Tuesday, 16 January 2018

Why does Saubhari Brahman called Ahivasi Brahman?

Why does Saubhari Brahman called Ahivasi Brahman?

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महर्षि सौभरि सृष्टि के आदि महामान्य महर्षियों में हैं। ऋग्वेद की विनियोग परंपरा तथा आर्षानुक्रमणी से ज्ञात होता है कि ब्रह्मा से अंगिरा, अंगिरा से घोर, घोर से कण्व और कण्व से सौभरि हुए। इसके अनुसार सौभरि बहुऋचाचार्यमहामहिम ब्रह्मा के पौत्र के पौत्र हुए। मान्यता है कि फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को इन्होंने जन्म ग्रहण किया। महर्षि सौभरि एक हजार वर्ष तक यमुना हृद जहां ब्रज का कालीदह और वृन्दावन का सुनरखवन है, में समाधिस्थ हो तपस्या करते हैं। इन्द्रादिक समस्त देव उनकी परीक्षा के लिए महर्षि नारद को भेजते हैं। नारद जी भी सौभरिजी के तप एवं ज्ञान से प्रभावित हो वंदन करते हैं तथा सभी देवगण उनका पुष्प वर्षा कर अभिनंदन करते हैं। इधरअयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट राजा मान्धाता वर्षा न होने के कारण राज्य में अकाल पडने से बहुत दुखी थे। अपनी सहधर्मिणी से प्रजा के कष्टों की चर्चा कर ही रहे थे; कि घूमते-घूमते नारद जी सम्राट मान्धाताके राजमहल में पधारे। सम्राट ने अपनी व्यथा नारद जी को निवेदित कर दी। नारद जी ने अयोध्या नरेश को परामर्श दिया कि वे शास्त्रों के मर्मज्ञ, यशस्वी एवं त्रिकालदर्शी महर्षि सौभरि से यज्ञ करायें। निश्चय ही आपके राज्य एवं प्रजा का कल्याण होगा। राजा मान्धातानारद जी के परामर्श अंतर्गत ब्रह्मर्षि सौभरिके यमुना हृदस्थित आश्रम में पहुंचे तथा अपनी व्यथा कथा अर्पित की। महर्षि ने ससम्मान अयोध्यापति को आतिथ्य दिया और प्रात:काल जनकल्याणकारी यज्ञ कराने हेतु अयोध्यापतिके साथ अयोध्या पहुंच जाते हैं।

यज्ञ एक माह तक अनवरत रूप से अपना आनंद प्रस्फुटित करता है और वर्षा प्रारम्भ हो जाती है। सम्राट दम्पति ब्रह्मर्षि को अत्यधिक सम्मान सहित उनके आश्रम तक पहुंचाने आये। महर्षि का अपनी तपस्या के अंतर्गत नैतिक नियम था किआटे की गोलियां बनाकर मछलियों को प्रतिदिन भोज्य प्रदान किया करते थे। शरणागत वत्सल महर्षि सौभरि की ख्याति भी सर्वत्र पुष्पित थी। विष्णु भगवान का वाहन होने के दर्प में गरुड मछलियों एवं रमणक द्वीप के निवासी कद्रूपुत्र सर्पो को अपना भोजन बनाने लगा। सर्पो ने शेषनाग से अपना दुख सुनाया। शेषनाग जी ने शरणागत वत्सल महर्षि सौभरि की छत्रछाया में शरण लेने का परामर्श उन्हें दिया। कालियनाग के साथ पीडित सर्प सौभरिजी की शरणागत हुए। मुनिवर ने सभी को आश्वस्त किया तथा मछली एवं अहिभक्षीगरुड को शाप दिया कि यदि उनके सुनरखस्थित क्षेत्र में पद रखा तो भस्म हो जाएगा। इस क्षेत्र को महर्षि ने अहिवास क्षेत्र घोषित कर दिया। तभी से महर्षि सौभरि “अहि“ को वास देने के कारण अहिवासी कहलाये। इस प्रकार उस स्थल में अहि,मछली तथा सभी जीव जन्तु, शान्ति पूर्वक निवास करते रहे।

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साभार-  ओमन सौभरि भुरर्क, भरनाकलां, मथुरा

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