Tuesday, 16 January 2018

Brahamrishi Saubhari: ब्रह्मऋषि सौभरि जी


महर्षि सौभरि जी का वर्णन:- 

महर्षि सौभरि सृष्टि के आदि महामान्य महर्षियों में हैं। ऋग्वेद की विनियोग परंपरा तथा आर्षानुक्रमणी से ज्ञात होता है कि ब्रह्मा से अंगिरा, अंगिरा से घोर, घोर से कण्व और कण्व से सौभरि हुए। इसके अनुसार सौभरि बहुऋचाचार्य महामहिम ब्रह्मा के पौत्र के पौत्र हैं। मान्यता है कि फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को इन्होंने जन्म ग्रहण किया। महर्षि सौभरि 60 हजार वर्ष तक यमुना हृद जहां ब्रज का कालीदह और वृन्दावन का सुनरखवन है, में समाधिस्थ हो तपस्या करते हैं। इन्द्रादिक समस्त देव उनकी परीक्षा के लिए महर्षि नारद को भेजते हैं। नारद जी भी सौभरिजी के तप एवं ज्ञान से प्रभावित हो वंदन करते हैं तथा सभी देवगण उनका पुष्प वर्षा कर अभिनंदन करते हैं। 
ऋग्वेद में बताई गई कथा और श्लोक-

ब्राह्मणान् नावमन्येत ब्रह्मशापो हि दुस्तरः।
भीतोदात् सौभरे: शापाद्वधूः पच्चशतं नृप।।

 अर्थात-सदाचारी और वेदपाठी ब्रह्माणों का विरोध नहीं करना चाहिए। राजा ने ब्रह्माण सौभरि का असंगत विवाह प्रस्ताव जानकर भी उनका सम्मान ही किया। जिससे राजा का महान कल्याण हुआ।

ब्रह्मा के मानस पुत्र अंगिरा और अंगिरा के घोर और घोर के कण्व और कण्व ऋषि के वंश में उत्पन्न एक अत्यन्त विद्वान एवं तेजस्वी महापुरुष  “ब्रह्मर्षि सौभरि” जिन्होंने वेद-वेदांगों को अपने अध्ययन-मनन से ईश्वर, संसार एवं इसकी वस्तुएँ तथा परमार्थ को अच्छी तरह समझ लिया था। वो हर समय अध्ययन एवं ईश्वर के भजन में लगे रहते थे, उनका मन संसार की अन्य किसी वस्तु में नहीं लगता था। एक बार उनके मन में ये इच्छा उत्पन्न हुई कि वन में जाकर तपस्या की जाये; जब उनके माता और पिता महर्षि काण्व जी ने को इसके बारे में पता चला, तो उन्होंने सौभरि जी को समझाते हुये कहा, “बेटे! इस समय तुम युवा हो, तुम्हें अपना विवाह कर गृहस्थ-धर्म का पालन करना चाहिए। चूँकि हर वस्तु उचित समय पर ही अच्छी लगती है, इसलिए पहले अपनी जिम्मेदारियों को निभाओ, फ़िर उनसे मुक्त होकर, संसार को त्यागकर भगवान का भजन करना; उस समय तुम्हें कोई नहीं रोकेगा। हालांकि अभी तुम्हारा मन वैराग्य की ओर है, परन्तु युवावस्था में मन चंचल होता है, जरा में डिग जाता है। इस प्रकार अस्थिर चित्त से तुम तपस्या एवं साधना कैसे करोगे?”

लेकिन महर्षि सौभरि तो जैसे दृढ़-निश्चय कर चुके थे। उनके माता-पिता की कोई भी बात उन्हें टस से मस ना कर सकी और एक दिन वे सत्य की खोज में वन की ओर निकल पड़े। चलते-२ वे एक अत्यन्त ही सुन्दर एवं रमणीय स्थान पर पहुँचे जहाँ पास ही नदी बह रही थी और पक्षी मधुर स्वर में कलरव कर रहे थे। इस स्थान को उन्होंने अपनी तपस्या-स्थली के रूप में चुना, जो आज का वृन्दावन स्थित सुनरख गॉंव है ।

ऐसे ही दिन बीत रहे थे, उनके शरीर पर अब किसी भी मौसम का असर नहीं होता था। गाँव वाले जो कुछ रूखा-सूखा दे जाते, उसी से वो अपना पेट भर लेते थे। धीरे-२ कब जवानी बीत गई और कब बुढ़ापे ने उन पर अपना असर दिखाना शुरु कर दिया, पता ही नहीं चला। 

उसी समयकाल सम्राट मान्धातृ अथवा मांधाता, इक्ष्वाकुवंशीय नरेश युवनाश्व और गौरी पुत्र अयोध्या में राज्य किया करते थे | च्यवन ऋषि द्वारा संतानोंत्पति के लिए  मंत्र-पूत जल का कलश पी गए थे | च्यवन ऋषि ने राजा से कहा कि अब आपकी कोख से बालक जन्म लेगा। सौ वर्षो के बाद अश्विनीकुमारों ने राजा की बायीं कोख फाड़कर बालक को निकाला। अब बालक को पालना, एक बड़ी समस्या थी, तो तभी इन्द्रदेव ने अपनी तर्जनी अंगुली उसे चुसाते हुए कहा- माम् अयं धाता (यह मुझे ही पीयेगा)। इसी से बालक का नाम मांधाता पड़ा। 

वह सौ राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञों के कर्ता और दानवीर, धर्मात्मा चक्रवर्ती सम्राट् थे | मान्धाता ने शशिबिंदु की पुत्री बिन्दुमती से विवाह किया |उनके मुचकुंद, अंबरीष और पुरुकुत्स नामक तीन पुत्र और 50 कन्याएँ उत्पन्न हुई थीं। इधरअयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट राजा मान्धाता वर्षा न होने के कारण राज्य में अकाल पडने से बहुत दुखी थे। अपनी सहधर्मिणी से प्रजा के कष्टों की चर्चा कर ही रहे थे कि घूमते-घूमते नारद जी सम्राट मान्धाता के राजमहल में पधारे। सम्राट ने अपनी व्यथा देवर्षि नारद जी को निवेदित कर दी। नारद जी ने अयोध्या नरेश को परामर्श दिया कि वे शास्त्रों के मर्मज्ञ, यशस्वी एवं त्रिकालदर्शी महर्षि सौभरि से यज्ञ करायें। निश्चय ही आपके राज्य एवं प्रजा का कल्याण होगा। राजा मान्धातानारद जी के परामर्श अंतर्गत ब्रह्मर्षि सौभरि के यमुना हृदस्थित आश्रम में पहुंचे तथा अपनी व्यथा कथा अर्पित की। महर्षि ने ससम्मान अयोध्यापति को आतिथ्य दिया और प्रात:काल जनकल्याणकारी यज्ञ कराने हेतु अयोध्यापति के साथ अयोध्या पहुंच जाते हैं। यज्ञ एक माह तक अनवरत रूप से अपना आनंद प्रस्फुटित करता है और वर्षा प्रारम्भ हो जाती है। सम्राट दम्पति ब्रह्मर्षि को अत्यधिक सम्मान सहित उनके आश्रम तक पहुंचाने आये।

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मान्धाता के समय में ही ब्रह्मऋषि सौभरि जी महर्षि जल के अंदर तप व् चिंतन करते थे । महर्षि का अपनी तपस्या के अंतर्गत नैतिक नियम था कि आटे की गोलियां बनाकर मछलियों को प्रतिदिन भोज्य प्रदान किया करते थे। शरणागत वत्सल महर्षि सौभरि की ख्याति भी सर्वत्र पुष्पित थी। विष्णु भगवान का वाहन होने के दर्प में गरुड मछलियों एवं रमणक द्वीप के निवासी कद्रूपुत्र सर्पों को अपना भोजन बनाने लगा।इनमें प्रमुख नाग पन्नग जाति का नाग था जिसका कालिया था। उसकी माता का नाम कद्रू और पिता महर्षि कश्यप थे । नागों की माता सर्पो ने शेषनाग से अपना दुख सुनाया। यद्यपि जब गरूड़ नागों का संहार करने लगे तो गरूड और नागों के बीच एक समझौता हुआ कि गरूड़ को प्रत्येक माह में अमावस्या के दिन एक नियत वृक्ष के नीचे एक सर्प गरूड के आहार के लिए दिया जाएगा । सभी सर्प जाति इस नियम का पालन कर रही थी । कालिय नाग को अपने विष और बल का बड़ा घमंड था । उसने नागों की स्थापित परंपरा को ठुकरा दिया । उसने गरूड के लिए बलि देना तो दूर गरूड की बलि को स्वयं ही खा लिया. सर्प और नाग जाति इससे बड़ी क्रुद्ध हुई कि अपने वंश का होकर भी वह ऐसे कार्य कर रहा है. उन्हें गरूड़ के क्रोध का भय भी था । नागों ने गरूड़ को सारी बात बता दी । गरूड ने कालिया पर आक्रमण किया । कालिया ने अपने सौ फल फैलाए और गरूड पर विषप्रहार किया । गरूड तो अमृत कलश के वाहक रहे थे । उन पर विष का प्रभाव नहीं हुआ. कालिया ने अपने दांतों से गरूड़ पर प्रहार किया और पकड़ लिया । पीडा से गरूड़ ने अपने शरीर को जोर से झटका । उसका प्रभाव इतना अधिक था कि कालिया जाकर यमुना में गिरा । वह भागकर कालियदह कुंड तक चला आया क्योंकि गरूड़ यहां आ नहीं सकते थे ।

शेषनाग जी ने शरणागतवत्सल महर्षि सौभरि की छत्रछाया में शरण लेने का परामर्श उन्हें दिया। यमुनाजी का यह कुण्ड गरुड़ के लिए सौभरि ऋषि के शाप के कारण प्रवेश से वर्जित था । एक बार गरूड़ को बहुत भूख लगी । वह इसे बर्दाश्त नही कर पा रहे थे । गरुड़ की नजर एक मछली पर पड़ी । सौभरी मुनि वहीं स्नान कर हे थे । मछली ने सौभरि से सहायता मांगी । सौभरि ने गरूड से कहा कि हो सके तो इस शरणागत मत्स्य को मत खाओ लेकिन गरूड से भूख सहन नहीं हुई । उन्होंने मना करने पर भी उस मछली को खा लिया । महर्षि सौभरि क्रोधित हो गए । उन्होंने गरुड़ को शाप दिया- यदि गरुड़ आप फिर कभी इस कुण्ड में घुसकर मछलियों को खाएंगे तो उसी क्षण मृत्यु हो जाएगी । तब से गरूड़ उधर नहीं जाते थे । कालिय नाग यह बात जानता था । इसीलिए वह यमुना के उसी कुण्ड में रहने आ गया था. उसके विष के प्रकोप के कारण वह कुंड कालियदह कहा जाने लगा । कालिया उसमें निर्भीक होकर अपनी असंख्य पत्नियों के साथ रहता था ।कालियनाग के साथ पीडित सर्प महर्षि सौभरि जी की शरणागत हुए। उन्हें गरुड़ के भय से छुटकारा मिल गया । ये वही कालिया नाग था जिसके फन पर भगवान योगेश्वर श्री कृष्ण ने नृत्य किया था । मुनिवर ने सभी को आश्वस्त किया तथा मछली एवं अहिभक्षी गरुड को शाप दिया कि यदि उनके सुनरख स्थित क्षेत्र में पद रखा तो भस्म हो जाएगा। इस क्षेत्र को महर्षि ने अहिवास क्षेत्र घोषित कर दिया। तभी से महर्षि सौभरि अहि को वास देने के कारण अहिवासी कहलाये। इस प्रकार उस स्थल पर अहि,मछली तथा सभी जीव जन्तु, शान्ति पूर्वक निवास करते रहे।

तपस्या करते बहुत काल हो जाने पर भगवान विष्णु एक दिवस सौभरिजी के पास आकर निर्देश देते हैं कि सृष्टि की प्रगति के लिए ऋषि जी गृहस्थ धर्म में प्रवेश करें और इसके लिए नृपश्रेष्ठ मान्धाताके अन्त:पुर की एक कन्या से पाणिग्रहण करें। 

यमुना के जल में ‘संवद’ नामक मत्स्य निवास करता था । वह अपने परिवार के साथ जल में विहार करता रहता था | एक दिन ब्रह्मर्षि सौभरि जी ने तस्य से निवृत होकर उस मत्स्य राज को उसके परिवार सहित देखकर अपने अंदर विचार किया किया और सोचा की यह मछली की योनि में भी अपने परिवार के साथ रमण कर रहा है क्यों न मैं भी इसी तरह से अपने परिवार के साथ ललित क्रीड़ाएं किया करूँगा और उसी समय जल से निकल कर विवाह प्रस्ताव का विचार किया । "अहो! यह धन्य है, जो ऐसी अनिष्ट योनिमें उप्तन्न होकर भी अपने इन पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदिके साथ निरन्तर रमण करता हुआ हमारे हृदय में डाह उप्तन्न करता है ।" गृहस्थ जीवन जीने की अभिलाषा से राजा मान्धाता के पास पहुँच गए । अचानक आये हुए महर्षि को देखकर राजा मान्धाता आश्चर्यचकित होकर बोले... 

मान्धाता- हे ब्रह्मर्षि! मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ? वो मुझे बतलाओ । ब्रह्मर्षि सौभरि जी ने आसन ग्रहण करते हुए राजा मान्धाता से बोले...

 ब्रह्मर्षि सौभरि- हे राजन! मुझे आपकी एक कन्या की आवश्यकता है जिससे मैं विवाह रचाना चाहता हूँ | आपके समान अन्य राजाओं की पुत्रियां भी हैं परन्तु मैं यहाँ इसलिए आया हूँ की कोई भी याचक आपके यहाँ से खाली हाथ कभी नहीं लौटा है | आपके तो 50 कन्याएं हैं उनमें से आप मुझे सिर्फ एक ही दे दीजिये ।

 राजा ने महर्षि की बातें सुन व् उनके बूढ़े शरीर को देखकर डरते हुए बोले...

मान्धाता- हे ब्रह्मऋषि! आपकी यह इच्छा हमारे मन से परे है क्यूंकि हमारे कुल में लड़कियाँ अपना वर स्वयं चुनती हैं ।

 ब्रह्मऋषि सौभरि सोचने लगे ये बात सिर्फ टालने के लिए है और वह यह भी सोच रहे थे की ये राजा मेरे जर्जर शरीर को देखकर भयाभय हो रहे हैं । त्रिकालदर्शी उनको कहते हैं जो तीनों कालों की बातों को जानने वाला होता है । उनको त्रिकालज्ञ भी कहा जाता है । राजा की ऐसी मनोदशा देखकर वह बोले...

ब्रह्मर्षि सौभरि- हे राजन! अगर आपकी पुत्री मुझे चाहेगी तो ही मैं विवाह करूँगा अन्यथा नहीं । यह सुनकर राजा मान्धाता बोले...

मान्धाता- फिर तो महर्षि जी आप स्वयं अंतःपुर को चलिए ।

राजा ने अपना एक मंत्री महर्षि सौभरि जी के साथ अंतःपुर के द्वार तक गया।

मंत्री- हे ऋषिराज! आप अंदर जाइये और जो कन्या तुमको वरेगी उससे आप विवाह कर लीजिये ।

अन्तःपुर में प्रवेश से पहले ही ब्रह्मर्षि सौभरि जी ने अपने तपोबल से गंधर्वों से भी सुन्दर और सुडौल शरीर धारण कर लिया, अब उनके सामने कामदेव की कांति भी फीकी थी । ब्रह्मर्षि के साथ में अंतःपुर रक्षक व मंत्री थे।

 महर्षि से मंत्री से कहते हैं- राजा की पुत्रियाँ से बोलो, जो कोई कन्या मुझे वर के रूप में स्वीकार करती हो वो मेरा स्मरण करे । 

इतना सुनते ही राजा की सभी पुत्रियों ने अपने-अपने मन महर्षि का स्मरण किया और परस्पर यह कहने लगी... 

50 पुत्रियां- ये आपके अनुरूप नहीं हैं इसलिए मैं ही इनके साथ विवाह करुँगी । हे बहिन तुम्हारी इनके साथ जोड़ी नहीं जमेगी इसलिए यह विवाह प्रस्ताव मैंस्वीकार करती हूं । यह मेरे वर हैं, इनको मैंने पहले वर के रुप में चुना है ।

देखते -देखते राजा की पुत्रियां आपस में कलह करने लगी | ये सारी बातें अंतःपुर रक्षक ने राजा मान्धाता को बताई । यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और बोले...

  मान्धाता रक्षक से-  तुम कैसी बात कर रहे हो । राजा पश्चाताप करने लगे की मैंने ही उन्हें अंदर जाने दिया । लेकिन क्या कर सकते थे अब वह सब समझ चुके थे ।

 उसके बाद राजा मान्धाता ने विवाह संस्कार पूरा किया और और वहाँ से पचासों पुत्रियों के साथ से अपार दहेज देकर उनके आश्रम अहिवास (सुनरख) को विदा किया। ब्रह्मर्षि सौभरि जी उन पचासों कन्यांओं को अपने आश्रम को ले गए । आश्रम पहुंचते ही विश्वकर्मा को बुलाया और सभी कन्यांओं के लिए अलग-अलग गृह बनाने के लिए बोला और चारों तरफ सुन्दर जलाशय और पक्षियों से गूंजते हुए बगीचे हों ऐसी हरित जगह बनाने का आदेश दिया, शिल्प विद्या के धनी विश्वकर्मा ने वह सारी सुविधाएं उपलब्ध करायीं जो की अनिवार्य थीं | राज कन्याओं के लिए अलग-अलग महल खड़े कर दिए | अब राज कन्यांएं बड़े मधर स्वभाव से वहाँ रमण करने लगीं ।

 एक दिन राजा मान्धाता पुत्रियों का कुशल-क्षेम जानने महर्षि के आश्रम आये। जब वे पुत्रियों के महल जाते तो प्रत्येक पुत्री के प्रासाद में नृप मान्धाता को महर्षि सौभरि मिलते और वो पूछते कि पुत्री खुश  तो हो ना? तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट तो नहीं है | पुत्री ने जवाब दिया, नहीं मैं बहुत खुश है | बस एक बात है की ब्रह्मर्षि सौभरि जी मुझे छोड़कर अन्य बहनों के पास जाते ही नहीं | इसी तरह राजा ने दूसरी पुत्री से भी वही प्रश्न किया उसने भी पहली वाली पुत्री की तरह जवाब दिया | इसी तरह से राजा मान्धाता को सभी पुत्रियों से समान उत्तर सुनने को मिला | राजा सब कुछ समझ गए और ब्रह्मऋषि सौभरि जी के सामने हाथ जोड़कर बोले महर्षि ये आपके तपोबल का ही परिणाम है महर्षि ने राजा को काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार को त्यागने का उपदेश दिया। अंत में राजा अपने राज्य को लौट आये | 

महृषि सौभरि जी के 5000 गुणवान एवं रूपवान पांच सहस्रपुत्र-पुत्रियां हुए तथा पौत्र-प्रपौत्र भी हुए जो अहिवासी कहलाये।  कई वर्षों तक ऋषि सौभरि जी ने अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते रहे योग माया ने महर्षि के निर्देश पर सभी के लिए अलग-अलग आवासों की व्यवस्था कर दी। महर्षि सौभरि पत्नियों के साथ योग बल से रहते थे।  वह आगे सोचने लगे की अब उनके पुत्रों के भी पुत्र होंगे, अंदर ही अंदर विचार करने लगे की मेरी इच्छाओं के  मनोरथ का विस्तार होता जा रहा है | ये सब सोचकर फिर से उन्हें वैराग्य होने लगा, एक दिन महर्षि को लगा कि उनका काम पूरा हो गया है और सभी पत्‍ि‌नयों एवं परिवार को बताकर पुन:तपस्या की ओर बढने की इच्छा हुई। फ़िर धीरे-2 उनका मन इन सब से उचटने लगा। उनका मन उनसे बार-2 एक ही प्रश्न करता कि क्या इन्हीं सांसारिक भोगों के लिए उन्होंने तपस्या और कल्याण का मार्ग छोड़ा था। सौभरि षि एक दिन सोचने लगे...

मनोरथानां न समाप्तिरस्ति वर्धायुनापि तथाब्द लश्वैः। पुणेषु पूर्णेषु मनोरथानामुत्पत्यः सन्ति पुनर्नवानाम्॥

मनोरथ की पूर्ति हजारों-लाखों वर्षा में भी नहीं हो सकती। मनोरथ की आशा जग जाती है। मैने अपनी सारी साधाना और तपस्या एक मत्स्य जाड़े को मैथन करते देखकर असख्य सन्तान पैदा करके नष्ट कर दी। इस प्रकार सोचकर उनको वैराग्य हुआ। सब त्यागकर तपस्या करने चले गये।

 उन्होंने गृहस्थ-जीवन के सुख को भी देखा था और तपस्या के समय की शांति और संतोष को भी।  ऋषि पत्नियों ने भी महर्षि के साथ ही तपस्या में सहयोग करने का आग्रह किया। तपस्या में लीन हो प्रभु दर्शन कर समाधिस्थ हो गए।  इस प्रकार वह पुत्र मोह व् गृहस्थ सब कुछ त्याग कर अपनी स्त्रियों सहित वन की ओर गमन कर गए | और बाद में भगवान् में आशक्त होकर मोक्ष को प्राप्त किया । महर्षि का तपस्थल आज भी सुनरख (सौभरिवन) वृंदावन में विद्यमान है जहां मंदिर में महर्षि सौभरि जी की पूजा- अर्चना होती है। 

श्री विष्णु पुराण, ऋग्वेद, श्रीमदभागवत पुराण के नवें स्कन्द के छठे अध्याय में व गर्गसंहिता में भी श्री ब्रह्मर्षि सौभरि जी का पूरा विस्तार सहित वर्णन दिया है ।

गर्गसंहिता में वर्णित महर्षियों के बारे में...

मेंरोध्यान चतुर्भुज चित धर्यो तिनहिं सरन हौं अनुसरौं॥ अगस्त्य पुलस्त्य पुलह च्यबन बसिष्ठ सौभरि ऋषि।कर्दम अत्रि ऋचीक गर्ग गौतम ब्यासशिषि॥ लोमस भृगु दालभ्य अंगिरा शृंगि प्रकासी। मांडव्य बिश्वामित्र दुर्बासा सहस अठासी॥ जाबालि जमदग्नि मायादर्श कश्यप परबत पाराशर पदरज धरौं। ध्यान चतुर्भुज चित धर्यो तिनहिं सरन हौं अनुसरौं॥

मूलार्थ – जिन राजर्षि-महर्षियोंने चतुर्भुज अर्थात् चार भुजाओं वाले भगवान् विष्णुके ध्यानको, अथवा चतुर्भुज अर्थात् भक्तों के पत्र-पुष्प-फल-जल रूप नैवेद्य को ग्रहण करने वाले चारों वस्तुओं के भोक्ता भगवान् श्रीराम­कृष्णान्यतरके ध्यानको जिन्होंने चित्तमें धारण कर लिया है, उनकी शरणका मैं अनुसरण करता हूँ। जैसे (१) महर्षि अगस्त्य (२) महर्षि पुलस्ति (३) महर्षि पुलह (४) महर्षि च्यवन (५) महर्षि वसिष्ठ, जो श्रीरामजीके गुरुदेव हैं (६) महर्षि सौभरि, जिनको अन्त में वैराग्य हुआ (७) महर्षि कर्दम, जो कपिलदेवके पिताश्री हैं (८) महर्षि अत्रि, जो सप्तर्षियोंमें एक हैं, और ब्रह्माजीके मानसपुत्रोंमें द्वितीय हैं। इन्होंने ही श्रीचित्रकूटमें भगवान् श्रीसीता-राम-लक्ष्मणका स्वागत किया और नमामि भक्तवत्सलम् (मा. ३.४.१-१२) जैसे स्तोत्रका गायन किया (९) महर्षि ऋचीक, जो जमदग्निजीके पिता हैं, जिनके चरुके प्रसादसे जमदग्नि और विश्वामित्र दोनोंकी उत्पत्ति हुई और (१०) महर्षि गर्ग – इन्होंने ही भगवान् कृष्ण का नामकरण किया। 



 💐सौभरि ऋषि तपस्या काल तक *परम ब्रह्मचारी* रहे, *परम तपस्वी* रहे । गरुड़ से कालियानाग को बचाने से *शरणागतवत्सल* कहलाये जब उन्होंने परिवारिक में प्रवेश किया तो उन्होंने *संतुलित गृहस्थ* जीवन व्यतीत किया । 'तपस्वी जीवन' में *महर्षि सौभरि* जी ने बिल्कुल सामान्य जीवन जिया और *ग्रहस्थकाल* में महाराजाओं से भी ऊपर । महर्षि बहुत अच्छे *राजपुरोहित* भी थे । वेद-मंत्रों के माध्यम से उन्होंने कई तरह के महायज्ञ राजाओं के यहाँ किये ।

पिता काण्व ऋषि द्वारा युवावस्था में विवाह के लिए बार-बार समझाते हैं लेकिन वो विवाह के लिए मना कर देते हैं यह स्वभाव उनके *युवाहठ* को दर्शाता है । महर्षि *वास्तुकला प्रेमी* रहे उन्होंने विश्वकर्मा को अपनी 50 पत्नियों को रानी की तरह रहें इसलिए, भव्य व आलीशान भवन बनाने को कहा था जिनके सामने राजमहल की चमक भी धुंधली थी ।

परिवार से *मोह* तथा समयकाल बीतने पर परिवार से उचित समय पर घर छोड़कर *गृहत्यागी* होने का उदाहरण पेश करते हैं । 50 पत्नियों के साथ *महर्षि* इस प्रकार रहते हैं कि किसी को कोई समस्या न आये और किसी के साथ भेदभाव न हो, यह करके उन्होंने *पतिव्रत धर्म* को निभाया । 50 पत्नियों द्वारा वानप्रस्थ की ओर जब जाते हैं तो पचास की पचासों पत्नियां उनके साथ वनगमन करती हैं । यह व्यवहार उनके वृद्धावस्था में भी अच्छे *सामंजस्य* को दर्शाता है ।

*महर्षि सौभरि* जी ने  भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ को भगाकर मछली व सर्पों की जान बचायी । वो *पर्यावरण हितेषी* थे । उन्होंने *दयालुता* के माध्यम से जीवों की रक्षा की। महर्षि सौभरि जी तपस्या के समय यमुना नदी जल के जल में *योग* करते थे । उनके द्वारा जल के अंदर *वॉटर मेडिटेशन* की यह *योगविद्या* निराली ही थी । महर्षि सौभरि* यमुना जल से बाहर निकल कर पारवारिक लीला करने हेतु,राजा मान्धाता के पास पहुँचकर उनसे शादी का प्रस्ताव रख, *आत्मविश्वासी, निडर, स्पष्टवक्ता, स्वयंवर समर्थक* आदि होने का बड़ा ही अच्छा नमूना पेश करते हैं ।💐

 साभार:- Oman Saubhari Bhurrak, Bharanakalan (Mathura)

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Learn in Brajbhasha Greetings (BrajKiBoli Mein)-



Why does Saubhari Brahman called Ahivasi Brahman?

Why does Saubhari Brahman called Ahivasi Brahman?

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महर्षि सौभरि सृष्टि के आदि महामान्य महर्षियों में हैं। ऋग्वेद की विनियोग परंपरा तथा आर्षानुक्रमणी से ज्ञात होता है कि ब्रह्मा से अंगिरा, अंगिरा से घोर, घोर से कण्व और कण्व से सौभरि हुए। इसके अनुसार सौभरि बहुऋचाचार्यमहामहिम ब्रह्मा के पौत्र के पौत्र हुए। मान्यता है कि फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को इन्होंने जन्म ग्रहण किया। महर्षि सौभरि एक हजार वर्ष तक यमुना हृद जहां ब्रज का कालीदह और वृन्दावन का सुनरखवन है, में समाधिस्थ हो तपस्या करते हैं। इन्द्रादिक समस्त देव उनकी परीक्षा के लिए महर्षि नारद को भेजते हैं। नारद जी भी सौभरिजी के तप एवं ज्ञान से प्रभावित हो वंदन करते हैं तथा सभी देवगण उनका पुष्प वर्षा कर अभिनंदन करते हैं। इधरअयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट राजा मान्धाता वर्षा न होने के कारण राज्य में अकाल पडने से बहुत दुखी थे। अपनी सहधर्मिणी से प्रजा के कष्टों की चर्चा कर ही रहे थे; कि घूमते-घूमते नारद जी सम्राट मान्धाताके राजमहल में पधारे। सम्राट ने अपनी व्यथा नारद जी को निवेदित कर दी। नारद जी ने अयोध्या नरेश को परामर्श दिया कि वे शास्त्रों के मर्मज्ञ, यशस्वी एवं त्रिकालदर्शी महर्षि सौभरि से यज्ञ करायें। निश्चय ही आपके राज्य एवं प्रजा का कल्याण होगा। राजा मान्धातानारद जी के परामर्श अंतर्गत ब्रह्मर्षि सौभरिके यमुना हृदस्थित आश्रम में पहुंचे तथा अपनी व्यथा कथा अर्पित की। महर्षि ने ससम्मान अयोध्यापति को आतिथ्य दिया और प्रात:काल जनकल्याणकारी यज्ञ कराने हेतु अयोध्यापतिके साथ अयोध्या पहुंच जाते हैं।

यज्ञ एक माह तक अनवरत रूप से अपना आनंद प्रस्फुटित करता है और वर्षा प्रारम्भ हो जाती है। सम्राट दम्पति ब्रह्मर्षि को अत्यधिक सम्मान सहित उनके आश्रम तक पहुंचाने आये। महर्षि का अपनी तपस्या के अंतर्गत नैतिक नियम था किआटे की गोलियां बनाकर मछलियों को प्रतिदिन भोज्य प्रदान किया करते थे। शरणागत वत्सल महर्षि सौभरि की ख्याति भी सर्वत्र पुष्पित थी। विष्णु भगवान का वाहन होने के दर्प में गरुड मछलियों एवं रमणक द्वीप के निवासी कद्रूपुत्र सर्पो को अपना भोजन बनाने लगा। सर्पो ने शेषनाग से अपना दुख सुनाया। शेषनाग जी ने शरणागत वत्सल महर्षि सौभरि की छत्रछाया में शरण लेने का परामर्श उन्हें दिया। कालियनाग के साथ पीडित सर्प सौभरिजी की शरणागत हुए। मुनिवर ने सभी को आश्वस्त किया तथा मछली एवं अहिभक्षीगरुड को शाप दिया कि यदि उनके सुनरखस्थित क्षेत्र में पद रखा तो भस्म हो जाएगा। इस क्षेत्र को महर्षि ने अहिवास क्षेत्र घोषित कर दिया। तभी से महर्षि सौभरि “अहि“ को वास देने के कारण अहिवासी कहलाये। इस प्रकार उस स्थल में अहि,मछली तथा सभी जीव जन्तु, शान्ति पूर्वक निवास करते रहे।

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साभार-  ओमन सौभरि भुरर्क, भरनाकलां, मथुरा

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