दाऊजी मंदिर व बल्देव नगरी व बलभद्र कुंड का वर्णन-
श्रीकृष्ण के बडे भईया व ब्रज के राजा बलदाउ की नगरी बल्देव मथुरा जनपद में ब्रजमंडल के पूर्वी छोर पर स्थित है। मथुरा से 21 कि०मी० दूरी पर एटा-मथुरा मार्ग के मध्य में स्थित है। गोकुल एवं महावन जो कि पुराणों में वर्णित वृहदवन के नाम से विख्यात हैं, इसी मार्ग पर पड़ते हैं। यह स्थान पुराणोक्त विद्रुमवन के नाम से निर्दिष्ट है।
दाऊजी के मंदिर में दाऊ बाबा की अत्यन्त मनोहारी विशाल प्रतिमा एवं उनकी सहधर्मिणी ज्यौंतिस्मती "रेवती जी" का विग्रह है। यह एक विशालकाय देवालय है जो कि एक दुर्ग की भाँति सुदृढ प्राचीरों से आवेष्ठित है। मन्दिर के चारों ओर सर्प की कुण्डली की भाँति परिक्रमा मार्ग में एक पूर्ण पल्लवित बाज़ार है। इस मन्दिर के चार मुख्य दरवाजे हैं, जो क्रमश: सिंहचौर, जनानी ड्योढी, गोशालाद्वार या बड़वाले दरवाज़े के नाम से जाने जातेहैं। मन्दिर के पीछे एक विशाल कुण्ड है जो कि बलभद्रकुण्ड के नाम से पुराणों में वर्णित है। आजकल इसे क्षीरसागर के नाम से पुकारते हैं।
श्री हलधर दाऊजी का मूर्तिरूप- बृजराज दाउजी की मूर्ति देवालय में पूर्वाभिमुख 2 फुट ऊँचे संगमरमर के सिंहासन पर स्थापित है। पौराणिक आख्यान के अनुसार भगवान श्री कृष्ण के पौत्र श्रीवज्रनाभ ने अपने पूर्वजों की पुण्यस्मृति में तथा उनके उपासना क्रम को संस्थापित करने हेतु 4 देवविग्रह तथा 4 देवियों की मूर्तियाँ स्थापित की थीं जिन में से श्रीबलदेवजी का यही विग्रह है जो कि द्वापरयुग के बाद कालक्षेप से भूमिस्थ हो गया था। पुरातत्ववेत्ताओं का मत है यह मूर्तिपूर्व कुषाण कालीन है जिसका निर्माण काल 2 सहस्र या इससे अधिक होना चाहिये। ब्रजमण्डल के प्राचीन देवस्थानों में यदि श्रीबलदेव जी विग्रह को प्राचीनतम कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं। ब्रज के अतिरिक्त शायद ही कहीं इतना विशाल वैष्णव श्रीविग्रह दर्शन को मिलें। यह मूर्ति क़रीब 8 फुट ऊँची एवं साढे तीन फुट चौडी श्याम वर्ण की है। पीछे शेषनाग सात फनों से युक्त मुख्य मूर्ति की छाया करते हैं। मूर्ति नृत्यमुद्रा में है, दाहिना हाथ सिर से ऊपर वरद मुद्रा में है एवं बाँये हाथ में चषक है। विशाल नेत्र, भुजाएं-भुजाओं में आभूषण, कलाई में कंडूला उत्कीर्णित हैं। मुकट में बारीक नक्काशी का आभास होता है पैरों में भी आभूषण प्रतीत होते हैं तथा कटि में धोती पहने हुए हैं मूर्ति के कान में एक कुण्डल है तथा कण्ठ में वैजन्ती माला उत्कीर्णित हैं। मूर्ति के सिर के ऊपर से लेकर चरणों तक शेषनाग स्थित है। शेषनाग के तीन वलय हैं जो कि मूर्ति में स्पष्ट दिखाई देते हैं और योग शास्त्र की कुण्डलिनी शक्ति के प्रतीक रूप हैं क्योंकि पौराणिक मान्यता के अनुसार बलदेव जी शक्ति के प्रतीक योग एवं शिलाखण्ड में स्पष्ट दिखाई देती हैं जो कि सुबल, तोष एवं श्रीदामा सखाओं की हैं।
बलदेव जी के सामने दक्षिण भाग में दो फुट ऊँचे सिंहासन पर रेवती जी की मूर्ति स्थापित हैं जो कि बलदेव जी के चरणोन्मुख है और रेवती जी के पूर्ण सेवा-भाव की प्रतीक है। यह मूर्ति क़रीब पाँच फुट ऊँची है। दाहिना हाथ वरदमुद्रा में तथा वाम हस्त क़मर के पास स्थित है। इस मूर्ति में भी सर्पवलय का अंकन स्पष्ट है। दोनों भुजाओं में, कण्ठ में, चरणों में आभूषणों का उत्कीर्णन है। उन्मीलित नेत्रों एवं उन्नत उरोजों से युक्त विग्रह अत्यन्त शोभायमान लगता हैं। सम्भवत: ब्रजमण्डल में बलदेव जी से प्राचीन कोई देव विग्रह नहीं।
ऐतिहासिक प्रमाणों में चित्तौड़ के शिलालेखों में जो कि ईसा से पाँचवी शताब्दी पूर्व के हैं, बलदेवोपासना एवं उनके मन्दिरों की भी पुष्टि हुई है। अर्पटक, भोरगाँव नानाघटिका के शिला लेख जो कि ईसा के प्रथम द्वितीय शाताब्दी के हैं, जुनसुठी की बलदेव मूर्ति शुंगकालीन है तथा यूनान के शासक अगाथोक्लीज की चाँदी की मुद्रा पर हलधारी बलराम की मूर्ति का अंकन सभी “बलदेव जी की पूजा उपासनाऐं वंजनमान्यओं के प्रतीक” हैं।
मूर्तिकाप्राकट्य का घटनाकाल- बलदेव मूर्ति के प्राकट्य का भी एक बहुत रोचक इतिहास है। 16वीं शताब्दी में मुग़ल साम्राज्य का प्रतिष्ठा सूर्य मध्यान्ह में था। अकबर अपने भारीश्रम, बुद्धि चातुर्य एवं युद्ध कौशल से एक ऐसी सल्तनत की प्राचीर के निर्माण में रत था जो कि उस के कल्पनालोक की मान्यता के अनुसारक भी न ढहें और पीढी-दर-पीढी मुग़लिया ख़ानदान हिन्दुस्तान की सरज़मीं पर निष्कंटक अपनी सल्तनत को क़ायम रखकर गद्दी एवं ताज का उपभोग करते रहें।
एक ओर यह मुग़लों की स्थापना का समय था दूसरी ओर मध्ययुगीन धर्माचार्य एवं सन्तों के अवतरण तथा अभ्युदय का स्वर्णयुग। ब्रजमंडल में तत्कालीन धर्माचार्यों में महाप्रभु बल्लभाचार्य, श्री निम्बकाचार्य एवं चैतन्य संप्रदाय की मान्यताएं अत्यन्त लोकप्रिय थीं।
गोवर्धन की तलहटी में एक बहुत प्राचीनतीर्थ-स्थल सूर्यकुण्ड तटवर्तीग्राम भरना-खुर्द (छोटाभरना) था। इसी सूर्य कुण्ड के घाट पर परम सात्विक ब्राह्मण वंशावतंश गोस्वामी कल्याणदेवाचार्य तपस्या करते थे। उनका जन्म भी इसी ग्राम में अभयराम जी के घर में हुआ था। वे श्रीबलदेवजी के अनन्य अर्चक थे।
गोस्वामी कल्याणदेव जी- बल्देव नगरी के संस्थापक कल्याण देव जी बड़ी ही धार्मिक और सेवा भाव वाले व्यक्ति थे । वे निष्काम भाव से ठाकुर सेवा व गोसेवा किया करते थे । उनका जन्म गांव भरनाखुर्द में हुआ था । उनका उपगोत्र 'तगारे' था । बाल्यावस्था बाद वो गोकुल आकर रहने लगे थे।
एक दिन श्री कल्याण-देवजी ने मथुरा तीर्थाटन का निश्चय कर घर से प्रस्थान कर दिया और श्री गिर्राज परिक्रमा कर के मानसी गंगा में स्नान किया इसके बाद फिर मथुरा नगरी पहुँचे, यहाँ श्री कल्याण देव जी ने श्री यमुना जी में स्नान किया और दर्शन कर आगे बढ़े और पहुँचे विद्रुमवन जहाँ आज का वर्तमान बल्देव नगर है। यहाँ रात्रि विश्राम किया। सघन वट-वृक्षों की छाया तथा यमुना जी का किनारा ये दोनों स्थितियाँ उनको भा गई। फलत: कुछ दिन यहीं तप करने का निश्चय किया।
एक दिन अपने नित्य कर्म से निवृत हुये ही थे कि दिव्य हल मूसलधारी भगवान श्री बलराम उनके सम्मुख प्रकट हुये तथा बोले कि मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, वर माँगो। कल्याण देवजी ने करबद्ध प्रणाम कर निवेदन किया कि प्रभु आपके नित्य दर्शन के अतिरिक्त मुझे कुछ भी नहीं चाहिये। अत: आप नित्य मेरे घर विराजें। बलदेवजी ने तथास्तु कहकर स्वीकृति दी और अन्तर्धान हो गये। साथ ही यह भी आदेश किया कि ‘जिस प्रयोजन हेतु मथुरा यात्रा कर रहे हो, वे सभी फल तुम्हें यहीं मिलेंगे । श्री दाउजी महाराज ने श्री कल्याण देवजी को बताया की, इसी वट-वृक्ष के नीचे मेरी एवं श्री रेवती जी की प्रतिमाएं भूमिस्थ हैं, उनका प्राकट्य करो। अब तो कल्याण-देवजी की व्यग्रता बढ गई और जुट गये भूमि के खोदने में, जिस स्थान का आदेश श्री बलराम, दाऊ जी ने किया था।
इधर एक और विचित्र आख्यान गोकुल उपस्थित हुआ कि जिस दिन श्री कल्याण-देवजी को साक्षात्कार हुआ उसी पूर्व रात्रि को गोकुल में गोस्वामी गोकुलनाथजी को स्वप्न आया कि जो श्यामा गौ (गाय) के बारे में आप चिन्तित हैं वह नित्य दूध मेरी प्रतिमा के ऊपर स्त्रवित कर देती है और जिस ग्वाले को आप दोषी मान रहे हो वो निर्दोष है। मेरी प्रतिमाएं विद्रुमवन में वट-वृक्ष के नीचे भूमिस्थ हैं उनको प्राकट्य कराओ।
यह श्यामा गौ सद्य प्रसूता होने के बावजूद दूध नहीं देती थी क्यूँकि ग्वाला जब सभी गायों को लेकर वन में चराने ले जाते थे तभी ये श्यामा गाय, एक अमुख स्थान पर जा खड़ी हो जाती थी और श्यामा गाय के थनों से स्वतः दूध उस स्थान पर गिरने लगता था जहाँ पर श्री दाउजी और रेवती माया की मूर्तियाँ भूमिस्थ थीं इस वजह से गाय के थनों में दूध नही होता था। इसी कारण महाराज श्री को दूध के बारे में ग्वाला के ऊपर सन्देह होता था। प्रभु की आज्ञा से गोस्वामीजी ने उपर्युक्त स्थल पर जाने का निर्णय किया। वहाँ जाकर देखा कि श्री कल्याण देवजी मूर्तियुगल को भूमि से खोदकर निकाल चुके हैं। वहाँ पहुँच नमस्कार अभिवादन के उपरान्त दोनों ने अपने-अपने वृतान्त सुनाये और निश्चय किया कि इस घोर जंगल से मूर्तिद्वय को हटाकर क्यों न श्री गोकुल में प्रतिष्ठित किया जाय। कहते हैं कि चौबीस बैल और अनेक व्यक्तियों के द्वारा हटाये जाने पर भी, मूर्तिया टस से मस न हुई और इतना श्रम व्यर्थ गया। हार मानकर सभी यही निश्चय किया गया कि दोनों मूर्तियों को अपने प्राकट्य के स्थान पर ही प्रतिष्ठित कर दिया जाय। अत: जहाँ श्रीकल्याण-देव तपस्या करते थे उसी पर्णकुटी में सर्वप्रथम स्थापना हुई जिसके द्वारा कल्याण देवजी को नित्य घर में निवास करने का दिया गया ।
यह दिन संयोगत: मार्गशीर्ष मास की पूर्णमासी थी। षोडसोपचार क्रम से वेदाचार के अनुरूप दोनों मूर्तियों की अर्चना की गई तथा सर्वप्रथम श्री ठाकुरजी को खीर का भोग रखा गया, अत: उस दिन से लेकर आज तक प्रतिदिन खीर भोग में अवश्य आती है। गोस्वामी गोकुलनाथजी ने एक नवीन मंदिर के निर्माण का भार वहन करने का संकल्प लिया तथा पूजा अर्चना का भार श्रीकल्याण-देवजी ने। उस दिन से अद्यावधि तक श्रीकल्याण वंशज ही श्री ठाकुरजी की पूजा अर्चना करते आ रहे हैं। यह दिन मार्ग शीर्ष पूर्णिमा सम्वत् 1638 विक्रम था। एक वर्ष के भीतर पुन: दोनों मूर्तियों को पर्णकुटी से हटाकर श्री गोस्वामी महाराज श्री के नव-निर्मित देवालय में, जो कि सम्पूर्ण सुविधाओं से युक्त था, मार्ग शीर्ष पूर्णिमा संवत 1639 को प्रतिष्ठित कर दिया गया। यह स्थान भगवान बलराम की जन्म-स्थली एवं नित्य क्रीड़ा स्थली है पौराणिक आख्यान के अनुसार यह स्थान नन्द बाबा के अधिकार क्षेत्र में था।
मुगल काल में मन्दिर की दशा- उस धर्माद्वेषी शंहशाह औरंगजेब का मात्र संकल्प समस्त हिन्दूदेवी-देवताओं की मूर्तिभंजन एवं देवस्थान को नष्ट-भ्रष्ट करना था। एक बार जब वह मथुरा के केशवदेव मन्दिर एवं महावन के प्राचीनतम देवस्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करता आगे बढा तो उसने बलदेव जी की ख्याति सुनी व निश्चय किया कि क्यों न इस मूर्ति को तोड़ दिया जाय फलत: मूर्ति भंजनी सेना को लेकर आगे बढ़ा। कहते हैं कि सेना निरन्तर चलती रही जहाँ भी पहुँचते बलदेव की दूरी पूछने पर दो कोस ही बताई जाती जिससे उसने समझा कि निश्चय ही बल्देव कोई चमत्कारी देवविग्रह है, किन्तु अधमोन्मार्द्ध सेना लेकर बढ़ता ही चला गया जिसके परिणाम-स्वरूप कहते हैं कि भौरों और ततइयों (बेर्रा) का एक भारी झुण्ड उसकी सेना पर टूट पडा जिससे सैकडों सैनिक एवं घोडे आहत होकर काल कवलित हो गये। औरंगजेब ने स्वीकार किया देवालय का प्रभाव और शाही फ़रमान जारी किया जिसके द्वारा मंदिर को 5 गाँव की माफी एवं एक विशाल नक्कार खाना निर्मित कराकर प्रभु को भेंट किया एवं नक्कार खाना की व्यवस्था हेतु धन प्रतिवर्ष राजकोष से देने के आदेश प्रसारित किया। वहीं नक्कार खाना आज भी मौजूद है और यवन शासक की पराजय का मूक साक्षी है।
इसी फरमान-नामे का नवीनीकरण उसके पौत्र शाहआलम ने सन् 1796 फसली की ख़रीफ़ में दो गाँव और बढ़ा कर यानी 7 गाँव कर दिया जिनमें खड़ेरा, छवरऊ, नूरपुर, अरतौनी, रीढ़ा आदि जिसको तत्कालीन क्षेत्रीय प्रशासक (वज़ीर) नज़फखाँ बहादुर के हस्ताक्षर से शाही मुहर द्वारा प्रसारित किया गया तथा स्वयं शाहआलम ने एक पृथक्से आदेश चैत्र सदी 3 संवत 1840 को अपनी मुहर एवं हस्ताक्षर से जारी किया। शाह आलम के बाद इस क्षेत्र पर सिंधिया राजवंश का अधिकार हुआ। उन्होंने सम्पूर्ण जागीर को यथा स्थान रखा एवं पृथक्से भोग राग माखन मिश्री एवं मंदिर के रख-रखाव के लिये राजकोष से धन देने की स्वीकृति दिनाँक भाद्रपद-वदी चौथ संवत 1845 को गोस्वामी कल्याण देव जी के पौत्र गोस्वामी हंसराज जी, जगन्नाथ जी को दी। यह सारी जमींदारी आज भी मंदिर श्री दाऊजी महाराज एवं उनके मालिक कल्याण वंशज, जो कि मंदिर के पण्डा पुरोहित कहलाते हैं, उनके अधिकार में है।
मुग़लकाल में एक विशिष्ट मान्यता यह थी कि सम्पूर्ण महावन तहसील के समस्त गाँवों में से श्री दाऊजी महाराज के नाम से पृथक्देव स्थान खाते की माल गुजारी शासन द्वारा वसूल कर मंदिर को भेंट की जाती थी, जो मुगल काल से आज तक “शाही ग्रांट” के नाम से जानी जाती हैं, सरकारी खजाने से आज तक भी मंदिर को प्रति वर्ष भेंट की जाती है।
ब्रिटिशशासनकाल में मंदिर- इसके बाद फिरंगियों का जमाना आया। ब्रज का यह मन्दिर सदैव से ही देश-भक्तों के जमावड़े का केन्द्र रहा और उनकी सहायता एवं शरण-स्थल का एक मान्य-स्रोत भी। जब ब्रिटिश शासन को पता चला तो उन्होंने मन्दिर के मालिका पण्डों को आगाह किया कि वे किसी भी स्वतन्त्रता प्रेमी को अपने यहाँ शरण न दें परन्तु आत्मीय सम्बन्ध एवं देश के स्वतन्त्रता प्रेमी मन्दिर के मालिकों ने यह हिदायत नहीं मानी, जिस से चिढ़कर अंग्रेज शासकों ने मन्दिर के लिये जो जागीरें भूमि एवं व्यवस्थाएं पूर्वशाही परिवारों से प्रदत्त थी उन्हें दिनाँक 31 दिसम्बरसन् 1841 को स्पेशल कमिश्नर के आदेश से कुर्की कर जब्त कर लिया गया और मन्दिर के ऊपर पहरा बिठा दिया जिस से कोई भी स्वतन्त्रता प्रेमी मन्दिर में न आ सके परन्तु किले जैसे प्राचीरों से आवेष्ठित मन्दिर में किसी दर्शनार्थी को कैसे रोक लेते? अत: स्वतन्त्रता संग्रामी दर्शनार्थी के रूप में आते तथा मन्दिर में निर्बाध चलने वाले सदावर्त एवं भोजन व्यवस्था का आनन्द लेते ओर अपनी कार्य-विधि का संचालन करके पुन:अपने स्थान को चले जाते। अत: प्रयत्न करने के बाद भी गदर प्रेमियों को शासन न रोक पाया।
बलभद्र कुंड (क्षीरसागर)- वैसे बलदेव में मुख्य आकर्षण श्री दाऊजी का मंदिर है किन्तु इसके अतिरिक्त क्षीर सागर तालाब जो कि क़रीब 80 गज चौड़ा 80 गज लम्बा है।जिसके चारों ओर पक्के घाट बने हुए हैं जिसमें हमेशा जल पूरित रहता है उस जल में सदैव जैसे दूध पर मलाई होती है उसी प्रकार काई (शैवाल) छायी रहती है। दशनार्थी इस सरोवर में स्नान आचमन करते हैं,पश्चात दर्शन को जाते हैं।
पर्वोत्सव- बलदेव छठ व चैत्र कृष्ण द्वितीया को दाऊजी का हुरंगा जो कि ब्रजमंडल के होली उत्सव का मुकुटमणि है, अत्यन्त सुरम्य एवं दर्शनीय हैं और इसे बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है ।। चैत्र कृष्ण रंगपंचमी को होली उत्सव के बाद 1 वर्ष के लिये इस मदन-पर्व को विदायी दी जाती है। वैसे तो बलदेव में प्रतिमाह पूर्णिमा को विशेष मेला लगता है फिर भी विशेष कर चैत्रपूर्णिमा, शरदपूर्णिमा, मार्गशीर्ष पूर्णिमा एवं देवछट को भारी भीड़ होती है। इसके अतिरिक्त वर्ष-भर हजारों दर्शनार्थी प्रतिदिन आते हैं।भगवान विष्णु के अवतारों की तिथियों को विशेष स्नान भोग एवं अर्चना होती है तथा 2 बार स्नान श्रृंगार एवं विशेष भोग राग की व्यवस्था होती है। यहाँ का मुख्य प्रसाद माखन एवं मिश्री है तथा खीर का प्रसाद, जो कि नित्य भगवान ग्रहण करते हैं ।
दर्शन का समयक्रम- यहाँ दर्शन का क्रम प्राय: गर्मी में अक्षय तृतीया से हरियाली तीज तक प्रात: 6 बजे से 12 बजे तक दोपहर 4 बजे से 5 बजे तक एवं सायं 7 बजे से 10 तक होते हैं। हरियाली तीज से प्रात: 6 से 11 एवं दोपहर 3-4 बजे तक एवं रात्रि 6-1/2 से 9 तक होते हैं।
यहाँ की विशेषताएं- समय पर दर्शन, एवं उत्सवों के अनुरूप यहाँ की समाज को गाय की अत्यन्त प्रसिद्ध है। यहाँ की साँझीकला जिसका केन्द्र मन्दिर ही है जो कि अत्यन्त सुप्रसिद्ध है। बलदेव नगरी के लोगों में पट्टेबाजी का, अखाड़ेबन्दी (जिसमें हथियार चलाना लाठी भाँजना आदि) का बड़ा शौक़ है समस्त मथुरा जनपद एवं पास-पड़ौसी जिलों में भी यहाँ का `काली का प्रदर्शन' अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि का है। बलदेव के मिट्टी के बर्तन बहुत प्रसिद्ध हैं। यहाँ का मुख्य प्रसाद माखन मिश्री तथा श्री ठाकुर जी को भाँग का भोग लगने से यहाँ प्रसाद रूप में भाँग पीने के शौक़ीन लोगों की भी कमी नहीं। भाँग तैयार करने के भी कितने ही सिद्धहस्त-गुरु हैं । यहाँ की समस्त परम्पराओं का संचालन आज भी मन्दिर से होता है। यदि सामंती युग का दर्शन करना हो तो आज भी बलदेव में प्रत्यक्ष हो सकता है। आज भी मन्दिर के घंटे एवं नक्कारखाने में बजने वाली बम्ब की आवाज से नगर के समस्त व्यापार व्यवहार चलते हैं।
यहाँ पर दर्शनार्थ के लिये आने वाले महापुरुष-
महामना मालवीय जी, पं०मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, मोहनदास करमचन्दगाँधी (बापू) माता कस्तूरबा, राष्ट्रपति डॉ०राजेन्द्रप्रसाद, राजवंशी देवीजी, डॉ०राधाकृष्णजी, सरदार बल्लभभाई पटेल, मोरारजी देसाई, दीनदयाल जी उपाध्याय, जैसे श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ, भारतेन्दु बाबू हरिशचन्द्रजी, हरिओमजी, निरालाजी, भारत के मुख्यन्यायाधीश जस्टिस बांग्चू ,के०एन० जी जैसे महापुरुष बलदेव दर्शनार्थ आ चुके हैं |
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श्रीकृष्ण के बडे भईया व ब्रज के राजा बलदाउ की नगरी बल्देव मथुरा जनपद में ब्रजमंडल के पूर्वी छोर पर स्थित है। मथुरा से 21 कि०मी० दूरी पर एटा-मथुरा मार्ग के मध्य में स्थित है। गोकुल एवं महावन जो कि पुराणों में वर्णित वृहदवन के नाम से विख्यात हैं, इसी मार्ग पर पड़ते हैं। यह स्थान पुराणोक्त विद्रुमवन के नाम से निर्दिष्ट है।
दाऊजी के मंदिर में दाऊ बाबा की अत्यन्त मनोहारी विशाल प्रतिमा एवं उनकी सहधर्मिणी ज्यौंतिस्मती "रेवती जी" का विग्रह है। यह एक विशालकाय देवालय है जो कि एक दुर्ग की भाँति सुदृढ प्राचीरों से आवेष्ठित है। मन्दिर के चारों ओर सर्प की कुण्डली की भाँति परिक्रमा मार्ग में एक पूर्ण पल्लवित बाज़ार है। इस मन्दिर के चार मुख्य दरवाजे हैं, जो क्रमश: सिंहचौर, जनानी ड्योढी, गोशालाद्वार या बड़वाले दरवाज़े के नाम से जाने जातेहैं। मन्दिर के पीछे एक विशाल कुण्ड है जो कि बलभद्रकुण्ड के नाम से पुराणों में वर्णित है। आजकल इसे क्षीरसागर के नाम से पुकारते हैं।
श्री हलधर दाऊजी का मूर्तिरूप- बृजराज दाउजी की मूर्ति देवालय में पूर्वाभिमुख 2 फुट ऊँचे संगमरमर के सिंहासन पर स्थापित है। पौराणिक आख्यान के अनुसार भगवान श्री कृष्ण के पौत्र श्रीवज्रनाभ ने अपने पूर्वजों की पुण्यस्मृति में तथा उनके उपासना क्रम को संस्थापित करने हेतु 4 देवविग्रह तथा 4 देवियों की मूर्तियाँ स्थापित की थीं जिन में से श्रीबलदेवजी का यही विग्रह है जो कि द्वापरयुग के बाद कालक्षेप से भूमिस्थ हो गया था। पुरातत्ववेत्ताओं का मत है यह मूर्तिपूर्व कुषाण कालीन है जिसका निर्माण काल 2 सहस्र या इससे अधिक होना चाहिये। ब्रजमण्डल के प्राचीन देवस्थानों में यदि श्रीबलदेव जी विग्रह को प्राचीनतम कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं। ब्रज के अतिरिक्त शायद ही कहीं इतना विशाल वैष्णव श्रीविग्रह दर्शन को मिलें। यह मूर्ति क़रीब 8 फुट ऊँची एवं साढे तीन फुट चौडी श्याम वर्ण की है। पीछे शेषनाग सात फनों से युक्त मुख्य मूर्ति की छाया करते हैं। मूर्ति नृत्यमुद्रा में है, दाहिना हाथ सिर से ऊपर वरद मुद्रा में है एवं बाँये हाथ में चषक है। विशाल नेत्र, भुजाएं-भुजाओं में आभूषण, कलाई में कंडूला उत्कीर्णित हैं। मुकट में बारीक नक्काशी का आभास होता है पैरों में भी आभूषण प्रतीत होते हैं तथा कटि में धोती पहने हुए हैं मूर्ति के कान में एक कुण्डल है तथा कण्ठ में वैजन्ती माला उत्कीर्णित हैं। मूर्ति के सिर के ऊपर से लेकर चरणों तक शेषनाग स्थित है। शेषनाग के तीन वलय हैं जो कि मूर्ति में स्पष्ट दिखाई देते हैं और योग शास्त्र की कुण्डलिनी शक्ति के प्रतीक रूप हैं क्योंकि पौराणिक मान्यता के अनुसार बलदेव जी शक्ति के प्रतीक योग एवं शिलाखण्ड में स्पष्ट दिखाई देती हैं जो कि सुबल, तोष एवं श्रीदामा सखाओं की हैं।
बलदेव जी के सामने दक्षिण भाग में दो फुट ऊँचे सिंहासन पर रेवती जी की मूर्ति स्थापित हैं जो कि बलदेव जी के चरणोन्मुख है और रेवती जी के पूर्ण सेवा-भाव की प्रतीक है। यह मूर्ति क़रीब पाँच फुट ऊँची है। दाहिना हाथ वरदमुद्रा में तथा वाम हस्त क़मर के पास स्थित है। इस मूर्ति में भी सर्पवलय का अंकन स्पष्ट है। दोनों भुजाओं में, कण्ठ में, चरणों में आभूषणों का उत्कीर्णन है। उन्मीलित नेत्रों एवं उन्नत उरोजों से युक्त विग्रह अत्यन्त शोभायमान लगता हैं। सम्भवत: ब्रजमण्डल में बलदेव जी से प्राचीन कोई देव विग्रह नहीं।
ऐतिहासिक प्रमाणों में चित्तौड़ के शिलालेखों में जो कि ईसा से पाँचवी शताब्दी पूर्व के हैं, बलदेवोपासना एवं उनके मन्दिरों की भी पुष्टि हुई है। अर्पटक, भोरगाँव नानाघटिका के शिला लेख जो कि ईसा के प्रथम द्वितीय शाताब्दी के हैं, जुनसुठी की बलदेव मूर्ति शुंगकालीन है तथा यूनान के शासक अगाथोक्लीज की चाँदी की मुद्रा पर हलधारी बलराम की मूर्ति का अंकन सभी “बलदेव जी की पूजा उपासनाऐं वंजनमान्यओं के प्रतीक” हैं।
मूर्तिकाप्राकट्य का घटनाकाल- बलदेव मूर्ति के प्राकट्य का भी एक बहुत रोचक इतिहास है। 16वीं शताब्दी में मुग़ल साम्राज्य का प्रतिष्ठा सूर्य मध्यान्ह में था। अकबर अपने भारीश्रम, बुद्धि चातुर्य एवं युद्ध कौशल से एक ऐसी सल्तनत की प्राचीर के निर्माण में रत था जो कि उस के कल्पनालोक की मान्यता के अनुसारक भी न ढहें और पीढी-दर-पीढी मुग़लिया ख़ानदान हिन्दुस्तान की सरज़मीं पर निष्कंटक अपनी सल्तनत को क़ायम रखकर गद्दी एवं ताज का उपभोग करते रहें।
एक ओर यह मुग़लों की स्थापना का समय था दूसरी ओर मध्ययुगीन धर्माचार्य एवं सन्तों के अवतरण तथा अभ्युदय का स्वर्णयुग। ब्रजमंडल में तत्कालीन धर्माचार्यों में महाप्रभु बल्लभाचार्य, श्री निम्बकाचार्य एवं चैतन्य संप्रदाय की मान्यताएं अत्यन्त लोकप्रिय थीं।
गोवर्धन की तलहटी में एक बहुत प्राचीनतीर्थ-स्थल सूर्यकुण्ड तटवर्तीग्राम भरना-खुर्द (छोटाभरना) था। इसी सूर्य कुण्ड के घाट पर परम सात्विक ब्राह्मण वंशावतंश गोस्वामी कल्याणदेवाचार्य तपस्या करते थे। उनका जन्म भी इसी ग्राम में अभयराम जी के घर में हुआ था। वे श्रीबलदेवजी के अनन्य अर्चक थे।
गोस्वामी कल्याणदेव जी- बल्देव नगरी के संस्थापक कल्याण देव जी बड़ी ही धार्मिक और सेवा भाव वाले व्यक्ति थे । वे निष्काम भाव से ठाकुर सेवा व गोसेवा किया करते थे । उनका जन्म गांव भरनाखुर्द में हुआ था । उनका उपगोत्र 'तगारे' था । बाल्यावस्था बाद वो गोकुल आकर रहने लगे थे।
एक दिन श्री कल्याण-देवजी ने मथुरा तीर्थाटन का निश्चय कर घर से प्रस्थान कर दिया और श्री गिर्राज परिक्रमा कर के मानसी गंगा में स्नान किया इसके बाद फिर मथुरा नगरी पहुँचे, यहाँ श्री कल्याण देव जी ने श्री यमुना जी में स्नान किया और दर्शन कर आगे बढ़े और पहुँचे विद्रुमवन जहाँ आज का वर्तमान बल्देव नगर है। यहाँ रात्रि विश्राम किया। सघन वट-वृक्षों की छाया तथा यमुना जी का किनारा ये दोनों स्थितियाँ उनको भा गई। फलत: कुछ दिन यहीं तप करने का निश्चय किया।
एक दिन अपने नित्य कर्म से निवृत हुये ही थे कि दिव्य हल मूसलधारी भगवान श्री बलराम उनके सम्मुख प्रकट हुये तथा बोले कि मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ, वर माँगो। कल्याण देवजी ने करबद्ध प्रणाम कर निवेदन किया कि प्रभु आपके नित्य दर्शन के अतिरिक्त मुझे कुछ भी नहीं चाहिये। अत: आप नित्य मेरे घर विराजें। बलदेवजी ने तथास्तु कहकर स्वीकृति दी और अन्तर्धान हो गये। साथ ही यह भी आदेश किया कि ‘जिस प्रयोजन हेतु मथुरा यात्रा कर रहे हो, वे सभी फल तुम्हें यहीं मिलेंगे । श्री दाउजी महाराज ने श्री कल्याण देवजी को बताया की, इसी वट-वृक्ष के नीचे मेरी एवं श्री रेवती जी की प्रतिमाएं भूमिस्थ हैं, उनका प्राकट्य करो। अब तो कल्याण-देवजी की व्यग्रता बढ गई और जुट गये भूमि के खोदने में, जिस स्थान का आदेश श्री बलराम, दाऊ जी ने किया था।
इधर एक और विचित्र आख्यान गोकुल उपस्थित हुआ कि जिस दिन श्री कल्याण-देवजी को साक्षात्कार हुआ उसी पूर्व रात्रि को गोकुल में गोस्वामी गोकुलनाथजी को स्वप्न आया कि जो श्यामा गौ (गाय) के बारे में आप चिन्तित हैं वह नित्य दूध मेरी प्रतिमा के ऊपर स्त्रवित कर देती है और जिस ग्वाले को आप दोषी मान रहे हो वो निर्दोष है। मेरी प्रतिमाएं विद्रुमवन में वट-वृक्ष के नीचे भूमिस्थ हैं उनको प्राकट्य कराओ।
यह श्यामा गौ सद्य प्रसूता होने के बावजूद दूध नहीं देती थी क्यूँकि ग्वाला जब सभी गायों को लेकर वन में चराने ले जाते थे तभी ये श्यामा गाय, एक अमुख स्थान पर जा खड़ी हो जाती थी और श्यामा गाय के थनों से स्वतः दूध उस स्थान पर गिरने लगता था जहाँ पर श्री दाउजी और रेवती माया की मूर्तियाँ भूमिस्थ थीं इस वजह से गाय के थनों में दूध नही होता था। इसी कारण महाराज श्री को दूध के बारे में ग्वाला के ऊपर सन्देह होता था। प्रभु की आज्ञा से गोस्वामीजी ने उपर्युक्त स्थल पर जाने का निर्णय किया। वहाँ जाकर देखा कि श्री कल्याण देवजी मूर्तियुगल को भूमि से खोदकर निकाल चुके हैं। वहाँ पहुँच नमस्कार अभिवादन के उपरान्त दोनों ने अपने-अपने वृतान्त सुनाये और निश्चय किया कि इस घोर जंगल से मूर्तिद्वय को हटाकर क्यों न श्री गोकुल में प्रतिष्ठित किया जाय। कहते हैं कि चौबीस बैल और अनेक व्यक्तियों के द्वारा हटाये जाने पर भी, मूर्तिया टस से मस न हुई और इतना श्रम व्यर्थ गया। हार मानकर सभी यही निश्चय किया गया कि दोनों मूर्तियों को अपने प्राकट्य के स्थान पर ही प्रतिष्ठित कर दिया जाय। अत: जहाँ श्रीकल्याण-देव तपस्या करते थे उसी पर्णकुटी में सर्वप्रथम स्थापना हुई जिसके द्वारा कल्याण देवजी को नित्य घर में निवास करने का दिया गया ।
यह दिन संयोगत: मार्गशीर्ष मास की पूर्णमासी थी। षोडसोपचार क्रम से वेदाचार के अनुरूप दोनों मूर्तियों की अर्चना की गई तथा सर्वप्रथम श्री ठाकुरजी को खीर का भोग रखा गया, अत: उस दिन से लेकर आज तक प्रतिदिन खीर भोग में अवश्य आती है। गोस्वामी गोकुलनाथजी ने एक नवीन मंदिर के निर्माण का भार वहन करने का संकल्प लिया तथा पूजा अर्चना का भार श्रीकल्याण-देवजी ने। उस दिन से अद्यावधि तक श्रीकल्याण वंशज ही श्री ठाकुरजी की पूजा अर्चना करते आ रहे हैं। यह दिन मार्ग शीर्ष पूर्णिमा सम्वत् 1638 विक्रम था। एक वर्ष के भीतर पुन: दोनों मूर्तियों को पर्णकुटी से हटाकर श्री गोस्वामी महाराज श्री के नव-निर्मित देवालय में, जो कि सम्पूर्ण सुविधाओं से युक्त था, मार्ग शीर्ष पूर्णिमा संवत 1639 को प्रतिष्ठित कर दिया गया। यह स्थान भगवान बलराम की जन्म-स्थली एवं नित्य क्रीड़ा स्थली है पौराणिक आख्यान के अनुसार यह स्थान नन्द बाबा के अधिकार क्षेत्र में था।
मुगल काल में मन्दिर की दशा- उस धर्माद्वेषी शंहशाह औरंगजेब का मात्र संकल्प समस्त हिन्दूदेवी-देवताओं की मूर्तिभंजन एवं देवस्थान को नष्ट-भ्रष्ट करना था। एक बार जब वह मथुरा के केशवदेव मन्दिर एवं महावन के प्राचीनतम देवस्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करता आगे बढा तो उसने बलदेव जी की ख्याति सुनी व निश्चय किया कि क्यों न इस मूर्ति को तोड़ दिया जाय फलत: मूर्ति भंजनी सेना को लेकर आगे बढ़ा। कहते हैं कि सेना निरन्तर चलती रही जहाँ भी पहुँचते बलदेव की दूरी पूछने पर दो कोस ही बताई जाती जिससे उसने समझा कि निश्चय ही बल्देव कोई चमत्कारी देवविग्रह है, किन्तु अधमोन्मार्द्ध सेना लेकर बढ़ता ही चला गया जिसके परिणाम-स्वरूप कहते हैं कि भौरों और ततइयों (बेर्रा) का एक भारी झुण्ड उसकी सेना पर टूट पडा जिससे सैकडों सैनिक एवं घोडे आहत होकर काल कवलित हो गये। औरंगजेब ने स्वीकार किया देवालय का प्रभाव और शाही फ़रमान जारी किया जिसके द्वारा मंदिर को 5 गाँव की माफी एवं एक विशाल नक्कार खाना निर्मित कराकर प्रभु को भेंट किया एवं नक्कार खाना की व्यवस्था हेतु धन प्रतिवर्ष राजकोष से देने के आदेश प्रसारित किया। वहीं नक्कार खाना आज भी मौजूद है और यवन शासक की पराजय का मूक साक्षी है।
इसी फरमान-नामे का नवीनीकरण उसके पौत्र शाहआलम ने सन् 1796 फसली की ख़रीफ़ में दो गाँव और बढ़ा कर यानी 7 गाँव कर दिया जिनमें खड़ेरा, छवरऊ, नूरपुर, अरतौनी, रीढ़ा आदि जिसको तत्कालीन क्षेत्रीय प्रशासक (वज़ीर) नज़फखाँ बहादुर के हस्ताक्षर से शाही मुहर द्वारा प्रसारित किया गया तथा स्वयं शाहआलम ने एक पृथक्से आदेश चैत्र सदी 3 संवत 1840 को अपनी मुहर एवं हस्ताक्षर से जारी किया। शाह आलम के बाद इस क्षेत्र पर सिंधिया राजवंश का अधिकार हुआ। उन्होंने सम्पूर्ण जागीर को यथा स्थान रखा एवं पृथक्से भोग राग माखन मिश्री एवं मंदिर के रख-रखाव के लिये राजकोष से धन देने की स्वीकृति दिनाँक भाद्रपद-वदी चौथ संवत 1845 को गोस्वामी कल्याण देव जी के पौत्र गोस्वामी हंसराज जी, जगन्नाथ जी को दी। यह सारी जमींदारी आज भी मंदिर श्री दाऊजी महाराज एवं उनके मालिक कल्याण वंशज, जो कि मंदिर के पण्डा पुरोहित कहलाते हैं, उनके अधिकार में है।
मुग़लकाल में एक विशिष्ट मान्यता यह थी कि सम्पूर्ण महावन तहसील के समस्त गाँवों में से श्री दाऊजी महाराज के नाम से पृथक्देव स्थान खाते की माल गुजारी शासन द्वारा वसूल कर मंदिर को भेंट की जाती थी, जो मुगल काल से आज तक “शाही ग्रांट” के नाम से जानी जाती हैं, सरकारी खजाने से आज तक भी मंदिर को प्रति वर्ष भेंट की जाती है।
ब्रिटिशशासनकाल में मंदिर- इसके बाद फिरंगियों का जमाना आया। ब्रज का यह मन्दिर सदैव से ही देश-भक्तों के जमावड़े का केन्द्र रहा और उनकी सहायता एवं शरण-स्थल का एक मान्य-स्रोत भी। जब ब्रिटिश शासन को पता चला तो उन्होंने मन्दिर के मालिका पण्डों को आगाह किया कि वे किसी भी स्वतन्त्रता प्रेमी को अपने यहाँ शरण न दें परन्तु आत्मीय सम्बन्ध एवं देश के स्वतन्त्रता प्रेमी मन्दिर के मालिकों ने यह हिदायत नहीं मानी, जिस से चिढ़कर अंग्रेज शासकों ने मन्दिर के लिये जो जागीरें भूमि एवं व्यवस्थाएं पूर्वशाही परिवारों से प्रदत्त थी उन्हें दिनाँक 31 दिसम्बरसन् 1841 को स्पेशल कमिश्नर के आदेश से कुर्की कर जब्त कर लिया गया और मन्दिर के ऊपर पहरा बिठा दिया जिस से कोई भी स्वतन्त्रता प्रेमी मन्दिर में न आ सके परन्तु किले जैसे प्राचीरों से आवेष्ठित मन्दिर में किसी दर्शनार्थी को कैसे रोक लेते? अत: स्वतन्त्रता संग्रामी दर्शनार्थी के रूप में आते तथा मन्दिर में निर्बाध चलने वाले सदावर्त एवं भोजन व्यवस्था का आनन्द लेते ओर अपनी कार्य-विधि का संचालन करके पुन:अपने स्थान को चले जाते। अत: प्रयत्न करने के बाद भी गदर प्रेमियों को शासन न रोक पाया।
बलभद्र कुंड (क्षीरसागर)- वैसे बलदेव में मुख्य आकर्षण श्री दाऊजी का मंदिर है किन्तु इसके अतिरिक्त क्षीर सागर तालाब जो कि क़रीब 80 गज चौड़ा 80 गज लम्बा है।जिसके चारों ओर पक्के घाट बने हुए हैं जिसमें हमेशा जल पूरित रहता है उस जल में सदैव जैसे दूध पर मलाई होती है उसी प्रकार काई (शैवाल) छायी रहती है। दशनार्थी इस सरोवर में स्नान आचमन करते हैं,पश्चात दर्शन को जाते हैं।
पर्वोत्सव- बलदेव छठ व चैत्र कृष्ण द्वितीया को दाऊजी का हुरंगा जो कि ब्रजमंडल के होली उत्सव का मुकुटमणि है, अत्यन्त सुरम्य एवं दर्शनीय हैं और इसे बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है ।। चैत्र कृष्ण रंगपंचमी को होली उत्सव के बाद 1 वर्ष के लिये इस मदन-पर्व को विदायी दी जाती है। वैसे तो बलदेव में प्रतिमाह पूर्णिमा को विशेष मेला लगता है फिर भी विशेष कर चैत्रपूर्णिमा, शरदपूर्णिमा, मार्गशीर्ष पूर्णिमा एवं देवछट को भारी भीड़ होती है। इसके अतिरिक्त वर्ष-भर हजारों दर्शनार्थी प्रतिदिन आते हैं।भगवान विष्णु के अवतारों की तिथियों को विशेष स्नान भोग एवं अर्चना होती है तथा 2 बार स्नान श्रृंगार एवं विशेष भोग राग की व्यवस्था होती है। यहाँ का मुख्य प्रसाद माखन एवं मिश्री है तथा खीर का प्रसाद, जो कि नित्य भगवान ग्रहण करते हैं ।
दर्शन का समयक्रम- यहाँ दर्शन का क्रम प्राय: गर्मी में अक्षय तृतीया से हरियाली तीज तक प्रात: 6 बजे से 12 बजे तक दोपहर 4 बजे से 5 बजे तक एवं सायं 7 बजे से 10 तक होते हैं। हरियाली तीज से प्रात: 6 से 11 एवं दोपहर 3-4 बजे तक एवं रात्रि 6-1/2 से 9 तक होते हैं।
यहाँ की विशेषताएं- समय पर दर्शन, एवं उत्सवों के अनुरूप यहाँ की समाज को गाय की अत्यन्त प्रसिद्ध है। यहाँ की साँझीकला जिसका केन्द्र मन्दिर ही है जो कि अत्यन्त सुप्रसिद्ध है। बलदेव नगरी के लोगों में पट्टेबाजी का, अखाड़ेबन्दी (जिसमें हथियार चलाना लाठी भाँजना आदि) का बड़ा शौक़ है समस्त मथुरा जनपद एवं पास-पड़ौसी जिलों में भी यहाँ का `काली का प्रदर्शन' अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि का है। बलदेव के मिट्टी के बर्तन बहुत प्रसिद्ध हैं। यहाँ का मुख्य प्रसाद माखन मिश्री तथा श्री ठाकुर जी को भाँग का भोग लगने से यहाँ प्रसाद रूप में भाँग पीने के शौक़ीन लोगों की भी कमी नहीं। भाँग तैयार करने के भी कितने ही सिद्धहस्त-गुरु हैं । यहाँ की समस्त परम्पराओं का संचालन आज भी मन्दिर से होता है। यदि सामंती युग का दर्शन करना हो तो आज भी बलदेव में प्रत्यक्ष हो सकता है। आज भी मन्दिर के घंटे एवं नक्कारखाने में बजने वाली बम्ब की आवाज से नगर के समस्त व्यापार व्यवहार चलते हैं।
यहाँ पर दर्शनार्थ के लिये आने वाले महापुरुष-
महामना मालवीय जी, पं०मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, मोहनदास करमचन्दगाँधी (बापू) माता कस्तूरबा, राष्ट्रपति डॉ०राजेन्द्रप्रसाद, राजवंशी देवीजी, डॉ०राधाकृष्णजी, सरदार बल्लभभाई पटेल, मोरारजी देसाई, दीनदयाल जी उपाध्याय, जैसे श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ, भारतेन्दु बाबू हरिशचन्द्रजी, हरिओमजी, निरालाजी, भारत के मुख्यन्यायाधीश जस्टिस बांग्चू ,के०एन० जी जैसे महापुरुष बलदेव दर्शनार्थ आ चुके हैं |
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सुनरख गांव (मूल निवास स्थान)व रामताल कुंड वृन्दावन-
सुनरख गांव यमुना जी की किनारे बसा हुआ ऐतिहासिक गांव है। यह ब्रह्मऋषि सौभरि जी की तपस्थली है । सुनरख गाँव में ब्रह्मर्षि सौभरि जी का आश्रम भी है ।
वृन्दावन से 2KM की दूरी पर बसे इसे पौराणिक गांव को सुनरख बाँगर के नाम से भी जाना जाता है ।
यहाँ पर रास-सत्संग आदि अक्सरकर होते-रहते हैं ।
आपने कालिया नाग और गरुड़ की कथा तो सुनी ही होगी वो यही इसी स्थान की प्रासंगिक घटना है ।
कालिया नाग कद्रू का पुत्र और पन्नग जाति का नागराज था। वह पहले रमण द्वीप में निवास करता था, किंतु पक्षीराज गरुड़ से शत्रुता हो जाने के कारण वह यमुना नदी में एक कुण्ड में आकर रहने लगा था। यमुना का यह कुण्ड गरुड़ के लिए अगम्य था, क्योंकि इसी स्थान पर एक दिन क्षुधातुर गरुड़ ने तपस्वी सौभरि जी के मना करने पर भी अपने अभीष्ट मत्स्य को बलपूर्वक पकड़कर खा डाला था, इसीलिए महर्षि सौभरि ने गरुड़ को शाप दिया था कि यदि गरुड़ फिर कभी इस कुण्ड में घुसकर मछलियों को खायेंगे तो उसी क्षण प्राणों से हाथ धो बैठेंगे। कालिया नाग यह बात जानता था । इसलिए वो महर्षि की शरण में आ गया इसलिए सौभरि जी शरणागत वत्सल भी कहे जाते हैं । सौभरि जी ने कालिया नाग के अलावा अन्य जीवों को भी गरुड़ से सुरक्षित इसी स्थान पर रखा ।
एक बार मांधाता के राज्य में सूखा पड़ गयी थी तो सौभरि जी के द्वारा यहाँ पर यज्ञ का आयोजन किया गया था ।तब देवताओं के राजा इंद्र जी ने वर्षा कराई थी ।
महर्षि सौभरि जी ने मांधाता की पचास पुत्रियों के साथ इसी स्थान पर अपना दाम्पत्य जीवन व्यतीत किया था । विश्कर्मा द्वारा सभी रानियों के लिये अलग-अलग सुंदर महल निर्मित करवाये थे । उनके पचास पत्नियों से 5 हजार पुत्र हुये अंत में फिर से वैराग्य धारण कर ब्रह्मलोक में रानियों सहित विलीन हो गए ।
भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं व सौभरि जी की तपस्थली से जुड़े होने के कारण यह संस्था कुंड का जीर्णोद्धार करा रही है। साथ ही पुराणों के अनुसार यहाँ पर स्थित रामताल कुंड का क्षेत्रफल लगभग 63 एकड़ है जिसके लिए संस्था द ब्रज फाउंडेशन को कुछ एकड़ की ही खोदाई करने की अनुमति दी गई। बाकी पर अवैध कब्जे कर लिए गए हैं या पट्टे काट दिए गए।
संस्था के पदाधिकारियों ने एसएसआई को यहां उत्खनन में पुरातात्विक वस्तुएं मिलने की सूचना दी थी।उन्होंने बताया कि ये भग्नावेष 1700 वर्ष पूर्व के कुषाणकालीन हैं। रामताल कुंड को नालंदा एवं हड़प्पा तरह एक प्रागेतिहासिक धरोहर के रुप में संवारा जाए। जिससे इतिहास, पुरातत्व एवं इंजीनियरिंग के छात्र भी भविष्य में इसका अध्ययन करने आ सकें।
सौभरेय जनों को कम से कम प्रत्येक वर्ष ना सही लेकिन अपने जीवनकाल में एक बार जरूर सुनरख आना चाहिए ।
इस स्थान पर उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा पवित्र तीर्थस्थल सुनरख, वृन्दावन में 460 एकड़ भू-भाग में सिटी फॉरेस्ट के रूप में एक पार्क का विकास किया जाएगा।
460 एकड़ में प्रस्तावित एशिया के सबसे बड़े "सौभरि वन" (सुनरख वन) में चार योग केंद्र स्थापित होंगे। इसके साथ ही पर्यटकों के लिए अन्य कई सुविधाएं भी होंगी। इस पूरे प्रोजेक्ट की अनुमानित लोग 325 करोड़ रुपये होगी।
इस वन में सरोवर, पौधरोपण, फव्वारे, आॅर्गेनिक खेती और साइिकल ट्रैक आदि को अलग अलग लोकेशन पर रखा जाएगा। इसमें पेट्रोल डीजल से चलने वाले वाहनों के बजाय बैटरी चालित वाहनों का संचालन आवागमन के लिए किया जाएगा।
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भगवान श्री कृष्ण की लीलास्थली व ब्रजनगरी गोवर्धन में स्वसमाज की सबसे बड़ी धर्मशाला “श्री राधाबल्लभ कुन्ज” श्रीगिर्राज परिक्रमा मार्ग में स्थित है । यह कुन्ज, धर्मशाला व मंदिर दोनों रूपों को समेटे हुए है । इस कुन्ज के ठीक पीछे “मानसी गंगा” सरोवर स्थित है । यह सरोवर भगवान श्रीकृष्ण के मानस-संकल्प से प्रकट हुआ था, इसलिये इसका नाम ‘मानसी गंगा’ पडा। इसी नगर में स्थित श्री गिरिराज पर्वत को भगवान श्री कृष्ण ने द्वापर युग में ब्रजवासियों को इन्द्र के प्रकोप से बचाने के लिये अपनी कनिष्ठ अंगुली पर उठाया था। कई शताब्दियों से यहाँ दूर-दूर से भक्तजन गिरिराज जी की 7 कोस की परिक्रमा (21km) लगाने आते रहते हैं ।
“सौभरेय ब्राह्मण समाज” की गोवर्धन स्थित “श्री राधाबल्लभ कुन्ज” दो भागों में बटी हुई है, कुन्ज का आगे वाला हिस्सा पुराना बना हुआ है जिस जगह धर्मशाला व मन्दिर बने हुए हैं और दूसरा हिस्सा पीछे की तरफ “मानसीगंगा” से लगा है । पीछे वाला हिस्सा जोकि अभी खाली पड़ा है, इस जगह पर मुकदमा चला था, बाहरी लोगों ने इस जगह को हड़पने के लिए खूब प्रयास किये थे लेकिन सारे प्रयास व्यर्थ गए अंततः स्वसमाज की जीत हुई । मुख्य द्वार से आप अंदर आओगे तो इसके दांई दिशा में आराम भवन है, इसके थोड़ा आगे चलकर पुराना हवेलीनुमा भवन है जोकि बहुमंजिला है इसी के साथ ही यह धर्मशाला एकदम चौक-चौबंद है । ठीक सामने श्री राधाबल्लभ जी की मूर्ति व ब्रह्मर्षि सौभरि जी बिराजमान हैं।
बताते हैं यह स्थान भरतपुर नरेश ने “सौभरि ब्राह्मण समाज” को उपहार स्वरूप भेंट किया था । गोवर्धन में लगने वाले वार्षिक ‘मुड़िया पून्यों’ (गुरू पूर्णिमा) मेले पर लगभग परिक्रमा के माध्यम स्वसमाज के सभी क्षेत्रों के स्वजनों को आप यहाँ बड़ी आसानी से देख सकते हैं ।
बताते हैं यह स्थान भरतपुर नरेश ने “सौभरि ब्राह्मण समाज” को उपहार स्वरूप भेंट किया था । गोवर्धन में लगने वाले वार्षिक ‘मुड़िया पून्यों’ (गुरू पूर्णिमा) मेले पर लगभग परिक्रमा के माध्यम स्वसमाज के सभी क्षेत्रों के स्वजनों को आप यहाँ बड़ी आसानी से देख सकते हैं ।
इस कुन्ज की सबसे बड़ी बात यह है कि स्वसमाज के गाँवों से पैसा एकत्रित करके इसका रख-रखाव किया जाता है साथ ही अगर कोई स्वजन अपने आसपास के 52 गाँवों (28 गाँव राजस्थान के,12 यमुनाआर और 12 गाँव यमुनापार) को अपने रिसेप्शन, मृतभोज व भंडारा इत्यादि में एक साथ भोज के लिए आमंत्रित करता है तो उन्हें 21000 रुपये की राशि इस कुन्ज के लिए दानस्वरूप देनी होती है । यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है । पुराने समय में यह ‘दान की राशि’ कम थी लेकिन समय के हिसाब से इसमें परिवर्तन होता रहता है ।
“सौभरि ब्राह्मण समाज” की राजधानी भले ही श्री बलदाऊ की नगरी बल्देव (दाउजी) हो लेकिन स्वसमाज का केंद्रबिंदु व “संसद” कहलाने की हकदार यही कुन्ज है क्योंकि जब भी कोई बड़ी से बड़ी स्वसमाज की पंचायत किसी विषय को लेकर ‘स्वसमाज के हित’ में होती है तो इसका आयोजन इसी जगह पर ही होता है ।
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वृन्दावन कुन्ज- बांके बिहारी जी मंदिर के समीप वृंदावन स्थित स्वसमाज की धर्मशाला 'वृंदावन कुन्ज' 'वृन्दावन शोध संस्थान' के बाद दूसरा बड़ा स्थान है यह अपने आप में बहुत ही आस्था का भाव समेटे हुए है । दशकों वर्ष पुरानी यह कुन्ज स्वसमाज के लोगों के लिये यह धार्मिक आयोजनों, सामाजिक और शैक्षणिक गतिविधियों का गवाह भी रही है । यह केवल कुन्ज ही नहीं है ,अपितु वृंदावन में एकमात्र स्वसमाज का सार्वजनिक केन्द्र भी है । आज इस कुन्ज की स्थिति अत्यंत ही जीर्ण अवस्था में है । इसलिए हमें अपनी विरासतों को सहेजने के लिए भरसक प्रयास करना चाहिए ।
इसके अलावा वैसे वृंदावन में डोरीबाबा आश्रम, रामगिलोला आश्रम व स्वसमाज का पैतृक गांव सुनरख भी सामाजिक स्थल हैं ।
इसके अलावा वैसे वृंदावन में डोरीबाबा आश्रम, रामगिलोला आश्रम व स्वसमाज का पैतृक गांव सुनरख भी सामाजिक स्थल हैं ।
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वृन्दावन शोध संस्थान(दाऊजी की बगीची)-
यह संस्थान विशेषतः बृज की संस्कृति के संरक्षण के लिए निर्मित किया गया एक शोध संस्थान जिसकग प्रबंधन ‘वृन्दावन शोध समिति’ करती है।
शासीपरिषद् में केन्द्र व उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति सचिव, राष्ट्रीय संग्रहालय व राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली के महानिदेशक, मथुरा के जिलाधिकारी एवं मथुरा राजकीय संग्रहालय के निदेशक पदेन-सदस्य होते हैं। यहाँ पर हिन्दी, संस्कृत तथा अन्य भाषाओं की ब्रज क्षेत्र की कला, संस्कृति, साहित्य एवं इतिहास से संबंधित पाण्डुलिपियों का संग्रहण, संरक्षण एवं अध्ययन किया जाता है ।
इसके अलावा ब्रजभाषा-अंग्रेज़ी शब्दकोश के प्रकाशन का प्रस्ताव व सांस्कृतिक जन चेतना जागृत करने के उद्देश्य से इन्टर्नशिप कार्यक्रम के कार्यक्रमों का आयोजन भी होता है। वृन्दावन शोध संस्थान की स्थापना हाथरस (उत्तर प्रदेश) में जन्मे स्कूल ऑफ इण्डियन एण्ड अफ्रीकन स्टडीज, लंदन विश्वविद्यालय के प्रवक्ता डॉ॰ रामदास गुप्त ने महत्वपूर्ण पाण्डुलिपियाँ एवं कलानिधियों के संग्रह, संरक्षण, शोध व प्रकाशन के उद्देश्य से 24 नवम्बर सन् 1968 में बिहार-पंचमी के पुण्य-पर्व पर की थी। संस्थान का उद्घाटन तत्कालीन प्रखयात विद्वान एवं तत्कालीन केन्द्रीय मन्त्री डॉ॰ कर्ण सिंह ने किया था। कालान्तर में इसे भारत सरकार व उत्तर प्रदेश सरकार संस्कृति विभागों से आवर्तक / अनावर्तक अनुदान प्राप्त होने लगा ।
शासीपरिषद् में केन्द्र व उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति सचिव, राष्ट्रीय संग्रहालय व राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली के महानिदेशक, मथुरा के जिलाधिकारी एवं मथुरा राजकीय संग्रहालय के निदेशक पदेन-सदस्य होते हैं। यहाँ पर हिन्दी, संस्कृत तथा अन्य भाषाओं की ब्रज क्षेत्र की कला, संस्कृति, साहित्य एवं इतिहास से संबंधित पाण्डुलिपियों का संग्रहण, संरक्षण एवं अध्ययन किया जाता है ।
इसके अलावा ब्रजभाषा-अंग्रेज़ी शब्दकोश के प्रकाशन का प्रस्ताव व सांस्कृतिक जन चेतना जागृत करने के उद्देश्य से इन्टर्नशिप कार्यक्रम के कार्यक्रमों का आयोजन भी होता है। वृन्दावन शोध संस्थान की स्थापना हाथरस (उत्तर प्रदेश) में जन्मे स्कूल ऑफ इण्डियन एण्ड अफ्रीकन स्टडीज, लंदन विश्वविद्यालय के प्रवक्ता डॉ॰ रामदास गुप्त ने महत्वपूर्ण पाण्डुलिपियाँ एवं कलानिधियों के संग्रह, संरक्षण, शोध व प्रकाशन के उद्देश्य से 24 नवम्बर सन् 1968 में बिहार-पंचमी के पुण्य-पर्व पर की थी। संस्थान का उद्घाटन तत्कालीन प्रखयात विद्वान एवं तत्कालीन केन्द्रीय मन्त्री डॉ॰ कर्ण सिंह ने किया था। कालान्तर में इसे भारत सरकार व उत्तर प्रदेश सरकार संस्कृति विभागों से आवर्तक / अनावर्तक अनुदान प्राप्त होने लगा ।
सरकार द्वारा प्राप्त आर्थिक सहायता से वृन्दावन शोध संस्थान सन् 1985 में वृन्दावन के रमणरेती क्षेत्र स्थित 💐दाऊजी की बगीची 💐स्थित नवनिर्मित भवन में स्थानान्तरित हो गया। शोधसंस्थान के संग्रह में अब तक 30,000 से अधिक संस्कृत, हिन्दी, बांग्ला, उड़िया, गुजराती, उर्दू व पंजाबी भाषाओं की पाण्डुलिपियाँ एकत्रित की गई हैं तथा इस संग्रह में निरंतर वृद्धि हो रही है। इसके अतिरिक्त यहाँ लगभग 200 लघु चित्र, नागरी एवं फ़ारसी लिपि में 200 ऐतिहासिक अभिलेख, बड़ी संखया में पुराने डाक टिकट, पोस्टकार्ड, लिफाफे, सिक्के व प्रतिमाएँ मौजूद हैं।
बलदेव नगरी में विराजमान ब्रजराज व श्रीकृष्ण के बड़े भाई श्री बलदाऊ के मंदिर की विरासत “दाऊजी की बगीची” के नाम से मशहूर वृंदावन स्थित लगभग 4 एकड़ जमीन ‘वृंदावन शोधसंस्थान को कुछ वर्षों के लिये लीज पर दी हुई है । यह जगह श्री दाऊजी मंदिर समिति की देखरेख में है ।
यह सौभरि ब्राह्मण समाज की विरासतों में से एक है ।
बलदेव नगरी में विराजमान ब्रजराज व श्रीकृष्ण के बड़े भाई श्री बलदाऊ के मंदिर की विरासत “दाऊजी की बगीची” के नाम से मशहूर वृंदावन स्थित लगभग 4 एकड़ जमीन ‘वृंदावन शोधसंस्थान को कुछ वर्षों के लिये लीज पर दी हुई है । यह जगह श्री दाऊजी मंदिर समिति की देखरेख में है ।
यह सौभरि ब्राह्मण समाज की विरासतों में से एक है ।
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कण्वऋषि आश्रम-
कण्वऋषि आश्रम-
प्रभुदत्त ब्रह्माचारी आश्रम झूसी, प्रयागराज-
झूसी प्रयागराज जिले में एक कस्बा और नगर पंचायत हैं।प्रभुदत्त ब्रह्मचारी आश्रम झूसी प्रयागराज रेलवे स्टेशन से 12 km दूरी पर स्थित है । यह आश्रम गंगा नदी के किनारे पर है । यह आश्रम ब्रह्चारी जी की तपस्थली रहा है । उनका संकीर्तन में अटूट लगाव था। वृन्दावन में यमुना के तट पर वंशीवट के निकट संकीर्तन भवन की स्थापना की तो प्रयाग राज प्रतिष्ठानपुर झूसीमें अनेकानेक प्रकल्पों के साथ संकीर्तन भवन प्रतिष्ठित किया।
आज की राष्ट्रीय राजनैतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी की नींव भी प्रयागराज में संकीर्तन भवन आश्रम में पड़ी, महाराज जी श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी के निवेदन पर ही गुरु जी ने एक राजनैतिक विकल्प के तौर पर जनसंघ की स्थापना पर विचार किया।कालांतर में यही जनसंघ आज की भाजपा के रूप में परिवर्तित हुई।
आज की राष्ट्रीय राजनैतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी की नींव भी प्रयागराज में संकीर्तन भवन आश्रम में पड़ी, महाराज जी श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी के निवेदन पर ही गुरु जी ने एक राजनैतिक विकल्प के तौर पर जनसंघ की स्थापना पर विचार किया।कालांतर में यही जनसंघ आज की भाजपा के रूप में परिवर्तित हुई।
पंडित श्री दीनदयाल उपाध्याय जी जनसंघ की स्थापना के समय पूज्य महाराज श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी को ही प्रथम सभापति बनाना चाहते थे परंतु महाराज जी ने आरम्भ से ही पांच प्रतिज्ञाएँ कर रखी थी उनमें से एक यह भी थी कि “कभी किसी भी संस्था का न तो सदस्य बनूंगा और ना ही कोइ स्थायी पदाधिकारी”इस बजाय से जब पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने उनसे सभापति बनने के लिए आग्रह किया तो उन्होंने विनयपूर्वक इंकार करते हुए अवागढ़ के राव साहब कृष्णपाल सिंह जी का नाम सुझाया तभी सर्वप्रथम उत्तर प्रदेशीय जनसंघ की स्थापना हुई रावसाहब उसके सभापति हुए।इसके अनन्तर भारतीय जनसंघ बना जिसके सभापति पंडित श्यामाप्रसाद मुखर्जी हुए |
उस समय RSS व जनसंघ के सभी कार्यकर्ता पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी, श्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी, नानाजी देशमुख, रज्जु भैया रावसाहब कृष्णपाल सिंह, श्री अटलविहारी वाजपेयी वसंतराव जी, भाऊराव देवरस आदि सभी पूज्य महाराज जी का सानिध्य और मार्गदर्शन प्राप्त करते रहे।
१. भगवती कथा (११८ खण्डों में) ३०/- प्रति खण्ड
२. भगवत चरित सप्ताह(मूल) १५१/-
३. भागवत चरित सटीक (दो भागो में) २०१/- प्रति खण्ड
४. बद्रीनाथ दर्शन २५/-
५. महात्मा कर्ण ७५/-
६. मतवाली मीरा २५/-
७. नाम संकीर्तन महिमा ७/-
८. भागवती कथा की बानगी ७/-
९. भारतीय संस्कृति और शुद्वि५/-
१०. प्रयाग महात्म्य १२/-
११. व्रन्दावन महात्म्य २/-
१२. प्रभुपूजा पद्धति ५/-
१३. गुरू भक्ति और एकलव्य ५/-
१४. गोविन्द दामोदर शरणागत स्तोत्र १०/-
१५. गोपालन शिक्षा १५/-
१६. मुक्तिनाथदर्शन ४०/-
१७. आलवन्दार स्तोत्रमूल तथा छप्पय छन्दों में ५/-
१८. श्री प्रभुपदावली ७/-
१९. परम साहसी बालक ध्रुव ७/-
२०. सार्थ छप्पय गीता २५/-
२१. हनुमत शतक ३/-
२२. महावीर हनुमान ३५/-
२३. भक्तचरितावली-२ (१) ६०/-
२४. भक्तचरितावली -२(२) ४०/-
२५. श्री सत्यनारायण व्रत कथा (महात्म्य) ५/-
२६. सूक्त -त्रय १२/-
२७. शुभ विवाह मंगलमय हो १०/-
२८. श्रीकृष्ण लीला दर्शन(तीन भागो में) २१/- प्रति खण्ड
२९. विल्व फल अमृत फल १२/-
३०. नर्मदादर्शन २०/-
३१. भागवत महिमा नाटक ५/-
३२. श्री छप्पय दुर्गासप्तसती २५/-
३३. हर्र! हरीतकी रसायन १०/-
३४. सतीधर्महिन्दू धर्म की रीढ़ है ७/-
३५. भगवती कथा में क्या-क्या है २५/-
३६. काया-कल्प तथा कल्प चिकत्सा ४०/-
३७. चैतन्य चरितावली (५ खण्डों में) ८०/- प्रति खण्ड
३८. अपनी निजी चर्चा २००/-
३९. हमारे श्री गोलवलकर जी २५/-
४०. भागवत चरित संगीत सुधा ५/-
४१. पंचकोशी परिक्रमा और प्रयाग महात्म्य २०/-
२. भगवत चरित सप्ताह(मूल) १५१/-
३. भागवत चरित सटीक (दो भागो में) २०१/- प्रति खण्ड
४. बद्रीनाथ दर्शन २५/-
५. महात्मा कर्ण ७५/-
६. मतवाली मीरा २५/-
७. नाम संकीर्तन महिमा ७/-
८. भागवती कथा की बानगी ७/-
९. भारतीय संस्कृति और शुद्वि५/-
१०. प्रयाग महात्म्य १२/-
११. व्रन्दावन महात्म्य २/-
१२. प्रभुपूजा पद्धति ५/-
१३. गुरू भक्ति और एकलव्य ५/-
१४. गोविन्द दामोदर शरणागत स्तोत्र १०/-
१५. गोपालन शिक्षा १५/-
१६. मुक्तिनाथदर्शन ४०/-
१७. आलवन्दार स्तोत्रमूल तथा छप्पय छन्दों में ५/-
१८. श्री प्रभुपदावली ७/-
१९. परम साहसी बालक ध्रुव ७/-
२०. सार्थ छप्पय गीता २५/-
२१. हनुमत शतक ३/-
२२. महावीर हनुमान ३५/-
२३. भक्तचरितावली-२ (१) ६०/-
२४. भक्तचरितावली -२(२) ४०/-
२५. श्री सत्यनारायण व्रत कथा (महात्म्य) ५/-
२६. सूक्त -त्रय १२/-
२७. शुभ विवाह मंगलमय हो १०/-
२८. श्रीकृष्ण लीला दर्शन(तीन भागो में) २१/- प्रति खण्ड
२९. विल्व फल अमृत फल १२/-
३०. नर्मदादर्शन २०/-
३१. भागवत महिमा नाटक ५/-
३२. श्री छप्पय दुर्गासप्तसती २५/-
३३. हर्र! हरीतकी रसायन १०/-
३४. सतीधर्महिन्दू धर्म की रीढ़ है ७/-
३५. भगवती कथा में क्या-क्या है २५/-
३६. काया-कल्प तथा कल्प चिकत्सा ४०/-
३७. चैतन्य चरितावली (५ खण्डों में) ८०/- प्रति खण्ड
३८. अपनी निजी चर्चा २००/-
३९. हमारे श्री गोलवलकर जी २५/-
४०. भागवत चरित संगीत सुधा ५/-
४१. पंचकोशी परिक्रमा और प्रयाग महात्म्य २०/-
साहित्य मंगाने व साहित्य के सम्बंध में अधिक जानकारी के लिए मोबाइल नम्बर – 09415317338 व 09425741069 या लेंडलाइन न. 05322569208 पर सम्पर्क करे |
भरनाखुर्द गांव आगरा नहर की तलहटी में बसा हुआ है । गांव में ब्रजक्षेत्र का सबसे बड़ा कुंड ‘सूरजकुण्ड’ इसी गांव में स्थित है । आधे से ज्यादा गांव टीले पर बसा हुआ है । गांव में 80%आबादी स्वजनों (सौभरी ब्राह्मण समाज) की है । सौभरि ब्राह्मणों में यहाँ उपगोत्र “तगारे” वाले लोगों की संख्या बहुलता में है । गांव के प्रवेश द्वार के पास बच्चों की शिक्षा के लिए महर्षि सौभरि स्कूल यहाँ शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र है । 12 गांवों में खेती के हिसाब से यह “धान का कटोरा” के नाम से प्रसिद्ध है । यहाँ चावल की खेती सबसे ज्यादा होती है ।
इस गांव का मेला धुलैंडी के बाद चैत्र कृष्ण द्वितीया को मनाया जाता है । संयोगवश दाउजी का हुरंगा भी द्वितीया को ही मनाया जाता है ।
यह भूमि गोस्वामी कल्याणदेव जी की जन्मस्थली है जिनकी तपस्या से स्वयं ‘ब्रज के राजा कृष्ण के बड़े भ्राता’श्री बलदाऊ जी’ की मूर्ति स्वप्न में दिखी थी और इसके बाद ‘श्री दाऊजी मंदिर(बलदेव)’ का निर्माण कराया । यह स्थान मथुरा से 14KM दूर मथुरा-सादाबाद रोड पर स्थित है । आज उन्ही के प्रभाव से नए गांव’ दाऊजी’ की स्थापना हुई जहाँ उनके वंशज “दाउजी के मंदिर’ के पंडे-पुजारी हैं । यहाँ पर सम्पूर्ण देश-विदेशों से यजमान व दर्शनार्थी ‘रेवती मैया व दाउ बाबा के दर्शन करने आते हैं ।
यह भूमि गोस्वामी कल्याणदेव जी की जन्मस्थली है जिनकी तपस्या से स्वयं ‘ब्रज के राजा कृष्ण के बड़े भ्राता’श्री बलदाऊ जी’ की मूर्ति स्वप्न में दिखी थी और इसके बाद ‘श्री दाऊजी मंदिर(बलदेव)’ का निर्माण कराया । यह स्थान मथुरा से 14KM दूर मथुरा-सादाबाद रोड पर स्थित है । आज उन्ही के प्रभाव से नए गांव’ दाऊजी’ की स्थापना हुई जहाँ उनके वंशज “दाउजी के मंदिर’ के पंडे-पुजारी हैं । यहाँ पर सम्पूर्ण देश-विदेशों से यजमान व दर्शनार्थी ‘रेवती मैया व दाउ बाबा के दर्शन करने आते हैं ।
सूरज कुंड व श्री सूर्यनारायण मन्दिर- ब्रज के इस सबसे बड़े सूरज कुंड का जीर्णोद्धार ब्रज की एक संस्था द्वारा किया जा रहा है । सूरजकुण्ड के किनारे पर भगवान श्री सूर्यनारायण जी का मंदिर स्थित है । यह मंदिर बहुत ही भव्य बना हुआ है । मंदिर के अन्दर श्री सूर्यनारायण जी की मूर्ति जिनकी ठोड़ी पर हीरा जड़ा हुआ है,बिराजमान है । सूरजकुण्ड होने की वजह से भरनाखुर्द गांव के निवासी सूर्य की तरह तेज व गर्मजोशी वाले हैं ।
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खदिरवन खायरा- खायरा गाँव-(सौभरेय ब्राह्मण समाज का सबसे बृहदगाँव)-
गांव खायरा छाता-बरसाना मार्ग पर स्थित है । यह स्वजाति सौभरि ब्राह्मण समाज व अपने इस क्षेत्र का सब से बड़ा तख्त गॉंव है । इस गांव ने “12 गांवों की राजधानी” के नाम से प्रसिद्धी पायी हुई है । लगभग 12000 की जनसंख्या वाले इस गांव में होली के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला मेला ब्रज की अंतिम होली के दिन चैत्र कृष्ण पंचमी को मनाया जाता है जिसे रंगपंचमी के नाम से भी जाना जाता है । यहां पर होली के मेले का आयोजन मुख्य रूप से ‘पड़ाव’ जगह पर होता है । इस दिन क्षेत्र के विधायक व प्रशासन अधिकारी मौजूद रहते हैं । इस दिन 12 गांवों के अलावा आसपास के गांवों से भी लोगों का तांता लगा रहता है । अच्छे से अच्छी मनोहर झांकियां निकाली जाती हैं साथ में पुरूस्कृत भी किया जाता है । रात्रि को स्वांग, रसियादंगल, डांस कॉम्पिटिशन इत्यादि तरह के मनोहारी खेल होते हैं ।
यह ब्रज के १२ वनों में से एक है। यहाँ श्री कृष्ण-बलराम सखाओं के साथ तर-तरह की लीलाएं करते थे। यहाँ पर खजूर के बहुत वृक्ष थे। यहाँ पर श्री कृष्ण गोचारण के समय सभी सखाओं के साथ पके हुए खजूर खाते थे।यहाँ खदीर के पेड़ होने के कारण भी इस गाँव का नाम ‘खदीरवन’ पड़ा है। खदीर (कत्था) पान का एक प्रकार का मसाला है। कृष्ण ने बकासुर को मारने के लिए खदेड़ा था। खदेड़ने के कारण भी इस गाँव का नाम ‘खदेड़वन’ या ‘खदीरवन’ है।
गांव का नाम भगवान कृष्ण के गौरवशाली इतिहास से भी जुड़ा हुआ है । यहाँ पर ब्रज के प्रसिद्ध वनों में एक खदिरवन भी यहीं स्थित है । इसी वन में कंस द्वारा भगवान कृष्ण को मारने के लिए भेजे गये बकासुर राक्षस का वध स्वयं बाल कृष्ण ठाकुर जी ने किया था । बकासुर एक बगुले का रूप धारण करके श्रीकृष्ण को मारने के लिए इसी वन में पहुंचा था जहाँ कान्हा और सभी ग्वालबाल खेल रहे थे। तब बकासुर ने बगुले का रूप धारण कर कृष्ण को निगल लिया और कुछ ही देर बाद कान्हा ने उस बगुले की चौंच को चीरकर उसका वध कर दिया।
एक वृतांत के अनुसार उस समय बकासुर की भयंकर आकृति को देखकर समस्त सखा लोग डरकर बड़े ज़ोर से चिल्लाये ‘खायो रे ! खायो रे ! किन्तु कृष्ण ने निर्भीकता से अपने एक पैर से उसकी निचली चोंच को और एक हाथ से ऊपरी चोंच को पकड़कर उसको घास फूस की भाँति चीर दिया। सखा लोग बड़े उल्लासित हुए।
‘खायो रे ! खायो रे !’ इस लीला के कारण इस गाँव का नाम ‘खायारे’ पड़ा जो कालान्तर में ‘खायरा’ हो गया।
गांव खायरा छाता-बरसाना मार्ग पर स्थित है । यह स्वजाति सौभरि ब्राह्मण समाज व अपने इस क्षेत्र का सब से बड़ा तख्त गॉंव है । इस गांव ने “12 गांवों की राजधानी” के नाम से प्रसिद्धी पायी हुई है । लगभग 12000 की जनसंख्या वाले इस गांव में होली के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला मेला ब्रज की अंतिम होली के दिन चैत्र कृष्ण पंचमी को मनाया जाता है जिसे रंगपंचमी के नाम से भी जाना जाता है । यहां पर होली के मेले का आयोजन मुख्य रूप से ‘पड़ाव’ जगह पर होता है । इस दिन क्षेत्र के विधायक व प्रशासन अधिकारी मौजूद रहते हैं । इस दिन 12 गांवों के अलावा आसपास के गांवों से भी लोगों का तांता लगा रहता है । अच्छे से अच्छी मनोहर झांकियां निकाली जाती हैं साथ में पुरूस्कृत भी किया जाता है । रात्रि को स्वांग, रसियादंगल, डांस कॉम्पिटिशन इत्यादि तरह के मनोहारी खेल होते हैं ।
यह ब्रज के १२ वनों में से एक है। यहाँ श्री कृष्ण-बलराम सखाओं के साथ तर-तरह की लीलाएं करते थे। यहाँ पर खजूर के बहुत वृक्ष थे। यहाँ पर श्री कृष्ण गोचारण के समय सभी सखाओं के साथ पके हुए खजूर खाते थे।यहाँ खदीर के पेड़ होने के कारण भी इस गाँव का नाम ‘खदीरवन’ पड़ा है। खदीर (कत्था) पान का एक प्रकार का मसाला है। कृष्ण ने बकासुर को मारने के लिए खदेड़ा था। खदेड़ने के कारण भी इस गाँव का नाम ‘खदेड़वन’ या ‘खदीरवन’ है।
गांव का नाम भगवान कृष्ण के गौरवशाली इतिहास से भी जुड़ा हुआ है । यहाँ पर ब्रज के प्रसिद्ध वनों में एक खदिरवन भी यहीं स्थित है । इसी वन में कंस द्वारा भगवान कृष्ण को मारने के लिए भेजे गये बकासुर राक्षस का वध स्वयं बाल कृष्ण ठाकुर जी ने किया था । बकासुर एक बगुले का रूप धारण करके श्रीकृष्ण को मारने के लिए इसी वन में पहुंचा था जहाँ कान्हा और सभी ग्वालबाल खेल रहे थे। तब बकासुर ने बगुले का रूप धारण कर कृष्ण को निगल लिया और कुछ ही देर बाद कान्हा ने उस बगुले की चौंच को चीरकर उसका वध कर दिया।
एक वृतांत के अनुसार उस समय बकासुर की भयंकर आकृति को देखकर समस्त सखा लोग डरकर बड़े ज़ोर से चिल्लाये ‘खायो रे ! खायो रे ! किन्तु कृष्ण ने निर्भीकता से अपने एक पैर से उसकी निचली चोंच को और एक हाथ से ऊपरी चोंच को पकड़कर उसको घास फूस की भाँति चीर दिया। सखा लोग बड़े उल्लासित हुए।
‘खायो रे ! खायो रे !’ इस लीला के कारण इस गाँव का नाम ‘खायारे’ पड़ा जो कालान्तर में ‘खायरा’ हो गया।
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सती हरदेवी मंदिर पलसों- मां सती हरदेवी की पुण्यस्थली पलसों गाँव -
पलसों गाँव सती स्वरूपा ‘श्री हरदेवी जी’ की कर्मस्थली व पुण्यस्थली है । यह गोवर्धन-बरसाना रोड़ पर स्थित गांव पलसों ‘परशुराम खेड़ा’ के नाम से भी जाना जाता है । शुरुआत से इस पावन गांव से बड़े-बड़े पहलवान होते रहे हैं । वर्तमान में तहसील गोवर्धन व छाता में पड़ने वाले सौभरि ब्राह्मण समाज के गांवों में जनसंख्या व क्षेत्रफल के हिसाब से दूसरे स्थान पर है ।
आसपास के गाँव जैसे, मडोरा, महरौली, भगोसा, डिरावली, छोटे नगले पलसों गांव की सीमा से लगे हुए हैं । गांव में उपगोत्रों के हिसाब से ‘परसईयाँ’ गोत्र बहुलता में पाया जाता है ।
गांव के समीप ही गोवर्धन- बरसाना सड़कमार्ग पर ‘श्री हरदेवी जी ‘ का मन्दिर बना हुआ है । पलसों एक बर्ष अंदर दो मेलों का आयोजन कराने वाला इकलौता स्वजातीय गांव है । होली के मेले का आयोजन चैत्र कृष्ण तृतीया को तथा ‘श्री सती हरदेवी जी’ का मेला श्रावण मास की शुक्ल अष्टमी को होता है ।
गांव के प्रवेशद्वार स्थित श्री शंकर इंटर कॉलेज आज भी शिक्षा के मामले में आकर्षण का केंद्र बना हुआ है ।
गांव के पास ही पेट्रोल पंप व बैंक भी है जो लोगों जनसुविधा के हिसाब से आदर्श गांव की ओर इंगित करता है । गांव के बाहर चारागाहों की तरह पशुओं के बैठने का भी पूरा इंतज़ाम है जिसे ‘राहमीन’ कहते हैं ।
एक वृतांत के अनुसार परसों अथवा पलसों नामक गाँव गोवर्धन-बरसाना के रास्ते में स्थित है। ब्रजमण्डल स्थित भगवान श्रीकृष्ण से जुड़े स्थलों में से यह एक है। जब अक्रूर जी, बलराम और कृष्ण दोनों भाईयों को मथुरा ले जा रहे थे, तब रथ पर बैठे हुए श्रीकृष्ण ने गोपियों की विरह दशा से व्याकुल होकर उनको यह संदेश भेजा कि मैं शपथ खाकर कहता हूँ कि परसों यहाँ अवश्य ही लौट आऊँगा तब से इस गाँव का नाम परसों हो गया।
सती अनुसूइया और माता सीता जैसा पतिव्रतधर्मी होना कलयुग में अत्यंत दुर्लभ है, यदि कोई है भी तो इनकी शक्ति उन्हीं के समतुल्य है । हमारे देश में सतीत्व को आदिकाल से ही स्त्री का आभूषण माना जाता रहा है ।
भारत भूमि पर चमत्कार पर चमत्कार अनादि कल से ही होते आये हैं,जिसमें ब्रजभूमि का स्थान अग्रिम रहा है |
बात सन 1980 की हैं जब एक हूबहू चमत्कार हुआ था | इतना बड़ा आँखों देखा चमत्कार, शायद देश की आजादी बाद हुआ हो | ब्रज मंडल के जिला- मथुरा,तहसील -गोवर्धन थाना -बरसाना गांव-पलसों (परशुराम खेड़ा ) में एक दिव्यांगना, ‘जिनका नाम शिव शक्ति हरदेवी जी’ ने स्वयं माँ पार्वती के रूप की झलक, साधारण नर- नारियों के बीच दिखाई | वाक़या कुछ इस तरीके से है –
गांव खायरा (बरसाना के पास ) में एक ‘सौभरि ब्राह्मण’ परिवार में जन्म लिया | बचपन से ही पूजा भावना में बड़ी लग्न थी |एक साधारण परिवार में जन्म लेते हुए और अपनी साधारण छबि को दर्शाते हुए, अपने मायके में ये खबर न होने दी की कोई दिव्यशक्ति का आगमन हुआ है |धीरे धीरे समय बीतता गया और शादी लायक हुई तो घर वालो ने वर ढूढ़ना प्रारम्भ किया और इस तरीके से ग्राम पलसों में से वर का चयन कर दिया गया |शादी होने के बाद दो बच्चे और २ बच्चियां हुई और जिंदगी सब ठीक ठाक चल रही थी| समय बीतते -बीतते उनके पति जी के महामारी हो गयी अचानक उनके जीवन ने अंगड़ाई लेना शुरू कर दिया, मानो मुसीबतो का पहाड़ टूट पड़ा हो |उपचार कराने बाद भी वे शौहर को ना बचा सकीं |जब की अंतिम संस्कार बारी आयी तो माँ हरदेवी जी मृत शरीर को अपने गोदी में रख कर अंतिम संस्कार के लिए जाने पर अपने सती होने का मनोभाव जताने लगीं |लेकिन ये बात किसी ने स्वीकार नही की क्योंकि ‘अभी बच्चे भी छोटे छोटे हैं’ इनकी तरफ भी तो देख लो, इस तरह आसपास के लोगो ने समझाया |लेकिन वो मानने को तैयार नही हुई और अपनी अंतिम यात्रा का भूत, सभी के सामने पेश कर दिया की मैं अपने पति संग सती होउंगी |ये सुनकर सब सन्न रह गए और कोहराम बढ़ गया |लेकिन जैसे-तैसे मृत शरीर को श्मशान तक ले गए और दाह संस्कार किया |लेकिन ऊपर धड़ वाला हिस्सा जला ही नही क्योंकि जिस जगह शिवशक्ति हरदेवी जी के हाथों का स्पर्श हुआ वहाँ से वो भाग बिना जले रह गया |लोगो ने खूब जलाने की कोशिश की पर सब नाकामयाब |आखिर उस हिस्से को गंगा में विसर्जन करने के लिए लोगो ने सुझाया |उधर हरदेवी जी का मन पूरी तरह से विरक्त हो चूका था और माने नही मान रही थी |उनके इस अवस्था को देखकर जिला चिकित्सालय को ले गए |वहाँ भी वही खुमार, न कोई दवा काम करे और न ही कोई सुझाव |घटना धीरे-धीरे विकराल रूप लेता जा रही थी |जिले के बड़े-बड़े अधिकारी आ चुके थे उनके कुछ समझ नही आ रहा था | उधर गंगा गए लोगों की तरफ से सूचनाएं आती हैं कि वो “ना जला हुआ हिस्सा” बार बार गंगा के तट कि ओर आ जाता है और पानी के साथ नही बह रहा है | तो लोगों को और प्रशाशन को विश्वास हो गया कि कोई ना कोई चमत्कार तो है और उस हिस्से को बापस लाने को बोल दिया गया | | लेकिन ये भी था कि भारत में सती प्रथा का चलन बंद और गैरकानूनी हो गया था तब उस समय इस घटना के विरुद्ध प्रशाशन भी आने लगा | अंत प्रशाशन को झुकना पड़ा और हरदेवी जी को बापस पलसों गांव लेकर आगये |
गांव के निकट एक मंदिर था उसमें उन्होंने अपना ध्यान लगाया,उसी समय वही पर एक बाबा आये जो बिलकुल अजनबी थे उन्होंने हरदेवी जी को सती होने की रीति रिवाज से वाकिफ कराया | और थोड़े समय बाद ही वहाँ से अंतरध्यान हो गए |उनको साक्षात् शिव का रूप बताते हैं | फिर तो उसके बाद हरदेवी जी ने पूरी तरह श्रृंगारयुक्त होकर अपने पति के उस भाग को लेकर उसी जगह जहाँ उनके शौहर कि चिता थी वही समाधि लगाकर बैठ गयी | ये सारा कोतुहल, वहाँ के और दूर -दूर से आये हुए लोग और साथ में पुलिस प्रशाशन भी, देख रहे थेे और इस घटना के गवाह बन रहे थे | वहाँ खड़ी भीड़ से वो कुछ कहना चाह रही थी लेकिन लोग सब जय जयकार के नारे लगाने कि वजह से सुन नही पाए | देखते ही देखते अपने दोनों हाथों को रगड़ते हुए अग्नि उत्पन्न की और अग्नि धीरे -धीरे नीचे से पूरे हिस्से में पहुँचने लगी |पल भर बाद उनके बैठने की स्थिति बिचलित हुई लोगों ने बांस के सहारे उसी स्थिति में लाने की सोचते, ‘कहीं उस से पहले ही’ वह यथावत हो गयीं | फिर इसके बाद लोगों ने घी डालना शुरू कर दिया, जयकारों से सारा क्षेत्र गूंजने लगा |जिसने भी सुना वह उसी स्थिति में भाग भाग के वहाँ पहुँचने लगे | और जिस समय ये घटना हो रही थी उसी समय वहाँ जगह-जगह ” केसर” की वर्षा हुई | साक्षी बताते हैं की उस समाधि वाली जगह पर कई महीनों तक अग्नि की लौह जलती रही | आज वहीँ पर उनकी समाधि बनी हुई है और मंदिर भी | वो जगह पूजनीय हो गई वहाँ बाहर से बड़ी दूर -दूर लोग आज भी मथ्था टेकने आते हैं सन २०१२ से श्रावण मास की अष्टमी को एक मेले का आयोजन होता है | उसका जिम्मा पूरे ग्रामवासी उठाते हैं |कलियुग में चमत्कार करने वाली ऐसी मातृशक्ति, शिवशक्ति को कोटि कोटि नमन करता हूं |
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श्री दाऊजी मंदिर, नगर (राजस्थान):-
‘राजस्थान के स्वसमाज के गाँवों में रहे लोगों’ द्वारा भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया है। यह बहुत ही सराहनीय कृत्य है । इस पवित्र स्थान को राजस्थान बैल्ट में स्वसमाज के सबसे बड़े सार्वजनिक स्थान के तौर पर देखा जा रहा है ।
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सौभरि उद्यान प्रतापविहार, ग़ाज़ियाबाद-
समस्त स्वजातीय बंधुवर, आप सभी को जानकर हर्ष होगा कि *श्री नागेश शर्मा जी पुत्र श्री हरिओम शर्मा जी वर्तमान निवासी प्रताप विहार, गाज़ियाबाद* वालों के अथक प्रयासों से एवं "ब्रह्मर्षि सौभरि जी" की कृपा से 'हमारी संस्कृति - हमारी पहिचान' के रूप में एक अति विशाल *महर्षि सौभरि उद्यान* गाज़ियाबाद में विकसित किया जा रहा है ।
इस वर्ष के अंतिम चरण में महर्षि सौभरि उद्यान की चारों तरफ की दीवारों का काम एवं भव्य निकास द्वार का निर्माण होना सुनिश्चित किया गया है, समाज के लिये इतना विशाल *महर्षि सौभरि उद्यान* गाज़ियाबाद में सुनिश्चित कराने के लिए हम सभी श्री नागेश शर्मा जी पुत्र श्री हरिओम शर्मा जी का बहुत बहुत आभार एवं साधुवाद व्यक्त करते हैं ।
*ब्राह्मण ओमन सौभरि भुर्रक* भरनाकलां (मथुरा)
*ब्राह्मण ओमन सौभरि भुर्रक* भरनाकलां (मथुरा)
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