Sunday, 12 February 2023

स्वसमाज के गांवों में मान- सम्मान की वरीयता के लिए प्रथम प्रवासियों के लिए "गामेंती" व दूसरे जगह से आकर बसे, अन्य "उपगोत्र/अल्ल" वाले द्वितीय प्रवासियों के लिए 'भजरऊआ ' शब्द का प्रयोग होता है?

 इस पोस्ट को सिर्फ़ ये जानने के लिए डाला जा रहा है कि ऐसी ' पुरानी प्रथा का प्रचलन' बिरादरी के सभी 163 गांवों में है या कुछेक गांवों में, यह किसी की भावना को आहत करने के लिए नहीं है । व्यतिगत भावना या उपगोत्र की भावना से "सामाजिक भावना" सर्वोपरि है। वैसे इस आधुनिक युग में बराबरी के आधार पर सभी के साथ व्यवहार करने में ही भलाई है और बुद्धिमानी भी । भेदभाव से हीन भावना को बढ़ावा मिलता है। 

 All human beings are born free and equal in dignity and rights. We are all one.




एक ही गांव में, एक ही जाति के अंतर्गत ' दोहरी मानसिकता' स्वसमाज के लिए बिल्कुल भी हितकारी नहीं होती है । हमारी समूची जाति या सम्पूर्ण समाज *अहिवास* सुनरख गांव, वृंदावन की निवासी ही है । इसी वजह से सभी सौभरेय ब्राह्मणों (अहिवासी ब्राह्मणों) को *अहिवासी* नाम के रूप में हमें उपाधि मिली । हमारे समाज के लोग समय और जरूरत के हिसाब से अन्यत्र सुगम/दुर्गम स्थानों पर बसते चले गए। बसने का क्रम भी ज्यादातर गांवों में उपगोत्र/अल्ल के अनुसार ही रहा जैसा कि देखने को मिलता है। इसका कारण कुछ भी रहा हो । इस हिसाब से जहां भी जिस गांव में बिरादरी के लोग बसे उन स्थानों पर या उसी गांव में उनको स्वसमाज का प्रथम प्रवासी मान लिया गया जिसे लोग आम बोलचाल की भाषा में *गामेंती या भूमिया* भी बोल देते हैं । उसके बाद अन्य उपगोत्र/अल्ल के प्रवासी लोगों को उसी गांवों में पूर्व में रहे (भूमिया) लोगों के विसे पर या उनकी ज़मीन को खरीदकर बसते रहे, लेकिन यहां उनके लिए "गामेंती /भूमिया लोगों का रवैया" उनके प्रति दोयम दर्जे का ही रहा उनके जैसा नहीं जिनकी जड़ जमीन पर आकर रहे । इसी से प्रथम प्रवासी (भूमिया/ गामेंती) और बाद में गांव में बसने वाले लोगों के बीच मान - सम्मान की वरीयता को लेकर कभी - कभार नौक झौंक भी हो जाती है। कभी-कभी तो भूमिया लोगों की हीन भावना इतनी सिर चढ़के बोलती है की उनको सड्ड-गड्ड या भजरउआ (किसी दूसरी जगह से आकर बसने वाले) कह के बुलाने लग जाते हैं। हालांकि ये भावना स्वसमाज़ सभी गांवों में नहीं होगी। ये भावना ज्यादातर उन्हीं गांवों में है जिन गांवों में पहले बसे लोगों (भूमिया/ गामेंतियों) की संख्या ज्यादा है। इसमें कसूरवार एक गांव या एक उपगोत्र/अल्ल के लोगों को नहीं ठहराया जा सकता, पूरा समाज जिम्मेदार है इस कृत्य के लिए ।

✓जरूरी नहीं कि ये विचार सभी का है कुछ असामाजिक तत्व भी हो सकते हैं जो दूसरों का बिगाड़ने को लालायित रहते हैं। कमियां और अच्छाईयां दोनों तरफसे हो सकती हैं । हालांकि भूमिया बाबा (ग्राम्य देवता) सबके के लिए पूजनीय होता है और होना भी चाहिए । उन्हीं की जगह और जमीन पर आश्रित हैं। गामेंती लोगों की कई दशकों से 28 पाग हैं , हो सकता है जब किसी जमाने में सगोत्र(अल्ल) के लोगों के परिवारों की संख्या 28 रही होगी । ठीक इसी प्रकार कुछ वर्ष पहले समाज के एक दूसरे सगोत्री लोगों ने अपनी 36 पाग (कम या ज्यादा हो सकती हैं) नई बना ली हैं, अब वो अपने आपको ज्यादा सम्मान की नजर से देखते हैं लेकिन समाज के अन्य उपगोत्र(अल्ल) वालों का क्या? वैसे सम्पूर्ण स्वजाति एक ही पिता की संतान है, ' अल्ल/उपगोत्र  में समाज को सिर्फ विवाह - शादी की वजह से अलग विभाजित किया गया है । 


1• उदाहरण से समझिए, एक गांव का भूमिया/गामेंती स्वयं जब दूसरे गांव में जाकर किसी कारणवश बसता है वो भी सड्ड-गड्ड या भजरऊआ कहलाया जाता है। यह हानि किसी एक उपगोत्र वाले को नहीं हम सबको होती है। इसी हिसाब से किसी गांव का ' भजरऊआ' अन्यत्र किसी गांव का "भूमिया/गामेंती" हो सकता है । जैसे - गांव पलसों में "पलसइयां उपगोत्र", गांव सीह में "सीहइयां", गांव भरनाकलाँ में "बरगला", गांव मघेरा में "भुर्रक उपगोत्र" भूमिया या गामेंती कहलाते हैं । वैसे सम्मान की वरीयता की बात है तो लोग इसका आंकलन इस हिसाब से करते हैं कि जब गांव में कोई भात, छोछक, लग्न आदि लेकर आते हैं तो अपने ही गांव के ही बड़े बुजुर्गों को  चौक पे बुलाया जाता है। कोशिश यह रहती है कि भात, छोछक, लग्न आदि में दी गई राशि को पागधरी या भूमिया व्यक्ति ही ले । वैसे सम्मान के हिसाब से मौके पर कोई भी वह व्यक्ति जो उम्रदराज है या सम्माननीय है वही ले । लेकिन भूमिया द्वारा न लिए जाने पर आपत्तिजनक टिप्पणियां शुरू हो जाती हैं। वैसे इसका अधिकारी, सर्वसम्मति से वह कोई भी बडा -बुजुर्ग हो सकता है चाहे किसी भी उपगोत्र का हो, पर सर्वसम्मति जरूर होनी चाहिए । इसमें कुछेक गामेंती लोगों का कहना है कि मान -सम्मान की यह भावना किसी एक उपगोत्र/अल्ल को लेकर है न कि सभी अन्य उपगोत्र वालों के साथ, क्योंकि 2 - 3 पाग गामेंतियों के अलावा अन्य गोत्र वालों के पास होते हुए भी उनके सम्मान का निर्वहन किसी विशेष उपगोत्र/अल्ल द्वारा कभी भी नहीं किया जाता है । कितना सही है कितना गलत जानते सब हैं पर स्वीकार नहीं करता।


2• इसके अलावा दूसरा उदाहरण आप ऐसे समझिए कि अगर गांव के किसी भी एक थोक के परिवार से बारात किसी अन्य गांव में जाती है और वहां जो दान-दहेज लड़की वालों की तरफ से मिलता है तो उस राशि या दहेज को कोई दूसरे थोक वाला ही कोई बडा -बुजुर्ग ही लेता है । वहां भी संभावना यही जताई जाती है कि वो भूमिया ही हो । अगर ऐसा नहीं होता तो जिसकी शादी में गए होते हैं उसके आपत्तिजनक टिप्पणी की जाती है । यह कितना सही है या गलत, नहीं पता। लेकिन ऐसा रिवाज सा बन गया है। हमें इस कूपमंडकता को अपने समाज के ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए। वैसे स्वसामाजिक उपगोत्र जैसे - विश्दैला पचौरी, कुम्हेरिया आदि हर गांव में मिल ही जाते हैं । इसका मतलब उनको अपने गांव के अलावा प्रत्येक गांव में इस प्रताड़ना का दंश झेलना पड़ेगा?


✓भेदभाव वह मनुष्य करते हैं जिनको ज्ञान का असली अर्थ मालूम नहीं होता है, जिनकी सोच छोटी होती है। जिस समाज में ' भेदभाव की भावना' होती है वह समाज अंदर से खोखला हो जाता है। भेदभाव की भावना समाज को छोटे-छोटे हिस्सों में बांट देती है। लोग उसी के अनुसार ही लोगों से बात करते हैं। भेदभाव के कारण जो लोग निर्दोष होते हैं वो भी लोगों को शत्रुओं के समान प्रतीत होते हैं। आपसी भेदभाव के कारण भय, संदेह और अविश्वास बना रहता है। इस के कारण आपसी तालमेल तो नष्ट होता ही होता है और उसी के साथ - साथ लोगों के बीच भी एक घृणा की पक्की दीवार भी खड़ी हो जाती है। जो लोग पढ़े लिखे होते हैं वो भेदभाव की भावना से रिक्त होते हैं क्योंकि उन्हें मालूम होता है कि एक दूसरे से घृणा करने तथा भेदभाव करने से किसी सुख की प्राप्ति नहीं होती है। जब तक समाज में जागरूकता तथा ज्ञान नहीं बढ़ेगा तब तक भेदभाव की भावना स्वसमाज में रहेगी ही। महापुरुष हमेंशा से ही कहते आए हैं कि, "भेदभाव" एक व्यक्ति, समूह या संस्था को एक अलग और हानिकारक तरीके से व्यवहार करने के बारे में बोध कराता है । यह विभिन्न कारणों से हो सकता है, दौड़, लिंग, विचार, उत्पत्ति का स्थान, शारीरिक उपस्थिति आदि।

✓लोगों को एकता व समानता का असली अर्थ समझना होगा । जब समाज का हर मनुष्य यह दृढ़ निश्चय कर ले कि उसे भेदभाव की भावना को अपने समाज से मिटाना है तो इस ऊंचनीच की इस भावना को नष्ट होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। हम अभी से चेत जाएं, वरना ऐसे विघटनकारी मानसिकता से किसी का भला होने वाला नहीं है।


साभार-  ओमन सौभरि भुरर्क, भरनाकलां, मथुरा

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