तैयार रहता है। इनकी मृत्यु भी अस्त्र-शस्त्र या दुर्घटना में होती है।

7. कच्छप निधि- कच्छप निधि का साधक अपनी संपत्ति को छुपाकर रखता है। न तो स्वयं उसका उपयोग करता है, न करने देता है। वह सांप की तरह उसकी रक्षा करता है। ऐसे व्यक्ति धन होते हुए भी उसका उपभोग नहीं कर पाता है।

8. शंख निधि- शंख निधि को प्राप्त व्यक्ति स्वयं की ही चिंता और स्वयं के ही भोग की इच्छा करता है। वह कमाता तो बहुत है, लेकिन उसके परिवार वाले गरीबी में ही जीते हैं। ऐसा व्यक्ति धन का उपयोग स्वयं के सुख-भोग के लिए करता है, जिससे उसका परिवार गरीबी में जीवन गुजारता है।

9. खर्व निधि- खर्व निधि को मिश्रत निधि कहते हैं। नाम के अनुरुप ही इस निधि से संपन्न व्यक्ति अन्य 8 निधियों का सम्मिश्रण होती है। इस निधि से संपन्न व्यक्ति को मिश्रित स्वभाव का कहा गया है। उसके कार्यों और स्वभाव के बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। माना जाता है कि इस निधि को प्राप्त व्यक्ति विकलांग व घमंडी होता हैं, यह मौके मिलने पर दूसरों का धन भी सुख भी छीन सकता है।

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C- 16 कलाएं -

अवतारों में भगवान श्रीकृष्ण में ही यह सभी कलाएं प्रकट हुई थी। इन कलाओं के नाम निम्नलिखित हैं।

१. श्री धन संपदा : प्रथम कला धन संपदा नाम से जानी जाती हैं है। इस कला से युक्त व्यक्ति के पास अपार धन होता हैं और वह आत्मिक रूप से भी धनवान हो। जिसके घर से कोई भी खाली हाथ वापस नहीं जाता, उस शक्ति से युक्त कला को प्रथम कला! श्री-धन संपदा के नाम से जाना जाता हैं।

२. भू अचल संपत्ति : वह व्यक्ति जो पृथ्वी के राज भोगने की क्षमता रखता है; पृथ्वी के एक बड़े भू-भाग पर जिसका अधिकार है तथा उस क्षेत्र में रहने वाले जिसकी आज्ञाओं का सहर्ष पालन करते हैं वह कला! भू अचल संपत्ति कहलाती है।

३. कीर्ति यश प्रसिद्धि : जिस व्यक्ति का मान-सम्मान और यश की कीर्ति चारों ओर फैली हुई हो, लोग जिसके प्रति स्वतः ही श्रद्धा और विश्वास रखते हैं, वह कीर्ति यश प्रसिद्धि कला से संपन्न माने जाते हैं।

४. इला वाणी की सम्मोहकता : इस कला से संपन्न व्यक्ति मोहक वाणी से युक्त होता है; व्यक्ति की वाणी सुनकर क्रोधी व्यक्ति भी अपना सुध-बुध खोकर शांत हो जाता है तथा मन में भक्ति की भावना भर उठती हैं।

५. लीला आनंद उत्सव : इस कला से युक्त व्यक्ति अपने जीवन की लीलाओं को रोचक और मोहक बनाने में सक्षम होता है। जिनकी लीला कथाओं को सुनकर कामी व्यक्ति भी भावुक और विरक्त होने लगता है।

६. कांति सौंदर्य और आभा : ऐसे व्यक्ति जिनके रूप को देखकर मन स्वतः ही आकर्षित होकर प्रसन्न हो जाता है, वे इस कला से युक्त होते हैं। जिसके मुखमंडल को देखकर बार-बार छवि निहारने का मन करता है वह कांति सौदर्य और आभा कला से संपन्न होता है।

७. विद्या मेधा बुद्धि : सभी प्रकार की विद्याओं में निपुण व्यक्ति जैसे वेद-वेदांग के साथ युद्ध और संगीत कला इत्यादि में पारंगत व्यक्ति इस काला के अंतर्गत आते हैं।

८. विमला पारदर्शिता : जिसके मन में किसी प्रकार का छल-कपट नहीं होता वह विमला पारदर्शिता कला से युक्त होता हैं। इनके लिए सभी एक समान होते हैं, न तो कोई बड़ा है और न छोटा।

९. उत्कर्षिणि प्रेरणा और नियोजन : युद्ध तथा सामान्य जीवन में जी प्रेरणा दायक तथा योजना बद्ध तरीके से कार्य करता हैं वह इस कला से निपुण होता हैं। व्यक्ति में इतनी शक्ति व्याप्त होती हैं कि लोग उसकी बातों से प्रेरणा लेकर लक्ष्य भेदन कर सकें।

१०. ज्ञान नीर क्षीर विवेक : अपने विवेक का परिचय देते हुए समाज को नई दिशा प्रदान करने से युक्त गुण ज्ञान नीर क्षीर विवेक नाम से जाना जाता हैं। वह सत्य और असत्य को भलीभांति जानकर उनमें भेद करना जानते हो ।

११. क्रिया कर्मण्यता : जिनकी इच्छा मात्र से संसार का हर कार्य हो सकता है तथा व्यक्ति सामान्य मनुष्य की तरह कर्म करता हैं और लोगों को कर्म की प्रेरणा देता हैं।

१२. योग चित्तलय : जिनका मन केन्द्रित है, जिन्होंने अपने मन को आत्मा में लीन कर लिया है वह योग चित्तलय कला से संपन्न होते हैं; मृत व्यक्ति को भी पुनर्जीवित करने की क्षमता रखते हैं।

१३. प्रहवि अत्यंतिक विनय : इसका अर्थ विनय है, मनुष्य जगत का स्वामी ही क्यों न हो, उसमें कर्ता का अहंकार नहीं होता है।

१४. सत्य यथार्य : व्यक्ति कटु सत्य बोलने से भी परहेज नहीं रखता और धर्म की रक्षा के लिए सत्य को परिभाषित करना भी जनता हैं यह कला सत्य यथार्य के नाम से जानी जाती हैं।

१५. ईशानः आधिपत्य : व्यक्ति में वह गुण सर्वदा ही व्याप्त रहती हैं, जिससे वह लोगों पर अपना प्रभाव स्थापित कर पाता है, आवश्यकता पड़ने पर लोगों को अपना प्रभाव की अनुभूति करता है। वह ईश्वर के समान शक्तिशाली एवं सर्व लोकोंके अधिपति होते है।

१६. अनुग्रह उपकार : निःस्वार्थ भावना से लोगों का उपकार करना अनुग्रह उपकार है।

1. बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना, 2. अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है। 3. चित्रवृत्ति नष्ट हो जाती है। 4. अहंकार नष्ट हो जाता है। 5. संकल्प विकल्प समाप्त हो जाते हैं एवं स्वयं के स्वरूप का बोध होने लगता है। 6. आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है। 7. वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है। 8. अग्रि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टिमात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है। 9. जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती। 10. पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है। नींद, भूख-प्यास नहीं लगती। 11. जन्म-मृत्यु स्थिति अपने अधीन हो जाती है। 12. समस्त भूतों से एकरूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करने लगते हैं। 13. समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है। 14. सर्वव्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव करता है। लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है। 15. कारण का भी कारण हो जाता है। यह अव्यक्त अवस्था है। 16. उत्तरायण कला- अपनी इच्छानुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है। जैसे-राम, कृष्ण। यहां उत्तरायण के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है। 16वीं कला पहले और 15वीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण, सगुण, स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। 16 कलायुक्त पुरुष में व्यक्त-अव्यक्त की सभी कलाएं होती हैं, यही दिव्यता है।

"कामसूत्र" के अनुसार 64 कलाएँ निम्नलिखित हैं :-

कला एक प्रकार का कृत्रिम निर्माण है जिसमे शारीरिक और मानसिक कौशलों का प्रयोग होता है। मैथिली शरण गुप्त के शब्दों में- अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति ही तो कला है -- (साकेत, पंचम सर्ग)

(1) गायन, (2) वादन, (3) नर्तन, (4) नाट्य, (5) आलेख्य (चित्र लिखना), (6) विशेषक (मुखादि पर पत्रलेखन), (7) चौक पूरना, अल्पना, (8) पुष्पशय्या बनाना, (9) अंगरागादि लेपन, (10) पच्चीकारी, (11) शयन रचना, (12) जलतंरग बजाना (उदक वाद्य), (13) जलक्रीड़ा, जलाघात, (14) रूप बनाना (मेकअप), (15) माला गूँथना, (16) मुकुट बनाना, (17) वेश बदलना, (18) कर्णाभूषण बनाना, (19) इत्र या सुगंध द्रव बनाना, (20) आभूषण धारण, (21) जादूगरी, इंद्रजाल, (22) असुंदर को सुंदर बनाना, (23) हाथ की सफाई (हस्तलाघव), (24) रसोई कार्य, पाक कला, (25) आपानक (शर्बत बनाना), (26) सूचीकर्म, सिलाई, (27) कलाबत्, (28) पहेली बुझाना, (29) अंत्याक्षरी, (30) बुझौवल, (31) पुस्तक वाचन, (32) काव्य-समस्या करना, नाटकाख्यायिका-दर्शन, (33) काव्य-समस्या-पूर्ति, (34) बेंत की बुनाई, (35) सूत बनाना, तुर्क कर्म, (36) बढ़ईगिरी, (37) वास्तुकला, (38) रत्नपरीक्षा, (39) धातुकर्म, (40) रत्नों की रंग परीक्षा, (41) आकर ज्ञान, (42) बागवानी, उपवन विनोद, (43) मेढ़ा, पक्षी आदि लड़वाना, (44) पक्षियों को बोली सिखाना, (45) मालिश करना, (46) केश-मार्जन-कौशल, (47) गुप्त-भाषा-ज्ञान, (48) विदेशी कलाओं का ज्ञान, (49) देशी भाषाओं का ज्ञान, (50) भविष्य कथन, (51) कठपुतली नर्तन, (52) कठपुतली के खेल, (53) सुनकर दोहरा देना, (54) आशुकाव्य क्रिया, (55) भाव को उलटा कर कहना, (56) धोखाधड़ी, छलिक योग, छलिक नृत्य, (57) अभिधान, कोशज्ञान, (58) नकाब लगाना (वस्त्रगोपन), (59) द्यूतविद्या, (60) रस्साकशी, आकर्षण क्रीड़ा, (61) बालक्रीड़ा कर्म, (62) शिष्टाचार, (63) मन जीतना (वशीकरण) और (64) व्यायाम।

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D- हमारे सौर मंडल का निर्माण ज्ञात 8 ग्रह, 180 उपग्रह, धूमकेतु, उल्का और क्षुद्रग्रह करते हैं। हमारे सौर मंडल के सभी ग्रहों में से, बृहस्पति एकमात्र ऐसा ग्रह है जिसका गुरुत्वाकर्षण सभी ग्रहों से अधिक है।

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27 नक्षत्र - अश्विन नक्षत्र, भरणी नक्षत्र, कृत्तिका नक्षत्र, रोहिणी नक्षत्र, मृगशिरा नक्षत्र, आर्द्रा नक्षत्र, पुनर्वसु नक्षत्र, पुष्य नक्षत्र, आश्लेषा नक्षत्र, मघा नक्षत्र, पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र, हस्त नक्षत्र, चित्रा नक्षत्र, स्वाति नक्षत्र, विशाखा नक्षत्र, अनुराधा नक्षत्र, ज्येष्ठा नक्षत्र, मूल नक्षत्र, पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र, श्रवण नक्षत्र, घनिष्ठा नक्षत्र, शतभिषा नक्षत्र, पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र, उत्तराभाद्रपद नक्षत्र, रेवती नक्षत्र।

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12 भाव - ज्योतिष में प्रत्येक भाव क्या दर्शाता है।

प्रथम भाव: कुंडली का पहला भाव "स्व" का भाव होता है।

दूसरा भाव: कुंडली में दूसरा भाव "धन" और "परिवार" पहलुओं पर शासन करता है।

तीसरा भाव: तीसरा भाव "भाई-बहन", "साहस" और "वीरता" का भाव है।

चौथा भाव: "माँ" और "खुशी" व्यक्ति के चौथे भाव से निरूपित किया जाता है।

पंचम भाव: पंचम भाव कुंडली है "बच्चों" और "ज्ञान" का भाव

छठा भाव: छठा भाव "शत्रु", "कर्ज" और "बीमारियों" का भाव है।

सप्तम भाव: कुंडली में सप्तम भाव "विवाह" और "साझेदारी" को दर्शाता है

आठवां भाव: आठवां घर "दीर्घायु" या "आयु भव" का भाव है।

नवम भाव: यह "भाग्य", "पिता" और "धर्म" का भाव है

दसवां भाव: कुंडली में दसवां भाव "कैरियर या पेशे" का भाव है।

एकादश भाव: जातक की "आय और लाभ" कुंडली के ग्यारहवें भाव से दर्शाए जाते हैं।

बारहवाँ भाव: कुंडली में बारहवाँ भाव “व्यय और हानि” का भाव है।

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E - द्वादश राशि - मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन

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F- नव ग्रह - भारतीय ज्योतिष और पौराणिक कथाओं में नौ ग्रह गिने जाते हैं, सूर्य, चन्द्रमा, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, राहु और केतु, यम।

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▪️ संध्यावंदन /संध्योपासना:- मंदिर में जाकर संधिकाल में ही संध्यावंदन की जाती है। वैसे संधि 8 वक्त की मानी गई है। उसमें भी सूर्य उदय और अस्त अर्थात 2 वक्त की संधि महत्वपूर्ण है। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। 

संध्योपासना के 4 प्रकार हैं- 1. प्रार्थना, 2. ध्यान, 3. कीर्तन और 4. पूजा-आरती । 

▪️ धर्म-कर्म को कई तरीके से साधा जा सकता है

1. व्रत, 2. सेवा, 3. दान, 4. यज्ञ, 5. प्रायश्चित, दीक्षा देना और मंदिर जाना आदि ।

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▪️ सनातन संस्कृति की ओर ले जाने वाले प्रमुख 10 नियम :-

1.ईश्वर प्राणिधान, 2.संध्यावंदन, 3.श्रावण व्रत मास, 4.चार धाम तीर्थ यात्रा, 5.दान, 6.संक्रांति उत्सव, 7.पंच यज्ञ कर्म, 8.सेवा, 9. सोलह संस्कार और 10.धर्म प्रचार। 

इसके अलावा दैनिक कार्यों के नियम भी समझें जैसे- 

 कैसे नहाना, शौचादि कार्य करना, जल ग्रहण, भोजन और नींद के नियम समझना। वार्तालाप और व्यवहार को समझना।

 इन नियमों को मानें :-

1. ग्रह-नक्षत्र पूजा, प्रकृति-पशु पूजा, समाधि पूजा, टोने-टोटके और रात्रि के अनुष्ठान से दूर रहें।

2. प्रतिदिन मंदिर जाएं, नहीं तो कम से कम गुरुवार को मंदिर जरूर जाएं।

3. प्रतिदिन संध्यावंदन करें करें। नहीं तो कम से कम गुरुवार को ऐसा करें।

4. आश्रमों के अनुसार जीवन को ढालें। 

5. वेद को ही साक्षी मानें और जब भी समय मिले गीता पाठ करें।

6. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की धारणा को समझें।

7. संयुक्त परिवार का पालन करें आदि।

8. धर्म विरोधी विचारों से दूर रहें।

9. धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में हिस्सा लें। संघठन से जुड़ें रहें।

10. वहमपरस्त ज्योतिष, जादू-टोना, स्थानीय संस्कृति, स्थानीय विश्वास, तंत्र-मंत्र, सती प्रथा, दहेज प्रथा, छुआछूत, वर्ण व्यवस्था, अवैदिक ग्रंथ, मनमाने मंदिर और पूजा, मनमाने व्रत और त्योहार आदि सभी का हिन्दू धर्म से कोई नाता नहीं।


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साभार-  ओमन सौभरि भुरर्क, भरनाकलां, मथुरा

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Wednesday, 19 July 2023

हिंदू संस्कृति की शब्दावलियां

 

यह सब खासकर अपने बच्चों को बताइए ...

पञ्च देव:-

1 गणेश 2 विष्णु 3- शिव

4- देवी 5 सूर्य -

दो पक्ष

शुक्ल पक्ष, कृष्ण पक्ष 

पंच तत्त्व

1- पृथ्वी 2-जल 3- गगन 4- अग्नि 5- वायु 

सप्त ऋषि 

1- विश्वामित्र 2 - जमदाग्नि 3-भरद्वाज 4- गौतम 5- अत्री 6- वशिष्ठ 7 कश्यप


 ऋण

- देवऋण 

- पितृऋण 

- ऋषिऋण

युग 

1- सतयुग, त्रेतायुग, कलियुग, द्वापरयुग

चार धाम

1- द्वारिका 2- बद्रीनाथ 3- जगन्नाथपुरी 4- रामेश्वरमधामथ


चार पीठ

1-शारदा पीठ (द्वारिका ) 2 - ज्योतिष पीठ (जोशीमठ बद्रिधाम) 

3- गोवर्धन पीठ (जगन्नाथपुरी)

4- शृंगेरीपीठ

सप्तपुरी

अयोध्यापुरी 2- मथुरापुरी

3- मायापुरी (हरिद्वार ) 4-काशीपुरी

5- कांचीपुरी (शिन कांची-विष्णु कांची)

6- अवंतिकापुरी 7- द्वारिकापुरी

 आठ योग

1- यम 2- नियम 3-आसन

4- प्राणायाम 5 प्रत्याहार 6- धारणा

7- ध्यान एवं 8- समाधि

चार आश्रम

1- ब्रह्मचर्य 2 - गृहस्थ 3- वानप्रस्थ 4 - संन्यासथ

चार अंतःकरण

1-मन 2- बुद्धि

3- चित्त 4- अहंकार

आठ लक्ष्मी

 1- आग्घ 2 विद्या 3 - सौभाग्य

4- अमृत 5 काम 6- सत्य 7 - भोग 8- योग लक्ष्मी


नव दुर्गा

1- शैल पुत्री 2 - ब्रह्मचारिणी 3- चंद्रघंटा 4- कुष्मांडा 5 स्कंदमाता 6- कात्यायिनी 7- कालरात्रि 8 महागौरी एवं 9 सिद्धिदात्री


दस दिशाएं

1- पूर्व 2- पश्चिम 3 उत्तर 4- दक्षिण 5- ईशान 6- नैऋत्य 7 वायव्य

स्मृतियां

1- मनु 2- विष्णु 3-अत्री 4 हारीत

 5- याज्ञवल्क्य 6 उशना 7-  अंगिरा 8- यम 9 आपस्तम्ब 10 सर्वत 11- कात्यायन 12- ब्रहस्पति 13- पराशर 14 व्यास 15 शांख्य 16- लिखित 17 दक्ष 18 शातातप 19- वशिष्ठ

विष्णु 11 अवतार

1 मत्स्य 2 कश्यप 3 वराह 4- नरसिंह 5 - वामन 6- परशुराम 7- श्री राम 8 कृष्ण-बलराम 10- बुद्ध एवं 11 कल्कि

शिव के 19 अवतार


बारह मास

1- चैत्र 2 वैशाख 3- ज्येष्ठ 4- अषाढ 5- श्रावण 6- भाद्रपद 7 अश्विन 8- कार्तिक 9 - मार्गशीर्ष 10 पौष 11- माघ 12 फागुन

12 राशि 

1- मेष 2 वृषभ 3- मिथुन 4- कर्क 5- सिंह 6 - कन्या 7 तुला 8 वृश्चिक 8- धनु 10-मकर 11 कुंभ 12- कन्या


12 ज्योतिर्लिंग

2- मल्लिकार्जुन 3 - महाकाल

4- ओमकारेश्वर 5- बैजनाथ

6- रामेश्वरम 7- विश्वनाथ 8 - त्र्यंबकेश्वर 9- केदारनाथ 10 - घुष्मेश्वर 11- भीमाशंकर, 12 नागेश्वर 

पंद्रह तिथियाँ

1- प्रतिपदा 2- द्वितीय 3- तृतीय

4-चतर्थी - पंचमी 6-षष्ठी 7 सप्तमी 8- अष्टमी 

9- नवमी 10- दशमी 11- एकादशी 12 द्वादशी

13 त्रयोदशी 14 चतुर्दशी

15- पूर्णिमा, अमावास्या


साभार-  ओमन सौभरि भुरर्क, भरनाकलां, मथुरा

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हिंदू धर्म में आगम और निगम की व्याख्या

 निगम कर्म, ज्ञान तथा उपासना का स्वरूप बतलाता है तथा आगम इनके उपायभूत साधनों का वर्णन करता है। जन कल्याणार्थ महादेव ने आगमों का उपदेश पार्वती को स्वयं दिया। 

वैदिक धर्म में उपास्य देवता की भिन्नता के कारण इसके तीन प्रकार है: वैष्णव आगम (पाँचरात्र तथा वैखानस आगम), शैव आगम (पाशुपत, शैवसिद्धांत, त्रिक आदि) तथा शाक्त आगम। द्वैत, द्वैताद्वैत तथा अद्वैत की दृष्टि से भी इनमें तीन भेद माने जाते हैं। अनेक आगम वेदमूलक हैं, परन्तु कतिपय तंत्रों के ऊपर बाहरी प्रभाव भी लक्षित होता है।

शैवागम २८ हैं-

(क) शिवागम

१ कामिक, २ योगज, ३ चिन्त्य, ४ कारण, ५ अजित, ६ दीप्त, ७ सूक्ष्म, ८ सहस्र, ९ अंशुमान, १० सुप्रभेद,

(ख) रुद्रागम

११ विजय, १२ निश्वास, १३ स्वायंभूव, १४ अनल , १५ वीर ,१६ रौरव, १७ मकुट, १८ विमल, १९ चंद्रज्ञान, २० बिंब,२१ प्रोद्गीत्, २२ ललित, २३ सिद्ध, २४ संतान, २५ शर्वोक्त, २६ पारमेश्वर, २७ किरण , २८ वातुल

इन २८ आगमों के २०४ उपागम है।




साभार-  ओमन सौभरि भुरर्क, भरनाकलां, मथुरा

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