हिन्दू धर्म में स्वयंवर प्राचीन काल से प्रचलित 16 संस्कारों में से एक पाणिग्रहण संस्कार की परंपरा है जिसमें कन्या स्वयं अपना वर चुनती है और उसके बाद उसी से विवाह होता है। विवाह = वि + वाह, अत: इसका शाब्दिक अर्थ है - विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है जिसे कि विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है परंतु हिंदू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है जिसे कि किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। किसी भी मानव समाज में नरनारी को उस समय तक दांपत्य जीवन बिताने और संतान उत्पन्न करने का अधिकार नहीं दिया जाता, जब तक इसके लिए समाज की स्वीकृति न हो। यह स्वीकृति धार्मिक कर्मकांड को अथवा विधान द्वारा निश्चित विधियों को पूरा करने से तथा विवाह से उत्पन्न होनेवाले दायित्वों को स्वीकार करने से प्राप्त होती है। इस संबंध से पति-पत्नी को अनेक प्रकार के अधिकार और कर्तव्य प्राप्त होते हैं। इससे जहाँ एक ओर समाज पति-पत्नी को कामसुख के उपभोग का अधिकार देता है, वहीं दूसरी ओर पति को पत्नी तथा संतान के पालन एवं भरणपोषण के लिए बाध्य करता है। संस्कृत में पति का शब्दार्थ है : 'पालन ' तथा 'भार्या' का अर्थ है 'भरणपोषण की जाने योग्य नारी'।
विवाह के संख्यात्मक रुप-
पति या पत्नी की संख्या के आधार पर विवाह के तीन रूप माने जाते हैं - 1: बहुर्भायता 2: बहुभर्तृता 3: एकविवाह।
विवाह के संख्यात्मक रुप-
पति या पत्नी की संख्या के आधार पर विवाह के तीन रूप माने जाते हैं - 1: बहुर्भायता 2: बहुभर्तृता 3: एकविवाह।
जब एक पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करता है तो इसे बहुभार्यता या बहुपत्नीत्व कहते हैं। एक स्त्री के साथ एक से अधिक पुरुषों के विवाह को बहुभर्तृता या बहुपतित्व कहा जाता है। एक पुरुष के एक स्त्री के साथ विवाह को एक विवाह या एकपत्नीव्रत कहा जाता है।
विवाह के प्रकार- प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रकारों ने विवाह को ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच नामक आठ प्रकार से बताया गया है । इनमें से पहले चार प्रकार के विवाह प्रशस्त तथा धर्मानुकूल समझे जाते हैं। ये सब विवाह मातापिता की सहमति से किए जाने वाले विवाह के अंतर्गत हैं। किंतु पिछले चार विवाहों में कन्या का दान नहीं होता, वह मूल्य से या प्रेम से या बलपूर्वक ली जाती है।
रामायण और महाभारत काल में भी राज कन्याऐं पति का वरण स्वयंवर में करती थी परंतु पति के वरण करने में स्वतंत्रता न थी। पिता की शर्तों के ही अनुसार पूर्ण योग्यता प्राप्त व्यक्ति ही चुना जा सकता था। कुछ महत्वपूर्ण स्वयंवर जैसे सीता का स्वयंवर, द्रौपदी का स्वयंवर, सावित्री का स्वयंवर, दमयन्ती का स्वयंवर, मान्धाता की 50 बेटियों का स्वयंवर आदि के प्रसिद्ध उदाहरण हैं ।
यहाँ हम मान्धाता की 50 बेटियों के साथ महर्षि सौभरि जी के स्वयंवर की कथा का वर्णन करेंगे...
विवाह के प्रकार- प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रकारों ने विवाह को ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस और पैशाच नामक आठ प्रकार से बताया गया है । इनमें से पहले चार प्रकार के विवाह प्रशस्त तथा धर्मानुकूल समझे जाते हैं। ये सब विवाह मातापिता की सहमति से किए जाने वाले विवाह के अंतर्गत हैं। किंतु पिछले चार विवाहों में कन्या का दान नहीं होता, वह मूल्य से या प्रेम से या बलपूर्वक ली जाती है।
रामायण और महाभारत काल में भी राज कन्याऐं पति का वरण स्वयंवर में करती थी परंतु पति के वरण करने में स्वतंत्रता न थी। पिता की शर्तों के ही अनुसार पूर्ण योग्यता प्राप्त व्यक्ति ही चुना जा सकता था। कुछ महत्वपूर्ण स्वयंवर जैसे सीता का स्वयंवर, द्रौपदी का स्वयंवर, सावित्री का स्वयंवर, दमयन्ती का स्वयंवर, मान्धाता की 50 बेटियों का स्वयंवर आदि के प्रसिद्ध उदाहरण हैं ।
यहाँ हम मान्धाता की 50 बेटियों के साथ महर्षि सौभरि जी के स्वयंवर की कथा का वर्णन करेंगे...
इक्ष्वाकु वंश में युवनाश्व के बेटे राजा मान्धाता अपने दरबार में बैठे हुए थे । उन्हें दरबार में अचानक महर्षि सौभरि जी का आगमन हुआ उन्हें देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गए। राजा ने सिंहासन छोडकर उनका स्वागत किया । राजा मान्धाता ऋषि-महर्षियों का बड़ा आदर-सम्मान करते थे। सौभरि ऋषि का नाम उनके राज्य में विख्यात था उनकी तपस्या से सभी चमत्त्कृत थे । राजा ने उन्हें जल आदि से तृप्त करके सुखपूर्वक बैठाया और तब उनसे कुशल-मंगल पूछते हुए अत्यन्त विनम्रता के साथ आने का प्रयोजन जानना चाहा।
महर्षि बोले, 'मैं तुम्हारी कन्या से विवाह करने का इच्छुक हूँ। आप मुझे अपनी एक कन्या दे दीजिए' । सौभरि जी को पता था कि राजा के मुचकुंद, अंबरीष और पुरुकुत्स नामक तीन पुत्र और 50 कन्याएँ हैं । राजा इस बात को सुनते ही सन्न रह गए। महर्षि को क्या हो गया है ये तो तपोव्रतधारी हैं, फिर अचानक ई के मन में ये विचार कैसे आया, ऐसे राजा मन ही मन सोचने लगे । वे सोचने लगे कि कहाँ यह वृद्ध महर्षि और कहाँ मेरी सुकुमारी बेटी! क्या यह उचित होगा कि मैं अपनी युवा बेटी का विवाह इस वृद्ध पुरुष के साथ कर दूँ। अन्य राजा लोग मुझे क्या कहेंगे, मेरी प्रजा में क्या ख्याति रह जाएगी। इस वृद्ध को देखो, इस आयु में गृहस्थ जीवन बिताने की सोच रहा है, लेकिन इन्कार भी नहीं किया जा सकता। यदि कहीं क्रुद्ध हो गए तो राज्य की खैर नहीं। अंत में राजा ने एक युक्ति सोच ली। वे बोले, 'महात्मन्, हम लोग क्षत्रिय हैं, हमारे यहाँ स्वयंवर का रिवाज है , आप मेरे साथ अंत:पुर में चलें, जो राजकुमारी आपको पसंद कर लेगी मैं उसी से आपका विवाह कर दूँगा।' राजा अपने मंत्री व महर्षि को साथ लेकर महल के रनिवास की ओर चल दिए। राजा ने मंत्री को अंदर भेजा और महर्षि के बारे बताया । मंत्री और राजा को विश्वास था कि उनकी बूढ़ी काया को देखते ही मेरी पुत्री मना कर देगी । मंत्री ने रनिवासबाहर निकलकर महर्षि से हाथ जोड़कर अंदर जाने का आव्हान किया । महर्षि अंदर जाते हुए सोच रहे थे कि मुझे अब अच्छा रूप धारण कर लेना चाहिए ।चलते-चलते ही उन्होने अपने तपोबल से एक अत्यन्त सुंदर युवा का रूप धारण कर लिया। वे ऐसे लगने लगे जैसे साक्षात सौन्दर्य के देवता अनंग हो। उनके सामने कामदेव की कांति भी फीकी थी । जैसे ही सौभरि जी ने रनिवास में अंदर प्रवेश किया सभी राजकुमारियों ने ऋषि के सौंदर्य और आकर्षण को देखकर उन्हें घेर लिया तथा सभी उनके साथ विवाह करने के लिए उत्सुक हो गई । मान्धाता की पुत्रियों की संख्या पचास थी ।
राजा ने यह स्थिति देखकर शुभ मुहुर्त में अत्यन्त उत्साह एवं उल्लास के साथ सभी राजकुमारियों का विवाह महर्षि सौभरि जी के साथ कर दिया। ये अब तक हुए स्वयंवरों में सबसे बड़ा व अद्भुत प्रकार का स्वयंवर था । सौभरि जी केवल एक पुत्री के साथ विवाह के लिए आये थे लेकिन उन पचासों ने ही उन्हें एक वरण कर लिया । राजा ने महर्षि को घर गृहस्थी का सब सामान दिया कि उनको किसी प्रकार की भी कोई चिन्ता न रहे। गायों के झुंड, घोडे विभिन्न प्रकार के वस्त्र, रत्न तथा आभूषण प्राप्त करके ऋषि का मन आनन्दित हो गया। रास्ते में ऋषि ने इन्द्र देवता की प्रार्थना की और उन्हें यज्ञ में उपस्थित होकर भेंट स्वीकार करने का आग्रह किया और विश्वकर्मा से पचासों रानियों के लिए पचास नये भवनों का निर्माण करवाया । इसके बाद वो सब रानियों के साथ सुखपूर्वक रहने लगे और उनको बोला कि चारों तरफ सुन्दर जलाशय और पक्षियों से गूंजते हुए बगीचे हों । शिल्प विद्या के धनी विश्वकर्मा ने वह सारी सुविधाएं उपलब्ध करायीं जो की अनिवार्य थीं । राज कन्याओं के लिए अलग-अलग महल खड़े कर दिए । अब राज कन्यांएं बड़े मधर स्वभाव से वहाँ रमण करने लगीं । एकदिन राजा ने अपनी पुत्रिओं का हाल जानने के लिए महर्षि के श्रम पहुंचे और वहाँ जाकर अपनी पुत्रियों से एक-एक कर वहाँ का हाल-चाल पूछा और कहा की खुश पुत्री तो है ना? तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट तो नहीं है ? पुत्री ने जवाब दिया, नहीं मैं बहुत खुश है । बस एक बात है पिताजी कि मेरे पतिदेव ब्रह्मऋषि सौभरि जी मुझे छोड़कर अन्य बहनों के पास जाते ही नहीं | इसी तरह राजा ने दूसरी पुत्री से भी वही प्रश्न किया उसने भी पहली वाली पुत्री की तरह ही उत्तर दिया । इसी तरह से राजा मान्धाता को सभी पुत्रियों से समान उत्तर सुनने को मिला । अब राजा सब कुछ समझ गए थे और ब्रह्मऋषि सौभरि जी के सामने हाथ जोड़कर बोले महर्षि ये आपके तपोबल का ही परिणाम है । अंत में राजा अपने राज्य को लौट आये । दाम्पत्य जीवन बिताते हुए सौभरि जी के 5000 पुत्र हुए और कई वर्षों तक ऋषि सौभरि जी ने अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते रहे ।
आज भी उनके वंशज उनकी तपस्थली गांव सुनरख, वृन्दावन(मथुरा), भिंड, जबलपुर, भरतपुर, अलवर सीतापुर, बरेली इत्यादि स्थानों के आसपास निवास करते हैं और इनको अहिवासी ब्राह्मण/आदिगौड़ सौभरेय ब्राह्मण के नाम से जाना जाता है । ब्रजमंडल में स्थित भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भईया 'बलदाउ जी' के मंदिर पंडा/पुरोहित हैं । इनके वंशज जहाँ भी हैं वो सब सुख-संपन्न स्थिति में हैं ।
साभार- ओमन सौभरि भुरर्क भरनाकलां, मथुरा
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