इसके कथा को लिखने में मेरा एकमात्र लक्ष्य घरेलू अथवा निजी रहा है। इसके द्वारा परसेवा अथवा आत्म-श्लाघा का कोई विचार मेरे मन में नहीं है। सो ध्येय मेरी क्षमता से परे है। इसे मैंने अपने संबंधियों तथा मित्रों के व्यक्तिगत उपयोग के लिए तैयार किया है जिससे कि वे इन पृष्ठों से मेरे गुण-स्वभाव के कुछ चिह्न सिंचित कर सकें और इस प्रकार जिस रूप में उन्होंने मुझे जीवन में जाना है, उससे अधिक सच्चे और सजीव रूप में वे अपनी स्मृति में रख सकें। अगर मैं दुनिया से किसी पुरस्कार का तलबगार होता तो मैं अपने आपको और अच्छी तरह सजाता बजाता, और अधिक ध्यान से रंग-चुनकर उसके सामने पेश करता। मैं चाहता हूं कि लोग मुझे मेरे सरल, स्वाभाविक और साधारण स्वरूप जो है उसी रूप में देख सकें। आगे वर्णित सभी घटनाओं के वर्णन में मेरे द्वारा लिखित इस "स्वयंकथा" में किसी को आहत करना या गलत तरीके से दर्शाना या किसी से बदले की भावना द्वारा ठेस पहुंचाना अथवा किसी के बारे बारे में गलत लेखन लिखने से बड़ी ही बारीकी बचा गया है ।
ये मेरे लिए सहज, निष्प्रयास प्रस्तुति है , क्योंकि मुझे अपना ही तो चित्रण करना है। आत्मकथा लिखने से पहले आप सुधी पाठकों को मैं यह बताना जरूरी समझता हूं कि मैंने लिखना कब शुरू किया और किसकी प्रेरणा से, ताकि सनद रहे। मैंने आम लेखकों की तरह लेखन की शुरुआत पद्य से नहीं की, बल्कि मैंने शुरुआत ही गद्य से की । "बरसात का वो दिन" मेरी पहली कृति थी जो कि सन 2003 में मैंने पर लिखी थी उस दिन बारिश बहुत थी लेकिन कृति को अंतिम रूप घर पर आकर दिया।
मेरा जन्म हिंदी मास वैशाख शुक्ल कृष्ण पंचमी को सन 1989, दिन मंगलवार को हुआ । हमेशा मम्मी कहा करती थी कि बेटा तेरे जन्म के लिए छोटी बहिन ने तुलसी माता को नहलाने का चलन चलाया था, वो हमेशा मांगती थी कि मेरा भैया बहुत ही सुंदर व शुशील हो । उनके मुताबिक कुछ ऐसा ही हुआ, ये मेरे लिए प्रशंशा की बात है पर इस संदर्भ में इस बात का होना कितना सही है कितना गलत ये में नही जानता ।
थोड़ा बड़े होने पर अब समय आया पढ़ने का तो सर्वप्रथम स्कूल के लिए हम चार दोस्त गए थे जो कि सरकारी स्कूल था पहले ही दिन वहाँ के माहौल को न झेल सके और वापस घर की तरफ भाग निकले । घर वालों को साफ इशारा गया कि ये प्राथमिक विद्यालय में नहीं पढ़ सकते इसके बाद उन्होंने हमारा प्रवेश गांव के ही श्री बिहारी जी महाराज सरस्वती शिशु मंदिर में करवाया । शिशु कक्षा में एक हमारे अध्यापक थे जो की दिव्यांग थे वे बड़े ही कड़क व साथ में मज़ाकिया किस्म के थे । वो चलने के लिए लाठी का सहारा लेते थे और इसी का वो कभी -कभी बच्चों को डराने के लिए प्रयोग किया करते थे । इसके अलावा बच्चों को दंडित करने के लिए खरयाड(डूंगर) की पतली लकड़ी जो कि बड़ी लचीली होती है, का चलन भी उस समय अपनी परम सीमा पर था लेकिन मुझे अच्छी तरह से ध्यान है कि इस महान सेवा से मैं तो हमेशा ही वंचित रहा । इनके अलावा एक और गणित के अध्यापक जी थे, बच्चे उनको सीटी वाले आचार्य जी कहकर पुकारते थे ।
बच्चे उनकी सीटी बजाने के अंदाज से भी डरते थे वो सुबह उठकर तड़के ही आरएसएस वाली शाखा लगवाते थे । वो अपने समय के अनुशासन प्रमुख हुआ करते थे लेकिन उनके पढ़ाने का तरीका बड़ा ही अच्छा था । इसके बाद बड़ी कक्षाओं में उन जैसे आचार्यों की कमी खलती रही ।
अब कक्षा चतुर्थ में आ गया था, एक बार मैं अपने साथियों के साथ ईंट पीटने का खेल खेल रहे थे इसमें ईंट के छोटे छोटे टुकड़ों द्वारा खेला जाता था, इसमें एक ईंट को दूसरे ईंट पे निशाना मारकर आगे की तरफ धकेला जाता था फिर उसके बाद पीठ पर बैठकर(पद्दी पर) वहाँ तक झूला जाता था । लेकिन उसी बीच एक पागल कुत्ता अपने जोश में शिकारियों की तरह हमारी तरफ बढ़ता हुआ आ रहा था ।
उसे देखकर हम भागने लगे कोई किसी घर की तरफ तो किसी घर की तरफ, मैं भी अपनी जान बचाकर भाग ही रहा था की उसने झपट्टा मारकर पीछे से नितम्ब से मांस का टुकड़ा तोड़ ले गया । फिर क्या था जहाँ कुत्ते ने खाया था वहाँ भीड़ जमा थी लोग मुझे मेरे घर तक ले गए, खाया बहुत था माँ ने उस काटी हुई जगह को साबुन से साफ किया लेकिन लोगों ने सुझाब दिया कि रैबीज के इंजेक्शन ही लगवाने पड़ेंगे । अगले ही दिन पिताजी मुझे लेकर मथुरा जिला चिकित्सालय लेकर चल दिये । पहले आने-जाने की इतने साधन नहीं होते थे गाँव की सड़क से गोवर्धन के लिए हमें एक ट्रैक्टर ट्रॉली मिल गया मैं आगे की तरफ ट्रॉली में बैठा था और पिता जी पीछे की तरफ हम गोवर्धन पहुँचने ही वाले थे की पीछे से आवाज की कोई बुड्ढा गिर गया, मुझे आभास हुआ कि कहीं पिताजी(दादा) तो नहीं गिर गए मैंने उझककर देखा तो पिताजी ही नीचे गिरे हुए नज़र आये ट्रैक्टर वाले ने फटाफट ब्रेक लगाया गिरने से उनके हाथ सड़क से रगड़ कहकर छिल गए थे । फिर भी वो मुझे हॉस्पिटल तक लेकर गए । हम लगातार 14 दिन तक मथुरा गए और आये क्योंकि इंजेक्शन नित्य 1 जो 14 दिन तक लगवाने थे । एक रात के लिए हम अपने गाँव वालों के यहाँ रुके उनका मथुरा के अंदर घर बना हुआ था उसी दिन हम पहली बार श्रीकृष्ण जन्मभूमि भी देखने गए जैसे ही ठीक हुआ उसके कुछ दिन बाद ही दादी जी चल बसी । अपने और दूसरे घर वालों के बच्चे पालने में उनका बड़ा योगदान रहा । उनकी अस्थियां विसर्जन के लिए मैं और मेरे मौसा जी को गंगाघाट (राजघाट) जाने का सौभाग्य मिला । वो मेरा प्रथम गंगा स्नान था ।
इसके एक साल बाद कक्षा 5वीं में मैं आया पहली बार हमारे सामने स्कूल द्वारा प्रतियोगिता का आयोजन किया जिसमें बाहर के सरस्वती शिशु मंदिर स्कूल से बच्चे आये । यहाँ पर खेलकूद के अलावा संस्कृति ज्ञान परीक्षा भी आयोजित की गई जिसमें शिक्षक भी शामिल थे, उसमें मैंने प्रथम स्थान प्राप्त किया । ठीक उसी साल छ्ब्बीस जनवरी पर लड़कों द्वारा आजाद भगत सिंह तथा लड़कियों द्वारा कृष्ण सुदामा नाटक किया गया लेकिन लड़कों के मुताबिक लड़कों को कम प्रोत्साहित किया गया और इनके ईनाम की जो वस्तुएं थी वो सस्ती थी, ऐसा हमें उस समय लग रहा था । हम सभी बच्चों को प्रधानाध्यापक पर गुस्सा आ रहा था । हमारे पड़ोस के ही एक शिक्षक वहाँ पढाते थे उन्होंने हमको जैसे-तैसे समझाया कि भाई ऐसा कुछ नहीं है हमने समानता का व्यवहार किया है । फिर अंत सारे लोगों के जो घड़ियाली आँसू बहा रहे थे वो सब शान्त हो गए । इसी साल हमने नवोदय का फॉर्म पड़ोस के शिक्षक जी जिन्होंने कई लड़कों का उत्साहवर्धन करने हेतु भरवाया था सभी ने तैयारी की इस बैच में से टेस्ट पास करने की 2-3 लड़कों की प्रबल दावेदारी थी जिनमें मैं भी था लेकिन दुर्भाग्यवश किसी का नम्बर नहीं आया । उस पूरे बैच में से सिर्फ एक लड़की ही नवोदय परीक्षा उत्तीर्ण कर पायी ।
अब हमारे गाँव में 5वीं से ऊपर की कक्षा की पढाई के लिए स्कूल नहीं था, मैंने और साथ के बच्चों ने एक साथ छठवीं के लिए सरस्वती विद्या मंदिर जतीपुरा हिंदी मीडियम व अक्खानगला वाले cbse स्कूल में प्रवेश परीक्षा दी जिसमें जतीपुरा वाले स्कूल में कक्षा छठवीं के लिए मुझे प्रथम स्थान मिला व cbse वाले में सिर्फ पास हुआ क्योंकि मैं हिंदी माध्यम से था लेकिन अंत में सरस्वती स्कूल को ही चुना, पहली बार स्कूल बस में जाने का मौका मिला । वहाँ भी अपनी कक्षा में प्रथम व संस्कृति ज्ञान परीक्षा में पूरे स्कूल में टॉप किया । एक वहां अनुशासन प्रमुख शिक्षक थे वो हमेशा कहते थे कि हमें तुम पर व एक लड़का और था जो कि उस समय 9वी में पढ़ता था उस पर भी हमको बहुत ही गर्व है ।
उस साल के समाप्ति पर बस का संचालन रुक गया इसलिए सातवीं के लिए हमें वहाँ से स्कूल छोड़ना पड़ा वहाँ के अध्यापक हमारे गाँव भी आये थे कैसे भी व्यवस्था कर लो जिससे बच्चों का आवागमन प्रभावित न हो लेकिन बात नही बनीं । फिर हम सभी लड़कों ने, जो ज्यादातर हमारे ग्रुप के थे सभी ने श्री महर्षि सौभरि विद्यालय भरनाखुर्द में प्रवेश लिया । पहली बार हमने वहाँ पहली नियमों से परे खुला माहौल देखा, वहाँ विद्यार्थियों के लिये यूनिफॉर्म नहीं होता था । प्रार्थना भी अलग तरीके से खड़े होकर कराते थे साथ ही जब परीक्षायें पास होती थीं तो अति महत्वपूर्ण प्रश्नों पर हिंट के तौर पर निशान लगाने की परम्परा बड़ी ही प्रसिद्ध थी जो कि एक नकल से पहले की स्टेज थी । वो बच्चों के लिए मीठा जहर था, जब अध्यापक प्रश्नों पर निशान लगवाते थे कि इन प्रश्नों में से परीक्षा होगी तो शुरुआत में बड़ा गुस्सा आता था लेकिन हम सब इसके आदि हो गए ।
मैं यहाँ दो साल पढ़ा दोनों साल इस परंपरा में भी मैं अव्वल रहा दोनों ही बार प्रथम स्थान प्राप्त किया । यहाँ सबसे खासियत खेलकूद व अंग्रेजी स्पेलिंग्स की प्रतियोगिता, जो कि हर शनिवार को हुआ करती थी जिसमें हमारी कक्षा वाले सदा आगे ही रहते थे ।
क्रिकेट मैच, फ़ुटबाल आदि खेल के लिए अलग-अलग गांव के हिसाब से टीम बांट लेते थे ।
अध्यापक सारे के सारे अच्छे थे । यहाँ भी फिर एक समस्या थी आगे के लिए की यह स्कूल आठवीं तक था ।
अब 9वीं के लिए पास में कोई विकल्प नहीं था। हमारे गांव में एक साल पहले एक नया इंटरकॉलेज खुल गया था । वहाँ मैंने औऱ साथियों ने प्रवेश लिया ।
हमारे पड़ोसी गुरु जी जो कि सरस्वती शिशु मंदिर में पढ़ाते थे वो यहां प्रधाचार्य बन कर आये ।
इसी साल सबसे दुखद घटना वो बनी जो दिलोदिमाग के लिये आज भी नासूर बनी हुई है । इस घटना ने परिवार की क्षमता को कमतर आंकने का मौका दिया । ये घटना जमीनी विवाद को लेकर हुई, हमारी 12 एकड़ जमीन में से 4 एकड़ भूमि चकबन्दी से बाहर रह गयी थी क्योंकि थोड़ा झील क्षेत्र था इस वजह इस 4 एकड़ का अलग चक नहीं कट पाया ।
इसमें से पिताजी ने कुछ जमीन की मेड़बन्दी करा रखी थी और कुछ हमेशा पानी भरा रहने कारण ऐसे ही पड़ी थी । एक समय जब हमारे बाबा हुआ करते थे तब की मज़ाल नहीं थी उस जमीन की तरफ कोइ आंख उठा के देखे लेकिन पिताजी वाली पीढ़ी धन और बल दोनों से थोड़े कमजोर थी ।
इस वजह से लोगों की नजरें उस जमीन के उस 1.25 बीघा पर थी जो गांव से बिल्कुल सटा हुआ था । एक पड़ोस के सज्जन के सलाह पर उस पैमाइश करने के लिए तहसील में दरख़्वास्त लगायी । इस जमीन की पैमाइश के लिए पिताजी ने बहुत चक्कर काटे लेकिन अंततः कोई पटवारी और कानूनगो कोई भी नहीं झांका 1-2 साल ऐसे ही निकल गए । एक समय आया जब पटवारी का आना हुआ लेकिन वो चाय पानी पीने तक सीमित था वो एक गांव के मुकदमा के दरवाजे से आगे ही बढ़ता और दूसरी बात इसमें ये हुआ करती थी कि जो लोग नहीं इसकी पैमाइश हो वो लोग, झील होने के कारण इसमें बम्बे से पानी छुड़वा दिया करते थे । उस जमीन से सटे सारे लोगों की एक कमेटी बनी हुआ थी ये जमीन हड़पनी है चाहे कुछ भी हो । उनके आपस में 15 सालों से चल रहे विवाद को खत्म कर राजीनामा इसलिए किया हमारी जमीन में से हिस्सेदारी कर लेंगे । ऐसी स्थिति में पिताजी डर गए उन्होंने इससे पहले ऐसा महाठगबन्धन नहीं देखा था । उन्हें ना तो सरकार की तरफ से पैमाइश की तसल्ली दी गयी और ना ही अपने भाईचारे द्वारा कोई समर्थन । पिताजी ने अपने मौसी के लड़के से गुहार लगाई लेकिन उन्होंने भी अनसुनी की । फिर अंततः उनको ऑफर किया हम दोनों भाई इस जमीन को आधा-आधा कर लेंगे लेकिन इस बार पैमाइश करवा लीजिये मिलकर लेकिन सब बेकार उनकी तरफ से कोई तस्सल्लीबक्श उत्तर नही आया और कुछ दिनों बाद वो मौसा इस विवाद जी वजह से गांव छोड़कर दिल्ली भाग गये । वो मौसा जी कायर निकले जिनको पिताजी ने हर काम में एक सलाहकार की भांति मानते थे । अब पिता जी के कोई ऑप्शन भी नहीं था । नाते-रिश्तेदारों से भी पैरोकारी करने के लिए बोला, उसके लिए हमारे जीजा जी ने थोड़ी कमान संभाली । उन्होंने पिताजी को बताया कि यह जमीन लगान वाली है इसमें कोई दखलन्दाजी नही कर सकता । पहले इस जमीन की नापतौल करा लेते हैं । वो अपने गाँव के 2 अच्छे जानकारों को लेकर पैमाईश के लिए जुगाड़ लगाई उन्हें उम्मीद थी काम हो जाएगा । इधर पिताजी के ऊपर एक परिवार जो कि धनबल से सम्पन्न था उनकी तरफ से गीदड़ धमकियां आने लगी कि इस जमीन के आधे हिस्से पर हमारी हिस्सेदारी है ।
अब पिताजी लगने लग गया अब बात बनेगी नहीं और सोचा पैसे से ही कुछ हो सकता है और पैसा ज्यादा उनके पास नहीं था । उन्होंने गांव के ही पास एक दूसरे जमीन के टुकड़े को बेचने का प्लान बनाया जो भी पैसा वहाँ से मिलेगा उसकी ईंट वगैरह मँगाकर बाउंडरी करवा देंगे । आखिरकार उन्होंने 2.5 लाख रुपये की उस जमीन की टुकड़ी को बेच दिया इन रुपयों में से 4-5 ट्रॉली ईंटो की मगवांकर रखवा ली । लेकिन वो भूल गए जब तक पैमाइश ही नहीं होगी तो बाउंडरी को कोई सवाल ही नहीं उठता । फिर ऐसे ही साल-छह महीने निकल गए । अंत में पिताजी एक मुकदम के पास गए कि और बोले कि इस मामले को रफादफा कराए लेकिन कोई भी हो सबका समर्थन और झुकाव धींगरा(ताकतवर) की तरफ़ ही होता है । मुकदम जी ने बिचौलिये की भूमिका निभाते हुए हमको और एक विपक्ष के उस परिवार को जो जन तथा धनबल से सम्पन्न था उनको पास बुलाकर एक डील की तुम दोंनो आदमियों की जमीन के पीछे एक दूसरे की जमीनें आ रही हैं तबादला कर लीजिये ये दोनों के लिए माफ़िक़ रहेगा ।
लेकिन हमें उस डील से दिक्कत थी क्योंकि हमारी 25 विसा जमीन और उनकी 4 विसा । ये बिल्कुल असम्भव था लेकिन पता नहीं कैसे इस डील को किस प्रकार अंतिम रूप दिया वो पिता जी और उनको ही पता है । डील भी इस प्रकार हुई कि आपको 4 विसा की जगह 5 विसा दिया जाएगा क्योंकि 1 विसा ग्रामसमाज में से बढ़ाकर दिलवाएंगे वो 5 विसा जमीन हमारे 25 में से घटा देंगे और बची जमीन को 1 लाख रूपये बीघे के हिसाब से पैसे हमको दे देंगे । जबकि उस समय 4 साल पहले हमारा जमीन का टुकड़ा 2.5 लाख में गये था । जल्दबाजी में हाँ करने के लिए उनके मुताबिक दवाब डाला गया और 10 हजार रुपये बयाना स्वरुप पिताजी को दे दिए और वे सब बोले डील पक्की और नसीहत दी कि ये तुम्हारे लिए सबसे ज्यादा मुफीद है ।
पिताजी सीधे उन 10 हजार रुपयों को लेकर सीधे घर आये उनकी आंखें नम थी , आत्मविश्वास बिल्कुल गिरा हुआ था, देखकर उन्हें ऐसा लग रहा था कि वो आज सबकुछ लुटाकर आये हैं । वो अपने आप को बहुत ठगा महसूस कर रहे थे ।
मम्मी ने हालात जानने की कोशिश की । पिताजी ने अपने साथ घटित उन सभी बातों का ज़िक्र किया । मम्मी ने सब सुनकर 10 हजार रुपयों को वापस उन्हें लौटाने को को कहा । लेकिन पिताजी इस वजह से लौटाने से कतरा रहे थे उन्हें चारों तरफ से सिर्फ डर का माहौल नज़र आ रहा था उनकी आंखें हम तीनों भाइयों पर टिकी हुई थीं वो कोई और उपाद नहीं चाहते थे । उनकी खामोशी बता रही थी उन्होंने जो निर्णय लिया वो बिल्कुल आज की परिस्थिति के हिसाब से ज़ायज़ है । फिर भी मेरी माँ इसी बात पर अड़ी रहीं की ये डील हमें स्वीकार नहीं । लेकिन आखिरकार पिताजी वाली बात को ही अमल में लाया गया । अब पूरी तरह एक -दूसरे की जगहों के तबादला हो गया था बची जमीन के चंद पैसे मिल गए थे और बहनामा उनके नाम चढ़ा चुका था । इसी जमीन की खातिर पहले बाउंडरी के लिये 15 विसा और अब 1.25 बीघा जमीन अपने जमीन के कागजों के नक़्शे से कट चुकी थी ।
हमारा परिवार की कमर एक तरीके टूट चुकी थी । विपक्ष में ख़ुशी का माहौल था और और दूसरे विपक्षी जिन्होंने जमीन हड़पने का मन बना रखा था, उनके सपने टूट चुके थे ।
जब ये सब घटना घटी थी तो 14 वर्ष का रहा हूंगा हाँ सच कहूं तो तब से लेकर आज तक उस कमजोर छबि का आभास अपने आसपास हमें देखने को मिलता है । 1.5 साल पहले ही पिताजी छोड़ चुके हैं लेकिन उन्हें हमेशा इन दोनों जगहों का मलाल था । वो सोचा करते थे कि अगर कर्ज से दबा हुआ होता तब ये जमीन जाती तो मलाल नही होता लेकिन ये सब पैसे की नही बल्कि सोच व जनबल की कमी से हुआ ।
एक चीज और पिताजी को लगती थी कि अगर मैं पैमाइश व डील के चक्कर में ना आता तो उनकी व अन्य लोगों की गीदड़ धमकियां काम ना आती क्योंकि वो जमीन लगान वाली थी उसे कोई भी हथिया नहीं सकता था । हम डर गए थे उस ठगबंधन से । जिन लोगों ने उस विपक्षी लोगों को बढ़ावा दिया था आज उन्हीं की नाक में दम कर रखा है आज उनके सामने ज़्यादा कोई बोलने वाला नहीं । मैं फिर याद दिला दू की इस घटना को किसी व्यक्ति व परिवार से हीन भावना के लिए नहीं लिखा बस जो घटित हुआ वही लिखा, कोई सज्जन पढ़ कर बुरा न माने ।
नौवीं कक्षा के वार्षिक परीक्षाओं के बाद अपनी शादी का समय आ गया जो कि यह मुझे बालविवाह पीड़ितों की श्रेणी में खड़ा करता है । शादी के रिश्ते हमारे यहाँ उस समय जल्दी ही हो जाते थे । जब 18 वर्ष से ऊपर होने पर लाल रेखा खिचना शुरू हो जाती थी । बारात भी दो दिन की हुआ करती थी । अपने गांव से जाने वाली बारातों में बच्चे अधिक होते थे । बाराती रात को अपने अपने रिश्तेदारों के यहाँ सोते थे । लोगों का टोला का टोला एक-दूसरे के यहाँ रुकता था ।
जिनके उस गाँव में रिश्तेदारी नहीं हुआ करती थी ।
मेरी बारात भी उस गांव में गयी जहाँ मैं सातवी आठवी पढ़ के आया था । यह गांव हमारे गाँव से 3 किमी दूरी पर है ।
शादी के बाद ससुराल वालों की तरफ से जब वो अपनी लड़की को 4-5 दिन बाद लेकर आते थे तो वो भी 1-2 का ठहराव रखते थे । लेकिन गांव पास होने के कारण 1 ही दिन का कार्यक्रम रहा । इसके पढ़ाई का सिलसिला यूँ ही चलता रहा, 2 महीने बाद हाईस्कूल में आया और समय निकलते-निकलते बोर्ड परीक्षा भी आ गयी । और हम गांव में जिस स्कूल में पढ़ते थे उसको मान्यता नही थी वो दाऊजी के एक स्कूल से जुड़ा हुआ था । उस दाऊजी वाले स्कूल का परीक्षा केंद्र दाऊजी के पास था
सन 2006 में भी नकल कराने का सिलसिला उत्तरप्रदेश बोर्ड में चरम पर था । यूपी के सरकारी स्कूल में सेंटर था शाम को हम मुआयना करने गये सबकुछ ठीक ठाक था लेकिन अगले ही दिन वहाँ पहुँचे तो सारे जंगलों (जालों) के किनारे दीवारों में लोगों ने नकल कराने के लिए पूरा इंतज़ाम कर रखा था ।
छात्र को विद्या क्वेश्चन बैंक भी ले जाते थे जिसमें सारे प्रश्नों के हल और उत्तर लिखे होते थे । नकल भले सबने खुल के की लेकिन जब परिणाम आये तो प्रतिशत बहुत ही कम आये फिर भी मैं प्रथम रहा ।
हाईस्कूल के बाद 11वीं की पढ़ाई मथुरा से की पहली बार घर से बाहर व शहर में रहने का मौका मिला । वहाँ पर ट्यूशन लगाकर के ग्यारवीं और 12वीं की तथा 12वीं बोर्ड परीक्षा दाऊजी के पास एक स्कूल में संपन्न हुई । 12वी की परीक्षा में दोस्तों के साथ का सफर सबसे मजेदार रहा क्योंकि हम सबने एक साथ रहकर के ये परीक्षायें दी । एक दिन छुट्टी वाले दिन सारे के सारे यमुना नदी के किनारे स्नान करने गए और कुश्ती का खेल भी खेला । 12वीं के परिणाम के बाद सबसे बड़ी चुनौती होती स्नातक के लिए अपना क्षेत्र चुनना । इसके लिए कोई गाइड करने वाला नही था लेकिन उस समय कंप्यूटर फील्ड की डिग्री करना बहुत ही प्रशंसनीय बात थी ।
BCA करने के लिए मथुरा के एक कॉलेज में प्रवेश लिया, सारा पाठ्यक्रम अंग्रेजी में था ये मेरे लिए सब कुछ नया था । 1st सेमस्टर की परीक्षा देने के बाद उसका परिणाम आने वाला था । मैं बहुत खुश था। लेकिन सब सोच के विपरीत निकल 72%बनी लेकिन 1विषय में बैक थी, मुझे नहीं पता था ये बैक मेरा मानसिक स्थिति को कितना प्रभावित करने वाली थी । अगले साल मैंने इसका रीएग्जाम देकर क्लियर करा लिया ।
एक बार की बात है जब मैं llnd सेमस्टर में था, हम कक्षा में बैठे हुए थे, कोई भी प्राध्यापक कमरे में नही था एक लड़का उठकर ब्लैक बोर्ड पर उर्दू के कुछ शब्द नस्तालिक लिपि में लिखने लगा, खासकर मुझे वो बड़ा अटपटा लगा, मेरे मन में ख्याल आया कि ये वन्दा हिंदी भी लिखना जानता है, अंग्रेजी भी लिखना जानता है तो हमसे ये एक लिपि फालतू कैसे जानता है । मैंने उसे लंच के बाद पूछा । उसने बताया कि वह मदरसे में पढ़ा है इसलिए ये सब लिखना जानता है । जब मैंने उससे सीखने की इच्छा जाहिर की तो उसने 'हिंदी-उर्दू मास्टर' किताब लाने को कहा कि इससे 1 महीने में सीख सकते हो । मैं मथुरा की बुक मार्केट 'भैंस बहोरा' गया लेकिन वहाँ नहीं मिली उसी दिन होलीगेट मार्केट गया वहाँ पर यह पुस्तक मिल गयी और घर लाकर इसनें उर्दू अल्फाज सीखने लगा कुछ दिन बाद पंजाबी भाषा की लिपि गुरूमुखी सीखने का मन आया मैंने सारे अक्षर एक ही दिन में सीख लिए । फिर इसके बाद बंगाली पुस्तक लाया । मैं उस समय भाषा से ज्यादा लिपि को वरीयता देता था । धीरे-धीरे यह सब सीखने के बाद दक्षिण भारत की द्रविड़ भाषाओं की लिपि को सीखने का मन बनाया । तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम आदि भाषाओं की किताब मुझे मथुरा में ना मिलकर आगरा मिली और उन लिपियों को लिखने व पढ़ने का मन बनाया । इसके बाद एक बैक 4th सैम की थी वो क्लीयर नही हुई 2011 में पासआउट होना था लेकिन मैंने MCA में प्रवेश इस वजह से लिया कि अगर परिणाम आ जायेगा तो कंटीन्यू करूँगा नही तो ड्राप कर दूंगा, अंत मुझे ड्रॉप ही करना पड़ा लेकिन ये स्नातक की पढ़ाई बैक के चक्कर में 2 साल बाद पूरी हुई इसके चक्कर में 9 विजिट मैंने यूनिवर्सिटी में की ।
जॉब और पढ़ाई के लिए मैं और एक साथ का लड़का नोएडा आये । हमारे रुकने को कोई ठिकाना नही था, साथ वाले लडके का एक दोस्त नोएडा रहता था हम 10-12 दिन उसके यहाँ रुके । जिसके यहाँ रुके वो लड़का पण्डों का था वो रियलस्टेट में जॉब करता था । कुछ दिनों बाद हमने रहने के लिए चार वंदों ने रूम ले लिया । चौथा वन्दा भी सहपाठी था वो भी रियल स्टेट में काम करता था । मुझे डॉटनैट की कोचिंग अधूरी छोड़नी पड़ी क्योंकि साथ वाला वन्दा कोचिंग बीच में से ही छोड़कर जॉब के लिए देहरादून चला गया । मैं भी घर आ गया फिर इसके छह महीने बाद आकर कोचिंग शुरू की ।ग्रेजुएशन के एग्जाम देने के बाद मैं और एक दोस्त नोएडा आये, यहाँ डॉटनैट की कोचिंग सर्च की । सर्च करने के लिए मैं , दोस्त और तीसरा वंदा जिसने ढूंढवाने में मदद की । कई कोचिंग सेंटर देखे लेकिन सेक्टर 16 स्थित ड्यूकैट कोचिंग सेंटर में हमने 6 महीने के लिए फीस सबमिट की । साथ वाला वंदा कहता रहता था कि भाई कोचिंग के साथ-साथ कुछ जॉब का विकल्प भी हो तो अच्छा होगा । हमने 1 कॉल सेंटर में जॉइन किया । सिर्फ एक महीना ही काम किया और प्रण किया मैं आगे कभी कॉल सेंटर जॉइन नही करूँगा ।
जॉब छोड़ने के बाद इन दो सालों के दौरान मैं NCR में था ये दो साल मेरे लाइफ के सबसे कठिन व डिप्रेशन वाले रहे । एक स्थिति ऐसी आ गयी कि मैंने हॉस्पिटल्स में दिखाना शुरू कर दिया । AIIMS, सफदरजंग, मोतीबाग अस्पताल दिल्ली में चेकअप वगैरह कराए लेकिन सब निर्रथक निकले डॉक्टर बस यही बोलते थे कि भाई आप टेंशन लेते हो रिलैक्स रहो और दवा लेते रहो उन दो सालों में दवाओं की गर्मी से मैंने शर्दियों में जर्सी भी नही पहनी थी, एक भी बार जुकाम भी नहीं हुआ था ।
इन दिनों में मेरा आत्मविश्वास सबसे निचले स्तर पर था । मैं कभी-कभी छुप के रोता था, मैं कई बार रोया, लेकिन रोने से कुछ होने वाला नहीं था । मेरे पास जॉब के लिये सर्टिफिकेट्स नहीं थे मुझे ऐसा लगता था कि काश में भी अन्य दोस्तों की तरह जॉब कर रहा होता इसलिए अपना समय काटने के लिए में भारत के कई शहरों में गया । मुझे ऐतिहासिक भ्रमण करना पसंद था । मैं जयपुर, बालाजी दौसा राजस्थान, ज्वालादेवी हिमाचल, वैष्णों देवी जम्मू कश्मीर, बाघ बॉर्डर पंजाब, अहमदाबाद गुजरात, पुणे, मुम्बई, शिरडी महाराष्ट्र, हैदराबाद तेलंगाना, कोलकाता, गंगासागर पश्चिम बंगाल आदि जगहों पर गया ।
जब कोलकाता गए थे तो हम दो लोग थे एक दोस्त भी साथ था मैंने उससे कहा कि भाई गंगासागर घूमकर आएंगे वो तैयार था लेकिन उसकी सैलरी आनी बाकी थी लेकिन हम सैलरी आने से पहले ही निकल गए । हमारे पास कुछ ही रुपये थे उम्मीद थी सैलरी शाम तक ही आयगी हम स्टेशन पहुच चुके थे लेकिन सैलरी नही आई ट्रैन का टाइम हो चुका था । एक बार सोच प्लान कैंसिल कर दें लेकिन सोचा की आज अगर कैंसिल कर दिया तो पता नही फिर कब जाना हो ।
इसलिए बिना टिकट ही चल दिये । ट्रैन शाम को चली और पूरी रात भर में उसने यूपी पार कर दिया और बिहार की सीमा में प्रवेश किया थोड़ी देर बाद एक टीटी हमारी तरफ बढ़ा आ रहा था मुझे थोड़ा डर का आभास हुआ लेकिन मैं निश्चिंत इसलिए था कि वो जो दोस्त था वो संभाल लेगा टीटी ने बोला टिकट भाई, मैंने उसको दोस्त की तरफ इशारा करते हुए बोला की इसके पास हैं टिकट हैं वो देगा दोस्त थोड़ा मुस्कराया और इशारे से कहा ठीक है मैं संभाल लूंगा । पता नही कैसे संभाला उसने टीटी मात्र 120 रुपये लेकर ही मान गया मैं ऊपर वाली शीट से उतर आया और उसकी पीठ थपथपाई अब ध्यान नही वो कोनसा स्टेशन था । अब थोड़ी देर बाद हम आराम से सीटों पर बैठ गए । पूरा बिहार, झारखंड पार करते हुए ट्रेन बंगाल की सीमा में प्रवेश कर गयी । शाम 7 बजे तक हम हावड़ा रेलवे स्टेशन पहुँचे । बिल्कुल अनजान जगह, हमको वहाँ का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था बेटिकटी किधर से निकलते हैं लेकिन हम सीधे चलते जा रहे थे अंत मे हम स्टेशन के बाहर आ गए । अगले दिन हम सुबह पूरे कोलकाता में घूमे । उस समय धूम-3 वाली फ़िल्म के आमिरखान का टोपी वाला लुक बहुत प्रसिद्धि पा रहा था । उसी लुक में साथ वाला लड़का कोलकाता की सडकों पर टहल रहा था कोलकाता वाले लोग उसे धूम-3 कह कर पुकार रहे थे ।
वहाँ हमारे लिए नेहरू तारामंडल व ट्राम रेल का सफर बिल्कुल नया था । पूरा दिन घूमने के बाद अब तक चुके थे, अब अगले दिन के लिए सोचने लगे । सुबह तड़के ही सियालदाह स्टेशन से गंगासागर द्वीप की तरफ जाने वाले शटल में बैठ गए । शटल में लोगों ने मछलियां ही मछलियां भर रखी थी लेकिन हम उन डिब्बों में नहीं बैठे ।
चारों तरफ पटरियों के किनारे पानी ही पानी भरा था । आखिरकार में काकद्वीप रेलवे स्टेशन पहुँच गए जहाँ से हमें वेसल में बैठकर सागरद्वीप पर जाना था । शायद 8 रुपये की टिकट थी वो सरकार की तरफ से सेवाएं दे रहे थे ।
वहाँ से हमको उसी द्वीप पर 30km और चलना था, परिवहन के लिए जीप व जिप्सी की अच्छी व्यवस्था थी । वहाँ भीड़ भी अच्छी खासी थी । लोग सड़कों के किनारे घर बनाकर रहे थे । 1 घण्टे के अंदर हम समुद्र के किनारे पहुंच गये । वहाँ पहुँचकर आराम से स्नान किया समुद्र की बड़ी-बड़ी लहरें बार उठ-उठकर आ रहीं थीं । पहली बार हमने समुद्री बीच देखा था । समुद्र के किनारे से पानी के अंदर लगभग 200 मीटर की दूरी पर एक मंदिर की चोटी नज़र आ रही थी । वो किसी समय पूजा-अर्चना का बड़ा स्थल था लेकिन उसकी जगह पर एक और कपिल मुनि का एक और बढ़िया मन्दिर का निर्माण साधू-संत व अन्य संस्थाओं ने करा दिया था । अब खाने की तलाश में निकल गए और एक ऐसा होटल ढूंढा जो बिल्कुल शुद्ध शाकाहारी था । वहाँ ज्यादातर होटल पर मछ्ली का मिलना आम बात थी । ऐसा हम लोग पहली बार देख रहे थे, हमारे ब्रज में मंदिरों के आसपास कोई भी मांसाहार नही कर सकता । वहाँ से उन्हीं जीपों के माध्यम से लौटकर आ गए जिस तरह गए थे । वेसल(पानी का जहाज) वहाँ से शाम चार बजे निकलना था लेकिन नदी में पानी कम पड़ने की बजह से 6 बजे निकले और एक विशेष प्रकार की मशीन द्वारा पानी का स्तर बढ़ाकर वेसल को किनारे पर लाया गया ।
वहाँ से उतर कर सीधे स्टेशन से कोलकाता और कोलकाता से दिल्ली के लिए ट्रेन में बैठ गए ।
एक बार 2016 में बच्चों के साथ दिल्ली घूमने का ख्याल आया । उस समय मैं गाजियाबाद रहता था वहाँ से मैट्रो ट्रेन लेकर वाया नोएडा हम चांदनी चौक स्टेशन पुरानी दिल्ली पहुँचे । वहाँ से रिक्शा से लाल किला पहुँचे । हम चार जन थे जिसमें मैं, मेरी पत्नी, लड़का और बड़े भैया की लड़की । बच्चे करीब 5 साल के थे, घूमने के लिहाज से छोटे थे । उनके लिए दिल्ली का अनुभव नया था । वहाँ बिक रही आइसक्रीम को देखकर बच्चों के मुँह में पानी आ रहा था ।
मैंने उनको आइसक्रीम दिलवाई इसके बाद हम टिकट खिड़की पहुँच गए और वहां से टिकट खरीदकर मुख्य द्वार की तरफ जहाँ से लोगों को अंदर जाने दिया जा रहा था, की तरफ पहुँचे । किले के अंदर घुसते ही एक बाजार लगता है उसको पार करते ही एक संग्रहालय आता है जहाँ हमारे देश की सेनाओं के कुछ शस्त्र इत्यादि प्रदर्शनी के तौर पर लगा रखे हैं । इसको देखने बाद बादशाह के तख्त के पास गए जहाँ बैठ कर अपने निर्णय सुनाया करते थे ।
इसको देखने बाद बादशाह के तख्त के पास गए जहाँ वो बैठा करते थे । अंदर सबकुछ देखने के बाद हम लालकिले के बाहर आ गए । बाहर से हम दिल्ली वाली हरी रंग की बस में चढ़ने लगे पहले पत्नी और फिर मैं दोनों बच्चों के साथ, तभी एक जेबकट पीछे से चढ़ गया । वो बड़ा शातिर किस्म का था दिल्ली की बस वैसे ही भीड़ से भरी पड़ी रहती हैं । वो बिल्कुल मेरे किनारे चिपक कर खड़ा हो गया , उसने मेरे पैंट की जेब में हाथ जैसे ही डाला मुझे आभास हो गया । इतने में ही मैंने जोश में उसके उल्टे हाथ का थप्पड़ उसके मुँह पे जड़ दिया । वो भौचक्का से देखता रह गया । फिर मैंने उसे बस गेट से धकेलते हुए बाहर निकाला उसने कुछ नहीं कहा । जैसे ही वो बस से नीचे उतरा पूरा लाल-पीला हो गया और बस के बगल वाली खिड़की के शीशों पर चढ़कर अपनी भड़ास निकालने लगा ।
पूरी बस खामोश थी किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ रहा था किसी ने विरोधाभास नही जताया । फिर उसने अपनी जेब टूटे शीशे निकाल कर मेरी तरफ फेंके । एक टुकड़ा मेरी आँख के नीचे वाले हिस्से पे लगा, आंख बच गयी, मैं भी खामोश था क्योंकि जिस खिड़की पे चढ़ा था उसी के किनारे हमारे बच्चे बैठे हुए थे, अच्छा ये हुआ कि उसने वो शीशे के टुकड़े उन पर फेंके । मैंने कंडक्टर को बोला भाई तुम बोल क्यों नही रहे हो इससे ये बस पे लटककर चल रहा है, लेकिन वो भी खामोश । भीड़ इतनी थी बस धीरे-धीरे चल रही थी । जैसे ही रास्ता साफ हुआ बस की गति बढ़ी वो कूद गया । वो जेबकट किसी ला सकता था इसकी वजह से हम अगले स्टैंड से बस बदलकर मेट्रो से गाज़ियाबाद आ गए ।
लोग खाली समय में वीडियो गेम खेलते थे लेकिन मैं हमेशा खाली समय में अक्षरों की दुनिया में डूबा रहता । छात्रों के लिए साक्षरता का पहला चरण वह होता है, जब वे इस बात से अवगत होने लगते हैं कि उनके चारों-ओर दिखाई देने वाले प्रिंट में कोई अर्थ भी छिपा है। घर पर और समुदाय में ‘परिवेशी प्रिंट’ ही अक्सर वह पहला लेखन होता है, जिसे पढ़ना छात्र सीखते हैं। यह ऐसा लेखन है, जो दैनिक जीवन का एक अंग है – हमारे आस-पास विभिन्न संकेतों, टिकटों, अख़बारों, पैकेटों और पोस्टरों पर दिखने वाला लेखन। छात्र जब स्कूल में आते हैं, तो उन्हें परिवेशी प्रिंट के नए स्वरूप देखने को मिलते हैं: चार्ट, सूचियाँ, अनुसूची, लेबल और सभी तरह की पठन सामग्री। मैंने दो भाषाओं कीअलग अलग लिपियों के अक्षरों की तुलना कर इनको सीखा । कल्पनाओं, इच्छाओं, चाहतों, मोह, महत्वाकांक्षा की कोई सीमा नहीं है। सामान्य बात है। जो आजकल अधिकांश जुनूनों के मुख्य कारणों में से एक है। मरते दम तक इन जुनूनों का सिलसिला चलता रहता है । मैं अलग- अलग अक्षरों के पढ़ने का आदि हो चुका था । मैंने धीरे सम्पूर्ण भारत की 14-15 वर्तमान लिपियां सीख ली थी मेरा अगला लक्ष्य एशिया की लिपियां सीखना था, ज्यादातर अलग-अलग लिपियां एशिया महाद्वीप में ही हैं । लिपियों के साथ-साथ मैं कभी-कभी सोचा करता कि काश! मैं किसी एक भाषा पर अच्छी पकड़ बना लेता तो ज़्यादा अच्छा रहता क्योंकि कई तरह के अक्षरों को याद रखने की बजह से दिमाग गर्म रहता था । मैं बैठे-बैठे सोचा करता कि सिर्फ अक्षरों को पढ़ने व लिखने से कोई भाषा थोड़ी ही ना सीखी जा सकती है । फिर कई बार किसी भी लिपि के अक्षर ना पढ़ने की कसमें खाता रहता लेकिन फेसबुक पर इतने पेज लाइक कर रखे थे कि किसी ना किसी भाषा का कोट्स वाले पेज का रिमाइंडर या अप्डेट्स अपने आप आ जाया करते । तमिल, पंजाबी, उर्दू के अक्षरों को मैंने सबसे ज्यादा पढ़ा फिर भी मैंने धीरे - धीरे इन लिपियों के पढ़ने को नकारना शुरू किया और यूरोपियन भाषाओं की तरफ अपना रुख किया । जर्मन, फ्रेंच, स्पेनिश इत्यादि भाषाओं की लिपियां लैटिन थी और इनका व्याकरण, वर्ड आर्डर व सिंटेक्स इंग्लिश से मिलता जुलता था । वोकेबुलरी की भी भिन्नता को सिर्फ ध्वनि के माध्यम से पहिचान सकते हो । इन भाषाओं में स्पेनिश मेरी लिस्ट में शीर्ष पर रही । मैंने एक भाषा से दूसरी भाषा के अक्षरों को सीखने के लिए लोगों के लिए फ़्री वाली वेबसाइट पर ब्लॉग डालना शरू कर दिया । इससे मेरी प्रैक्टिस भी हो जाती साथ लिखने चीजें ज्यादा ध्यान में रहती । फिर मैंने सोचा 2 ऐसी वेबसाइट बनवाऊंगा जिसमें हिंदी के जरिये सभी देशी भाषाओं को "भारतभाषाकोश" तथा हिन्दी के जरिये विश्व की अनेक भाषाओं को "अंतरराष्ट्रीय भाषाकोश" पर बडी आसानी से सीखा जाये । इसके लिए मैंने पूरी R&D की लेकिन धन की बजह से मैं इसे अंतिम रूप न दे सका । इसके होने के कई फ़ायदे लोगों तक पहुंचते । फिर मैंने सोचा कोई सस्ता सा ही ऑप्शन हो जिसके जरिये इस काम को आगे बढ़ाऊ कि एक बुकलेट निकलवायी जाए जिसमें समांतर दो भाषाओं के अक्षरों को एक साथ पढ़ सकें और थोड़ा बहुत उस भाषा के परिचय था ग्रीटिंग्स लेकिन ये भी ना हो सका । फिर मैंने सोचा क्यों ना बच्चों को अंग्रेजी के अलावा एक और विदेशी भाषा सिखायी जाये लेकिन ये जारी है इनकी पसंदीदा भाषा स्पेनिश है । भाषाओं के अलावा एक और जुनूंन दिमाग में था अपनी "सौभरि ब्राह्मण समाज" के बारे में नई-नई पोस्ट फेसबुक बनाना जहाँ से भी नई चीजें मिलती उन्हें अपलोड करना व नित नए ब्लॉग बनाना ये भी मेरी रुचियों का हिस्सा रहा । इसके लिए भी एक पुस्तक छपवाने का प्लान है । मैं चाहता हूँ जो बुक्स अभी तक बिरादरी के संदर्भ में छपी उन सभी का निचोड इस एक ही किताब में हो ।
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ओमप्रकाश शर्मा or ओमन सौभरि भुर्रक, भरनाकलां, मथुरा