Monday, 11 November 2019

सौभरेय ब्राह्मण समाज के बन्धुजनों का गुण, स्वभाव, खान-पान, रहन-सहन, रंग-रूप, बोली-भाषा आदि के आधार पर एक विश्लेषण-

स्वसमाज के बन्धुजनों का गुण, स्वभाव, खान-पान, रहन-सहन, रंग-रूप, बोली-भाषा आदि के आधार पर एक विश्लेषण-



स्वसमाज के बहुत से ऐसे पहलू हैं जिन्हें आप नकारात्मक व सकरात्मक दृष्टि से देखते हैं । स्वजनों का सबसे अच्छा गुण ये है कि अगर उनको पता चले कि ये फला आदमी अपनी समाज (बिरादरी) का है तो निश्चय ही वह आपकी सारी जानकारी जुटाने की पूरी कोशिश करेगा । ऐसा हमें अन्य समाज (जातियो) में देखने को नहीं मिलता । यहाँ कुछ ऐसे बिंदु दिये जा रहे हैं जिन्हें पढ़कर आप भी अपनी क्रिया-प्रतिक्रिया दीजियेगा...

1- पारंपरिक पहनावे में धोती, कुर्ता, स्वापी और थोड़ा साफ रंग वाले ज्यादा होते हैं ।
2- स्वजनों की मातृभाषा ब्रजभाषा है । ब्रजभाषा-हिंदी- संस्कृत - इंग्लिश सभी भाषाएँ समाज के लोग द्वारा जानी जाती हैं ।
3- स्वसमाज के लोग खाने-पीने के मामले में दूध, दही, घी, चूरमा इत्यादि बेहद पसंद करते हैं । आज भी स्वजन शुध्द शाकाहारी मिलेंगे ।

4- रिश्तेदारी में जब स्वजन जाते हैं एक बार खाने के लिए मना निकल गयी तो मना है । इस पर स्वसमाज का एक मत है और स्वलोक पखाना भी है ( "अहिवासी वाली ना)
5- यमुना आर- यमुना पार को लेकर मनोरंजन करते हैं कौन ज्यादा होशियार है ये बहस चलती रहती है  ।
6- छोटी और कम चीज पर संतोष नहीं करते । तुरंत परिणाम की आशा करते हैं ।
7- चार उपगोत्र के लोग इकट्ठे हो जाते हैं रोमांटिक बातें (आपसी रिश्तों की बात जैसे तू मेरा साला, मामा इत्यादि) लग जाते हैं ।
8- अपना स्वजन कितना भी बड़ा क्यों न हो उससे लोग बिल्कुल नहीं घबराते और न ही उसके सामने गिल्टी महसूस करते हैं बाहर वाले से भले कुछ न कहें लेकिन अपने स्वजन द्वारा की गई एक ही गलती पर तुरंत ही हावी रहने की पुरजोर कोशिश करने से नहीं कतराते ।
9- बंजर भूमि में पैदावारी करने वाला हमारा समाज ही है । किसान गिरी में स्वसमाज बेहद मेहनती है ।
10- स्वजन आपस की बातचीत में पुरोहिताई करने वाले लोगों की जयजयकार भी करेंगे परंतु सब जातियों में खाने के लिये उनका तिरस्कार या चिढ़ाने से नहीं हिचकिचाते । बिल्कुल कमतर जाति में कर्मकांड व कार्यक्रम करने से कतराते हैं ।
11- किसी समस्या के समाधान में हम किसी अन्य जाति के व्यक्ति को बीच में लेकर नहीं आते । समाधान आपसी सहयोग के मध्येनजर करते हैं ।
12- इनकी चेहरे की बनावट, शारीरिक बनावट और क्षमता, भाषा, त्वचा के रंग, रीति-रिवाज और शारीरिक हाव-भाव ही इनका इतिहास और इनके मूल स्थान का ब्यौरा देने के लिए काफी हैं।
13- विवाह सम्बंध अपनी ही स्वजाति में ही करते हैं । दूसरे ब्राह्मणों से लडकी या लड़के का सम्बंध करने में बिल्कुल दिलचस्पी नहीं दिखाते ।

सर्वविदित है कि हमने अपने प्रतिद्वंद्वी लोगों से अपनी जमीन के मेढ़ों को लेकर काफी कोर्ट-कचहरी की है। पर इस पीढ़ी के युवा बच्चे इन सब बातों को छोड़कर पढ़ाई और नौकरी के लिए शहरों की ओर आ रहे हैं । पहले स्वसमाज बालविवाह का प्रचलन चरम पर था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से बहुत बड़ा बदलाव देखने को मिला है ।
 स्वसमाज के डीएनए में किसी भी क्षेत्र काम करने की क्षमता है आज स्वजन हर क्षेत्र में रहकर 'चहुमुखी प्रतिभा' का परिचय दे रहे हैं ।

ओमन सौभरी भुर्रक, गांव- भरनाकलाँ, तह- गोवर्धन (मथुरा)

सौभरि जी बारे में और जानने के लिए क्लिक करें
श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी
ब्रजराज बलदाऊ मन्दिर के संस्थापक श्री कल्याणदेवचार्य
माँ सती हरदेवी पलसों
श्री बलदाऊ जी मन्दिर, बल्देव, मथुरा
सौभरि ब्राह्मण समाज के गोत्र, उपगोत्र व गांवों के नाम के बारे में जानिए ।

Sunday, 10 November 2019

सौभरि ब्राह्मण समाज के गोत्र, उपगोत्र व गांवों के नाम

 सौभरि ब्राह्मणों के अंतर्गत आने वाले उपगोत्र या अल्ल -
 गोत्र और 'उपगोत्र/अल्ल'/ अवटंक / शासन का अंतर भी समझें। कन्फ्यूज नहीं होइएगा।
नामकरण शिशु जन्म के बाद पहला संस्कार कहा जा सकता है। कौन-सा शब्द कब बना या किसने बनाया इसका कोई आँकड़ा नहीं पाया जाता । किसी वस्तु, गुण, प्रक्रिया, परिघटना आदि को समझने-समझाने के लिये समुचित नाम देना आवश्यक है इसे ही नामकरण कहते हैं। 16 संस्कारों में नामकरण-संस्कार पंचम संस्कार है। यह संस्कार बालक के जन्म होने के ग्यारहवें दिन होता है । संस्कृत व्याकरण के रचनाकार महर्षि पाणिनि जी द्वारा गोत्र की परिभाषा- ‘अपात्यम पौत्रप्रभ्रति गोत्रम्’ अर्थात ‘गोत्र शब्द का अर्थ है बेटे के बेटे के साथ शुरू होने वाली (एक साधु की) संतान्। गोत्र, कुल या वंश की संज्ञा है जो उसके किसी मूल पुरुष के अनुसार होती है। गोत्र को हिन्दू लोग लाखो हजारों वर्ष पहले पैदा हुए पूर्वजों के नाम से ही अपना गोत्र के नाम चले आ रहे हैंं जिससे वैवाहिक जटिलताएं उतपन्न नहींं हो रही हैं और इसलिए वंशपरंपरा का बने रहना अत्यावश्यक है। गोत्रीय अथवा गोत्रज वे व्यक्ति हैं जो किसी व्यक्ति से पितृ पक्ष के पूर्वजों अथवा वंशजों की एक अटूट श्रृखंला द्वारा संबंधित हों। उदाहरणार्थ, किसी व्यक्ति के पिता, दादा और परदादा आदि उसके गोत्रज हैं। इसी प्रकार इसके पुत्र पौत्रादि भी उसके गोत्रीय अथवा गोत्रज हैं, या यों कहिए कि गोत्रज वे व्यक्ति हैं जिनकी धमनियों में समान रक्त का संचार हो रहा हो।
गोत्रीय से आशय उन व्यक्तियों से है जिनके आपस में पूर्वजों अथवा वंशजों की सीधी पितृ परंपरा द्वारा रक्तसंबंध हों। किसी व्यक्ति के पिता के अन्य पुरुष वंशज अर्थात् भाई, भतीजा, भतीजे के पुत्रादि भी गोत्रज कहलायेंगे । ब्राह्मणों के आज जितने गोत्र पाये जाते हैं वे सब वैदिक काल के सात मूल वंशों की ही शाखा-प्रशाखा हैं। ये सात वंश भार्गव, आंगिरस, आत्रेय, काश्यप, वसिष्ठ, आगस्त्य और कौशिक हैं। ये सातों वंश बाह्य विवाही थे अर्थात् किसी भी एक वंश का पुरुष उसी वंश की कन्या से विवाह नहीं कर सकता था। एक सामान गोत्र वाले एक ही ऋषि परंपरा के प्रतिनिधी होने के कारण भाई-बहिन समझे जाते हैं । गोत्र को बहिर्विवाही समूह माना जाता है अर्थात ऐसा समूह जिससे दूसरे परिवार का रक्त संबंध न हो अर्थात एक गोत्र के लोग आपस में विवाह नहीं कर सकते पर दूसरे गोत्र में विवाह कर सकते हैं ।
हिन्दू धर्म की सभी जातियों में गोत्र पाए गए है । गोत्र को लेकर आयुर्वेद में स्पष्ट रूप से लिखा है की यदि समान प्रकार के रक्त में यदि मेल होता है,और उससे संतान उत्पत्ति होती है तो उस संतान का रक्त अर्थात DNA कमजोर होगा जिससे उसमे कई प्रकार की बीमारियाँ होने की सम्भावना होती है जैसे की शरीर की प्रतिरोधक क्षमता का कम होना ,शारीरिक विकृतियाँ होना ,वंशानुगत बीमारियाँ होना आदि आदि । वर्गीकरण प्रणाली से ही वनस्पतियों की प्रजाति, कुल और वैज्ञानिक नाम के बारे में पता चलता है। किसी भी जीव या वनस्पति को परिभाषित करते समय सबसे पहले उसके वर्गीकरण का ही जिक्र किया जाता है। नामकरण का प्रचलन वेदों के समय से ही है ।

गोत्र मातृवंशीय भी हो सकता है और पितृवंशीय भी। ज़रूरी नहीं कि गोत्र किसी आदिपुरुष के नाम से चले। एक ही समय में एक नाम से अनेक मनुष्य हो सकते हैं ।संभवतः उनकी विशिष्ट पहिचान के लिए पिता का नाम भी जोड़ दिया जाता था लेकिन ऐसी स्थिति भी होती थी कि किसी एक मनुष्य की एक से अधिक पत्नियां हों तब उन व्यक्तियों की पहिचान उनके माता के नाम से रहती थी । गोत्र तो पिता वाला ही रहता था लेकिन जो नाम है उनकी "माताओं के नाम से अल्ल" पड़ जाती थी। ठीक इसी तरह ब्रह्मृषि सौभरि जी के उपगोत्रों/अल्ल के नामकरण की भी यह परंपरा इनकी 50 पत्नियों के नाम पर हुई जो कि मान्धाता की पुत्रियां थी । इन्हीं के नाम से 50 उपगोत्रों/अल्ल का प्रादुर्भाव हुआ । इनके पुत्रों को उन्हीं के नाम से जाना जाने लगा ।
इस से यहाँ यह बात भी सिद्ध हो रही है कि वैदिक युग में पुरूष प्रधानता जैसी कोई अवधारणा नहीं थी जो कि आजकल आप को वर्तमान समय में देखने को मिलता है । वैसे सभी ब्राह्मण गोत्रों का निर्धारण ऋषियों के नाम से होता आया है । ठीक ये सिद्धान्त भी यहाँ लागू होता है कि "गोत्र “अंगिरस” जोकि ब्रह्मा जी के पुत्र हैं" उनके नाम पर और उपगोत्र/अल्ल इनके प्रपौत्र ब्रह्मऋषि सौभरि जी, जिनकी 50 पत्नियों के नाम के आधार पर पड़ा



वर्तमान में समाज के सभी विवाह संबंधों में अपने पिताजी व माताजी के उपगोत्रों/अल्ल (इंटरनल गोत्र) को छोड़कर अन्य उपगोत्रों में नया रिश्ता जोड़ा जाता है ।
1- बादर 2- सोती (सत्ल) 3- पचौरी 4-भाट (भटेले) 5-पधान 6-रतिवार 7- गौदाने (गौदानी) 8-तगारे 9-दीगिया 10- नुक़्ते (बरगला) 11-भुर्रक(भेड़े)12- रमैया 13-कुम्हेरिया 14-इटोईया 15-सीहइयाँ 16-सैंथरिया 17-बसइया 18-नन्दीसरिया 19-बजरावत 20-परसैंया 21-करिया 22-नालौठिया 23-दुरकी 24-विहोन्याँ 25-ओखले 26-करौतिया 27-मुडिनिया 28-गागर 29-डामर 30-गलवाले31-छिरा 32-जयन्तिया 33-डिड्रोइया 34-तसिये35-दुर्गवार 36-दिरहरे 37-अझैयां 38-नायक 39-उमाड़िया 40-कांकर 41-रौसरिया 42-औगन 43-सिरौलिया 44-पलावार(पल्हा) 45- सिकरोरिया 46-चोचदिना 47-गलजीते 48- किलकिले 49-तागपुरिया 50-काठ
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अंगिरस गोत्री सौभरि ब्राह्मणों के पचासों उपगोत्र महर्षि सौभरि जी की 50 पत्नियों के नाम पर पड़े । 50 उपगोत्रों के नाम संस्कृतभाषा से उद्धरत हैं जिनमें 25 उपगोत्रों के अपभ्रंश नाम जोकि इस प्रकार हैं ।
माताओं के नाम/ उपगोत्र का नाम…
1- बद्रिका- बादर 
2- श्रोत्या- श्रोती अथवा सोती
3-पंचरी- पचौरी
4-गोदानी-गोदाने
5-भटी- भाट अथवा भटेले
6-प्रधानी-पधान
7-रतिवरी-रतिवार
8-तगन्या-तगारे
9-प्रलिहा-पल्हा अथवा पलावार
10-दीर्घा-दीगिया
11- श्रीकर्पूरी- सिकरोरिया
12-नुक्ता-नुक़्ते अथवा बरगला
13-भाविक्रा- भुर्रक
14-रमणीय-रमैया
15-कुंभार्या -कुम्हेरिया
16-ईड़ा-इटोइयाँ
17-सिंहमुग्रा- सीहइयाँ
18-सन्तरी-सैंथरिया
19-वासुकी-बसैया
20-नद्या -नंदिसरिया
21- बज्रावली- बजरावत
22-अजहा-अझैया
23-प्ररसी- परसईयां
(Source- पुस्तक “सौभरिअमृत”।
ऐसे ही स्वसमाज के बहुत से गाँवों के नाम भी उपगोत्रों के नाम पर ही रखे गये हैं । जैसे- गाँव- सैंथरी और उपगोत्र-सैंथरिया, सीह-सीहइयाँ, परसों-परसईयाँ
कुम्हेर-कुम्हेरिया बहुत से गाँवों के नाम सौभरि जी की उपाधि स्वरूप मिले नाम के के ऊपर हैं जैसे- नगला अहिवासी, अहिवासियों का पुरा ।
आज भी स्वसमाजी जन अपने उपगोत्र के मूलगाँव में छोटे बच्चों का मुंडन अपनी रीति- रिवाज से कराते हैं । इनमें मघेरा व गाँव पैठागांव के पास उपगोत्री भाटों का मूलगाँव ‘भटैनी’ [पटैनी(वर्तमान नाम)] प्रमुख हैं ।गाँव मघेरा में भुर्रक उपगोत्र के लोग निवास करते हैं यहाँ वे अन्य उपगोत्रों की तुलना में बहुलता में हैं । वैसे भारतवर्ष में, गोत्र के नामकरण की परंपरा मातृवंशी भी रही है और पितृवंशी भी। ज़रूरी नहीं कि गोत्र किसी आदिपुरुष के नाम से चले। एक ही समय में एक नाम से अनेक मनुष्य हो सकते हैं । संभवतः उनकी विशिष्ट पहिचान के लिए पिता का नाम भी जोड़ दिया जाता है लेकिन ऐसी स्थिति भी होती है कि किसी एक मनुष्य की एक से अधिक पत्नियां हों तब उन व्यक्तियों की पहिचान उनके माता के नाम से रहती है । ठीक इसी तरह सौभरि जी के वंशजों के उपगोत्रों के नामकरण भी इनकी 50 पत्नियों के नाम पर हुई है जोकि रघुवंशी राजा मान्धाता की पुत्रियां थी । इन्हीं के नाम से स्वसमाज के 50 उपगोत्रों का प्रादुर्भाव हुआ ।

अखिल भारत में सौभरि ब्राह्मण समाज गाँवों की संख्या का विवरण-
जिला मथुरा (उत्तर प्रदेश) यमुना के आर वाले गांव-
1.खानपूर 2.भदावल 3. नगरिया 4.खायरा 5. बिजवारी 6.डाहरौली 7.सीह 8.पलसों 9. भरनाकलां 10.भरनाखुर्द 11.पेलखू 12.मघेरा 13- सुनरख 
यमुना के पार वाले जिला अलीगढ़, हाथरस, आगरा (उत्तर प्रदेश)
1.दिहौली 2.मलिकपुरा 3.आलमपुर 4.भांकरी 5.सोनोठ 6.अलीपुर 7.मड्राक 8.नगला अहिवासी 9.तिलौठी10. भोजगढ़ी11, पेठागांव 12. सासनी12.कोड़ा 13, जटौआ 14. महासिंह का नगला 15.हाथी की गढ़ी 16- दाऊजी 
गंगा पार के गांव बरेली (उत्तर प्रदेश)-
1.खुर्द नबाबपुरा 2.सुकटिया 3.पृथ्वीपुर4.पिपरिया वीरपुर 5.चंद्रपुरा 6.सीतापुर 7. 8.केशरपुर 9.जगन्नाथपुर 10.बारशेर 11.दलीपुर 12.हरदासपुर 13.माहमूडपुर 14.चकरपुर 15.गोटिया
बदायूँ (उत्तर प्रदेश)-
1.भोजपुर,2.गुरयारी
जिला सीतापुर उत्तर प्रदेश-
1-अहिवासी पुरवा 2- टेडवा चेलावला3- निभा ढेरा 4- भकरी कला 5-
 पकरिया6- गौरा अर्जुनपुर 7- खजुरिया अहिवासी 8- पिपरावा 9- भदसिया10- कलापुर 11- उमरिया 12-परसेहरामल जिला-जालौन, ओखलेपुरा ।

अलवर जिला में आने वाले गांव (राजस्थान)-
1. बदनगढ़ी 2. गारु 3.नगला सीताराम 4.नगला खूबा 5.नगला केसरी 6.नतौज 7.लाठकी 8. भोजपुरा 9. अर्र्रूआ 10.सामौली 11.रामनगर 12. बालूपुरा 13.खैर मेडा, करीले का नगला 
भरतपुर जिला (राजस्थान)-
1. नयावास 2. मनोहरपुर 3. जहांगीरपुर 4. सितारा 5. अजयपुरा 6. बिसदे 7. सैंथरी 8. डीग 9. कुम्हेर 10. मूंडिया 11. पड़लवास 12. कुरकेंन 13.सरसई 14. उसरारौ 15.सिकरोरी  
भिंड जिला (मध्यप्रदेश)
1.काठा 2.रारी 3.मछर्या 4.बन्थारी 5.बिरखडी 6.मिहोना 7.चंडौंक 8.छिडी 9.बोहरा 10.शिकारपुरा 11.कौनरपुरा 12.अहिवासियों का पुरा 13.सोनी 14.महाराजपुरा 15.जगन्नाथपुरा 16.सीताराम की लवण 17.बिरखडी डांग 18.पिपडी 19.नौनेरा 20.खेरिया चदन 21.खेरिया बेर 22.तरौली 23.बरौली 24.भिंड
ग्वालियर जिला (मध्यप्रदेश)-
1. रंगवन
जबलपुर जिला (मध्यप्रदेश) –
1.डिढोरा 2.उड़ना 3.भोरडा 4.मेढी 5.अमरपुर 6.खेड़ा 7.पथरोरा 8.पाटन 9.जटवा 10.जूरी 11.जूरीखुर्द 12.कटरा बेलखेड़ा 13.कौनरपुर
14.पथरिया 15.चंडवा 16 मेहंगवा17 सिंगौरी 18.राइयाखेड़ा 19.नोनी 20 खामदेही 21.भेड़ाघाट 22.शाहपुरा 23.बामनोढा 24.सुरई 25.भरदा 26.कुआखेड़ा 27.मेली 28.पिंडराई 29.गुबरा
30.जमखार 31.बेलखेड़ा बड़ा 32.कूड़ा 33.झालोंन 34.बदराई 35- सुनाचर
नरसिंहपुर जिला (मध्यप्रदेश)-
1.गातेगाँव श्रीधाम 2.बगलाइ 3.कोरेगांव 4 चांडाली 5.करेली
हरदा जिला (मध्यप्रदेश)- 1.हरदा 2. ऊडा 3.भाटरपेटिया 4.डोलरिया 5.टेमागांव 6.झाडबीड़ा 7.झिरिखेड़ा 8.घोघडामाफी9. बंदीमुहाड़िया10.सिराली 11.टिमरनी 12.गोंदागांवकलां 13.सुरजना 14.रनहाई
आगर जिला(मध्यप्रदेश)
1.आगर मालवा 2.बडागाँव
शाजापुर जिला (मध्यप्रदेश)
1.पोलायकला
शिहोड़ जिला (मध्यप्रदेश)
1.नसरुल्लागंज 2.मन्झली 3.बीरखेडी
होशंगाबाद जिला (मध्यप्रदेश)-
1. होशंगाबाद
2.सिवनी मालवा
विदिशा (मध्यप्रदेश)-
1.विदिशा 2. गंजबासोदा
Total- 160 से ज्यादा गांव हैं ।

साभार: पंडित ओमन सौभरि भुर्रक, गाँव-भरनाकलां, गोवर्धन, मथुरा(उत्तर प्रदेश) ।

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Friday, 8 November 2019

जानिए सौभरि जी व मान्धाता की 50 पुत्रियों द्वारा रचित सबसे बड़े स्वयंवर के बारे में

हिन्दू धर्म में स्वयंवर प्राचीन काल से प्रचलित 16 संस्कारों में से एक पाणिग्रहण संस्कार की परंपरा है जिसमें कन्या स्वयं अपना वर चुनती है और उसके बाद उसी से विवाह होता है। विवाह = वि + वाह, अत: इसका शाब्दिक अर्थ है - विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है जिसे कि विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है परंतु हिंदू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है जिसे कि किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। किसी भी मानव समाज में नरनारी को उस समय तक दांपत्य जीवन बिताने और संतान उत्पन्न करने का अधिकार नहीं दिया जाता, जब तक इसके लिए समाज की स्वीकृति न हो। यह स्वीकृति धार्मिक कर्मकांड को अथवा विधान द्वारा निश्चित विधियों को पूरा करने से तथा विवाह से उत्पन्न होनेवाले दायित्वों को स्वीकार करने से प्राप्त होती है। इस संबंध से पति-पत्नी को अनेक प्रकार के अधिकार और कर्तव्य प्राप्त होते हैं। इससे जहाँ एक ओर समाज पति-पत्नी को कामसुख के उपभोग का अधिकार देता है, वहीं दूसरी ओर पति को पत्नी तथा संतान के पालन एवं भरणपोषण के लिए बाध्य करता है। संस्कृत में पति का शब्दार्थ है : 'पालन ' तथा 'भार्या' का अर्थ है 'भरणपोषण की जाने योग्य नारी'।

विवाह के संख्यात्मक रुप-
पति या पत्नी की संख्या के आधार पर विवाह के तीन रूप माने जाते हैं - 1: बहुर्भायता 2: बहुभर्तृता  3: एकविवाह। 
जब एक पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करता है तो इसे बहुभार्यता या बहुपत्नीत्व  कहते हैं। एक स्त्री के साथ एक से अधिक पुरुषों के विवाह को बहुभर्तृता या बहुपतित्व कहा जाता है। एक पुरुष के एक स्त्री के साथ विवाह को एक विवाह  या एकपत्नीव्रत कहा जाता है।

विवाह के प्रकार- प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रकारों ने विवाह को ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच नामक आठ प्रकार से बताया गया है । इनमें से पहले चार प्रकार के विवाह प्रशस्त तथा धर्मानुकूल समझे जाते हैं। ये सब विवाह मातापिता की सहमति से किए जाने वाले विवाह के अंतर्गत हैं। किंतु पिछले चार विवाहों में कन्या का दान नहीं होता, वह मूल्य से या प्रेम से या बलपूर्वक ली जाती है।

रामायण और महाभारत काल में भी राज कन्याऐं पति का वरण स्वयंवर में करती थी परंतु पति के वरण करने में स्वतंत्रता न थी। पिता की शर्तों के ही अनुसार पूर्ण योग्यता प्राप्त व्यक्ति ही चुना जा सकता था। कुछ महत्वपूर्ण स्वयंवर जैसे सीता का स्वयंवर, द्रौपदी का स्वयंवर, सावित्री का स्वयंवर, दमयन्ती का स्वयंवर, मान्धाता की 50 बेटियों का स्वयंवर आदि के प्रसिद्ध उदाहरण हैं ।

यहाँ हम मान्धाता की 50 बेटियों के साथ महर्षि सौभरि जी के स्वयंवर की कथा का वर्णन करेंगे...



इक्ष्वाकु वंश में युवनाश्व के बेटे राजा मान्धाता  अपने दरबार में बैठे हुए थे । उन्हें दरबार में अचानक महर्षि सौभरि जी का आगमन हुआ उन्हें देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गए। राजा ने सिंहासन छोडकर उनका स्वागत किया । राजा मान्धाता ऋषि-महर्षियों का बड़ा आदर-सम्मान करते थे। सौभरि ऋषि का नाम उनके राज्य में विख्यात था उनकी तपस्या से सभी चमत्त्कृत थे । राजा ने उन्हें जल आदि से तृप्त करके सुखपूर्वक बैठाया और तब उनसे कुशल-मंगल पूछते हुए अत्यन्त विनम्रता के साथ आने का प्रयोजन जानना चाहा।

महर्षि बोले, 'मैं तुम्हारी कन्या से विवाह करने का इच्छुक हूँ। आप मुझे अपनी एक कन्या दे दीजिए' । सौभरि जी को पता था कि राजा के मुचकुंद, अंबरीष और पुरुकुत्स नामक तीन पुत्र और 50 कन्याएँ हैं । राजा इस बात को सुनते ही सन्न रह गए। महर्षि को क्या हो गया है ये तो तपोव्रतधारी हैं, फिर अचानक ई के मन में ये विचार कैसे आया, ऐसे राजा मन ही मन सोचने लगे । वे सोचने लगे कि कहाँ यह वृद्ध महर्षि और कहाँ मेरी सुकुमारी बेटी! क्या यह उचित होगा कि मैं अपनी युवा बेटी का विवाह इस वृद्ध पुरुष के साथ कर दूँ। अन्य राजा लोग मुझे क्या कहेंगे, मेरी प्रजा में क्या ख्याति रह जाएगी। इस वृद्ध को देखो, इस आयु में गृहस्थ जीवन बिताने की सोच रहा है, लेकिन इन्कार भी नहीं किया जा सकता। यदि कहीं क्रुद्ध हो गए तो राज्य की खैर नहीं। अंत में राजा ने एक युक्ति सोच ली। वे बोले, 'महात्मन्, हम लोग क्षत्रिय हैं, हमारे यहाँ स्वयंवर का रिवाज है , आप मेरे साथ अंत:पुर में चलें, जो राजकुमारी आपको पसंद कर लेगी मैं उसी से आपका विवाह कर दूँगा।' राजा अपने मंत्री व महर्षि को साथ लेकर महल के रनिवास की ओर चल दिए। राजा ने मंत्री को अंदर भेजा और महर्षि के बारे बताया । मंत्री और राजा को विश्वास था कि उनकी बूढ़ी काया को देखते ही मेरी पुत्री मना कर देगी ।  मंत्री ने रनिवासबाहर निकलकर महर्षि से हाथ जोड़कर अंदर जाने का आव्हान किया । महर्षि अंदर जाते हुए सोच रहे थे कि मुझे अब अच्छा रूप धारण कर लेना चाहिए ।चलते-चलते ही उन्होने अपने तपोबल से एक अत्यन्त सुंदर युवा का रूप धारण कर लिया। वे ऐसे लगने लगे जैसे साक्षात सौन्दर्य के देवता अनंग हो। उनके सामने कामदेव की कांति भी फीकी थी । जैसे ही सौभरि जी ने रनिवास में अंदर प्रवेश किया सभी राजकुमारियों ने ऋषि के सौंदर्य और आकर्षण को देखकर उन्हें घेर लिया तथा सभी उनके साथ विवाह करने के लिए उत्सुक हो गई । मान्धाता की पुत्रियों की संख्या पचास थी ।

राजा ने यह स्थिति देखकर शुभ मुहुर्त में अत्यन्त उत्साह एवं उल्लास के साथ सभी राजकुमारियों का विवाह महर्षि सौभरि जी के साथ कर दिया। ये अब तक हुए स्वयंवरों में सबसे बड़ा व अद्भुत प्रकार का स्वयंवर था । सौभरि जी केवल एक पुत्री के साथ विवाह के लिए आये थे लेकिन उन पचासों ने ही उन्हें एक वरण कर लिया । राजा ने महर्षि को घर गृहस्थी का सब सामान दिया कि उनको किसी प्रकार की भी कोई चिन्ता न रहे। गायों के झुंड, घोडे विभिन्न प्रकार के वस्त्र, रत्न तथा आभूषण प्राप्त करके ऋषि का मन आनन्दित हो गया। रास्ते में ऋषि ने इन्द्र देवता की प्रार्थना की और उन्हें यज्ञ में उपस्थित होकर भेंट स्वीकार करने का आग्रह किया और विश्वकर्मा से पचासों रानियों के लिए पचास नये भवनों का निर्माण करवाया । इसके बाद वो सब  रानियों के साथ सुखपूर्वक रहने लगे और उनको बोला कि चारों तरफ सुन्दर जलाशय और पक्षियों से गूंजते हुए बगीचे हों । शिल्प विद्या के धनी विश्वकर्मा ने वह सारी सुविधाएं उपलब्ध करायीं जो की अनिवार्य थीं । राज कन्याओं के लिए अलग-अलग महल खड़े कर दिए । अब राज कन्यांएं बड़े मधर स्वभाव से वहाँ रमण करने लगीं । एकदिन राजा ने अपनी पुत्रिओं का हाल जानने के लिए महर्षि के श्रम पहुंचे और वहाँ जाकर अपनी पुत्रियों से एक-एक कर वहाँ का हाल-चाल पूछा और कहा की खुश पुत्री तो है ना? तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट तो नहीं है ? पुत्री ने जवाब दिया, नहीं मैं बहुत खुश है । बस एक बात है पिताजी कि मेरे पतिदेव ब्रह्मऋषि सौभरि जी मुझे छोड़कर अन्य बहनों के पास जाते ही नहीं | इसी तरह राजा ने दूसरी पुत्री से भी वही प्रश्न किया उसने भी पहली वाली पुत्री की तरह ही उत्तर दिया । इसी तरह से राजा मान्धाता को सभी पुत्रियों से समान उत्तर सुनने को मिला । अब राजा सब कुछ समझ गए थे और ब्रह्मऋषि सौभरि जी के सामने हाथ जोड़कर बोले महर्षि ये आपके तपोबल का ही परिणाम है । अंत में राजा अपने राज्य को लौट आये । दाम्पत्य जीवन बिताते हुए सौभरि जी के 5000 पुत्र हुए और कई वर्षों तक ऋषि सौभरि जी ने अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते रहे । 

आज भी उनके वंशज उनकी तपस्थली गांव सुनरख, वृन्दावन(मथुरा), भिंड, जबलपुर, भरतपुर, अलवर सीतापुर, बरेली इत्यादि स्थानों के आसपास निवास करते हैं और इनको अहिवासी ब्राह्मण/आदिगौड़ सौभरेय ब्राह्मण के नाम से जाना जाता है । ब्रजमंडल में स्थित भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भईया 'बलदाउ जी' के मंदिर पंडा/पुरोहित हैं । इनके वंशज जहाँ भी हैं वो सब सुख-संपन्न स्थिति में हैं ।

साभार- ओमन सौभरि भुरर्क भरनाकलां, मथुरा

Thursday, 7 November 2019

स्वसमाज के "Super 50 गाँवों" के नाम बताइये जिनसे सभी उपगोत्रों का प्रादुर्भाव(उत्तपत्ति/निकास) हुआ है?

स्वसमाज के "Super 50 गाँव" जिनसे सभी उपगोत्रों का प्रादुर्भाव हुआ है उन सभी गाँवों के नाम उपगोत्र सहित यहाँ पर दिए जा रहे हैं । ये सभी गाँव देश के अलग-अलग क्षेत्रों में स्थित है । वैसे सभी 'सौभरी वंशजों' का निकास (उत्तपत्ति) गाँव सुनरख, वृन्दावन से हुई है ।

स्वसमाज के उपगोत्रों के "निकास गांव" उन गाँवों को मान लिया गया जब स्वसमाज के लोग गांव सुनरख वृंदावन को छोड़, मुगल बादशाह के अत्याचार की वजह से अलग-अलग गाँवों में विस्थापित हुए । उनका यह विस्थापन उपगोत्रों को ध्यान में रखकर किया गया यानी कि सगोत्र वाले लोगों के परिवारों को एक स्थान पर बसने दिया गया जिससे विवाह संबंध आदि में कोई समस्या ना आये । बाद इन सगोत्र वाले गाँवों में अन्य उपगोत्र वाले लोगों की बसावट जरूरत की हिसाब से हुई जैसे किसी की कोई संतान न होने की वजह से उसके रिश्तेदार जो कि अन्य उपगोत्र थे, या जो अन्य गांवों से अपनी बेचकर इस गांव नें रहने लगे गए हों, उसे आम बोलचाल की भाषा में नाठ पे आना बोलते हैं। इस प्रकार से एक ही गांव में अलग-अलग उपगोत्रों के स्वजन आपस में रहने लग गए। कुछ गॉंव जिनमें एक उपगोत्र बहुलता से रहता है ।

 जैसे- 
गॉंव सीह- सीहइयाँ
गाँव पलसों- परसईयां
भरनाकलां- बरगला
भरनाखुर्द- तगारे   इत्यादि...


ओमन सौभरि भुर्रक, भरनाकलां, मथुरा

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