Saturday, 8 February 2020

दाऊजी मंदिर व बल्देव नगरी



श्रीकृष्ण के बडे भईया व ब्रज के राजा बलदाउ जी की नगरी बल्देव मथुरा जनपद में ब्रजमंडल के पूर्वी छोर पर स्थित है। मथुरा से 21 कि०मी० दूरी पर एटा-मथुरा मार्ग के मध्य में स्थित है। गोकुल एवं महावन जो कि पुराणों में वर्णित वृहदवन के नाम से विख्यात हैं, इसी मार्ग पर पड़ते हैं। यह स्थान पुराणोक्त विद्रुमवन के नाम से निर्दिष्ट है। यहाँ पर गोस्वामी श्री कल्याण देवाचार्य जी वंशज श्री दाऊजी के सेवा करते हैं । ये सभी ब्राह्मण ब्रह्मर्षि सौभरि जी संतान हैं और अंगिरस इनका गोत्र है
इनके अपने स्वसमाज में 50 आस्पद हैं जिनमें उपगोत्र तगारे यहाँ के सेवायत हैं जिनको पंडा जी कहकर पुकारते हैं ।



दाऊजी के मंदिर में दाऊ बाबा की अत्यन्त मनोहारी विशाल प्रतिमा एवं उनकी सहधर्मिणी ज्यौंतिस्मती "रेवती जी" का विग्रह है। यह एक विशालकाय देवालय है जो कि एक दुर्ग की भाँति सुदृढ प्राचीरों से आवेष्ठित है। मन्दिर के चारों ओर सर्प की कुण्डली की भाँति परिक्रमा मार्ग में एक पूर्ण पल्लवित बाज़ार है। इस मन्दिर के चार मुख्य दरवाजे हैं, जो क्रमश: सिंहचौर, जनानी ड्योढी, गोशालाद्वार या बड़वाले दरवाज़े के नाम से जाने जातेहैं। मन्दिर के पीछे एक विशाल कुण्ड है जो कि बलभद्रकुण्ड के नाम से पुराणों में वर्णित है। इसे क्षीरसागर के नाम से  भी पुकारते हैं।



श्री हलधर दाऊजी का मूर्तिरूप- बृजराज दाउजी की मूर्ति देवालय में पूर्वाभिमुख 2 फुट ऊँचे संगमरमर के सिंहासन पर स्थापित है। पौराणिक आख्यान के अनुसार भगवान श्री कृष्ण के पौत्र श्रीवज्रनाभ ने अपने पूर्वजों की पुण्यस्मृति में तथा उनके उपासना क्रम को संस्थापित करने हेतु 4 देवविग्रह तथा 4 देवियों की मूर्तियाँ स्थापित की थीं जिन में से श्रीबलदेवजी का यही विग्रह है जो कि द्वापरयुग के बाद कालक्षेप से भूमिस्थ हो गया था। पुरातत्ववेत्ताओं का मत है यह मूर्तिपूर्व कुषाण कालीन है जिसका निर्माण काल 2 सहस्र या इससे अधिक होना चाहिये। ब्रजमण्डल के प्राचीन देवस्थानों में यदि श्रीबलदेव जी विग्रह को प्राचीनतम कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं। ब्रज के अतिरिक्त शायद ही कहीं इतना विशाल वैष्णव श्रीविग्रह दर्शन को मिलें। यह मूर्ति क़रीब 8 फुट ऊँची एवं साढे तीन फुट चौडी श्याम वर्ण की है। पीछे शेषनाग सात फनों से युक्त मुख्य मूर्ति की छाया करते हैं। मूर्ति नृत्यमुद्रा में है, दाहिना हाथ सिर से ऊपर वरद मुद्रा में है एवं बाँये हाथ में चषक है। विशाल नेत्र, भुजाएं-भुजाओं में आभूषण, कलाई में कंडूला उत्कीर्णित हैं। मुकट में बारीक नक्काशी का आभास होता है पैरों में भी आभूषण प्रतीत होते हैं तथा कटि में धोती पहने हुए हैं मूर्ति के कान में एक कुण्डल है तथा कण्ठ में वैजन्ती माला उत्कीर्णित हैं। मूर्ति के सिर के ऊपर से लेकर चरणों तक शेषनाग स्थित है। शेषनाग के तीन वलय हैं जो कि मूर्ति में स्पष्ट दिखाई देते हैं और योग शास्त्र की कुण्डलिनी शक्ति के प्रतीक रूप हैं क्योंकि पौराणिक मान्यता के अनुसार बलदेव जी शक्ति के प्रतीक योग एवं शिलाखण्ड में स्पष्ट दिखाई देती हैं जो कि सुबल, तोष एवं श्रीदामा सखाओं की हैं।


बलदेव जी के सामने दक्षिण भाग में दो फुट ऊँचे सिंहासन पर रेवती जी की मूर्ति स्थापित हैं जो कि बलदेव जी के चरणोन्मुख है और रेवती जी के पूर्ण सेवा-भाव की प्रतीक है। यह मूर्ति क़रीब पाँच फुट ऊँची है। दाहिना हाथ वरदमुद्रा में तथा वाम हस्त क़मर के पास स्थित है। इस मूर्ति में भी सर्पवलय का अंकन स्पष्ट है। दोनों भुजाओं में, कण्ठ में, चरणों में आभूषणों का उत्कीर्णन है। उन्मीलित नेत्रों एवं उन्नत उरोजों से युक्त विग्रह अत्यन्त शोभायमान लगता हैं। सम्भवत: ब्रजमण्डल में बलदेव जी से प्राचीन कोई देव विग्रह नहीं।
 ऐतिहासिक प्रमाणों में चित्तौड़ के शिलालेखों में जो कि ईसा से पाँचवी शताब्दी पूर्व के हैं, बलदेवोपासना एवं उनके मन्दिरों की भी पुष्टि हुई है। अर्पटक, भोरगाँव नानाघटिका के शिला लेख जो कि ईसा के प्रथम द्वितीय शाताब्दी के हैं, जुनसुठी की बलदेव मूर्ति शुंगकालीन है तथा यूनान के शासक अगाथोक्लीज की चाँदी की मुद्रा पर हलधारी बलराम की मूर्ति का अंकन सभी “बलदेव जी की पूजा उपासनाऐं वंजनमान्यओं के प्रतीक” हैं।

मूर्तिकाप्राकट्य का घटनाकाल- बलदेव मूर्ति के प्राकट्य का भी एक बहुत रोचक इतिहास है। 16वीं शताब्दी में मुग़ल साम्राज्य का प्रतिष्ठा सूर्य मध्यान्ह में था। अकबर अपने भारीश्रम, बुद्धि चातुर्य एवं युद्ध कौशल से एक ऐसी सल्तनत की प्राचीर के निर्माण में रत था जो कि उस के कल्पनालोक की मान्यता के अनुसारक भी न ढहें और पीढी-दर-पीढी मुग़लिया ख़ानदान हिन्दुस्तान की सरज़मीं पर निष्कंटक अपनी सल्तनत को क़ायम रखकर गद्दी एवं ताज का उपभोग करते रहें।






मुगल काल में मन्दिर की दशा- उस धर्माद्वेषी शंहशाह औरंगजेब का मात्र संकल्प समस्त हिन्दूदेवी-देवताओं की मूर्तिभंजन एवं देवस्थान को नष्ट-भ्रष्ट करना था। एक बार जब वह मथुरा के केशवदेव मन्दिर एवं महावन के प्राचीनतम देवस्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करता आगे बढा तो उसने बलदेव जी की ख्याति सुनी व निश्चय किया कि क्यों न इस मूर्ति को तोड़ दिया जाय फलत: मूर्ति भंजनी सेना को लेकर आगे बढ़ा। कहते हैं कि सेना निरन्तर चलती रही जहाँ भी पहुँचते बलदेव की दूरी पूछने पर दो कोस ही बताई जाती जिससे उसने समझा कि निश्चय ही बल्देव कोई चमत्कारी देवविग्रह है, किन्तु अधमोन्मार्द्ध सेना लेकर बढ़ता ही चला गया जिसके परिणाम-स्वरूप कहते हैं कि भौरों और ततइयों (बेर्रा) का एक भारी झुण्ड उसकी सेना पर टूट पडा जिससे सैकडों सैनिक एवं घोडे आहत होकर काल कवलित हो गये। औरंगजेब ने स्वीकार किया देवालय का प्रभाव और शाही फ़रमान जारी किया जिसके द्वारा मंदिर को 5 गाँव की माफी एवं एक विशाल नक्कार खाना निर्मित कराकर प्रभु को भेंट किया एवं नक्कार खाना की व्यवस्था हेतु धन प्रतिवर्ष राजकोष से देने के आदेश प्रसारित किया। वहीं नक्कार खाना आज भी मौजूद है और यवन शासक की पराजय का मूक साक्षी है।

इसी फरमान-नामे का नवीनीकरण उसके पौत्र शाहआलम ने सन् 1796 फसली की ख़रीफ़ में दो गाँव और बढ़ा कर यानी 7 गाँव कर दिया जिनमें खड़ेरा, छवरऊ, नूरपुर, अरतौनी, रीढ़ा आदि जिसको तत्कालीन क्षेत्रीय प्रशासक (वज़ीर) नज़फखाँ बहादुर के हस्ताक्षर से शाही मुहर द्वारा प्रसारित किया गया तथा स्वयं शाहआलम ने एक पृथक्से आदेश चैत्र सदी 3 संवत 1840 को अपनी मुहर एवं हस्ताक्षर से जारी किया। शाह आलम के बाद इस क्षेत्र पर सिंधिया राजवंश का अधिकार हुआ। उन्होंने सम्पूर्ण जागीर को यथा स्थान रखा एवं पृथक्से भोग राग माखन मिश्री एवं मंदिर के रख-रखाव के लिये राजकोष से धन देने की स्वीकृति दिनाँक भाद्रपद-वदी चौथ संवत 1845 को गोस्वामी कल्याण देव जी के पौत्र गोस्वामी हंसराज जी, जगन्नाथ जी को दी। यह सारी जमींदारी आज भी मंदिर श्री दाऊजी महाराज एवं उनके मालिक कल्याण वंशज, जो कि मंदिर के पण्डा पुरोहित कहलाते हैं, उनके अधिकार में है।

मुग़लकाल में एक विशिष्ट मान्यता यह थी कि सम्पूर्ण महावन तहसील के समस्त गाँवों में से श्री दाऊजी महाराज के नाम से पृथक्देव स्थान खाते की माल गुजारी शासन द्वारा वसूल कर मंदिर को भेंट की जाती थी, जो मुगल काल से आज तक “शाही ग्रांट” के नाम से जानी जाती हैं, सरकारी खजाने से आज तक भी मंदिर को प्रति वर्ष भेंट की जाती है।

ब्रिटिश शासन काल में मंदिर- इसके बाद फिरंगियों का जमाना आया। ब्रज का यह मन्दिर सदैव से ही देश-भक्तों के जमावड़े का केन्द्र रहा और उनकी सहायता एवं शरण-स्थल का एक मान्य-स्रोत भी। जब ब्रिटिश शासन को पता चला तो उन्होंने मन्दिर के मालिका पण्डों को आगाह किया कि वे किसी भी स्वतन्त्रता प्रेमी को अपने यहाँ शरण न दें परन्तु आत्मीय सम्बन्ध एवं देश के स्वतन्त्रता प्रेमी मन्दिर के मालिकों ने यह हिदायत नहीं मानी, जिस से चिढ़कर अंग्रेज शासकों ने मन्दिर के लिये जो जागीरें भूमि एवं व्यवस्थाएं पूर्वशाही परिवारों से प्रदत्त थी उन्हें दिनाँक 31 दिसम्बरसन् 1841 को स्पेशल कमिश्नर के आदेश से कुर्की कर जब्त कर लिया गया और मन्दिर के ऊपर पहरा बिठा दिया जिस से कोई भी स्वतन्त्रता प्रेमी मन्दिर में न आ सके परन्तु किले जैसे प्राचीरों से आवेष्ठित मन्दिर में किसी दर्शनार्थी को कैसे रोक लेते? अत: स्वतन्त्रता संग्रामी दर्शनार्थी के रूप में आते तथा मन्दिर में निर्बाध चलने वाले सदावर्त एवं भोजन व्यवस्था का आनन्द लेते ओर अपनी कार्य-विधि का संचालन करके पुन:अपने स्थान को चले जाते। अत: प्रयत्न करने के बाद भी गदर प्रेमियों को शासन न रोक पाया।

बलभद्र कुंड (क्षीरसागर)- वैसे बलदेव में मुख्य आकर्षण श्री दाऊजी का मंदिर है किन्तु इसके अतिरिक्त क्षीर सागर तालाब जो कि क़रीब 80 गज चौड़ा 80 गज लम्बा है।जिसके चारों ओर पक्के घाट बने हुए हैं जिसमें हमेशा जल पूरित रहता है उस जल में सदैव जैसे दूध पर मलाई होती है उसी प्रकार काई (शैवाल) छायी रहती है। दशनार्थी इस सरोवर में स्नान आचमन करते हैं,पश्चात दर्शन को जाते हैं।

पर्वोत्सव- बलदेव छठ  व चैत्र कृष्ण द्वितीया को दाऊजी का हुरंगा जो कि ब्रजमंडल के होली उत्सव का मुकुटमणि है, अत्यन्त सुरम्य एवं दर्शनीय हैं और इसे बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है ।। चैत्र कृष्ण रंगपंचमी को होली उत्सव के बाद 1 वर्ष के लिये इस मदन-पर्व को विदायी दी जाती है। वैसे तो बलदेव में प्रतिमाह पूर्णिमा को विशेष मेला लगता है फिर भी विशेष कर चैत्रपूर्णिमा, शरदपूर्णिमा, मार्गशीर्ष पूर्णिमा एवं देवछट को भारी भीड़ होती है। इसके अतिरिक्त वर्ष-भर हजारों दर्शनार्थी प्रतिदिन आते हैं।भगवान विष्णु के अवतारों की तिथियों को विशेष स्नान भोग एवं अर्चना होती है तथा 2 बार स्नान श्रृंगार एवं विशेष भोग राग की व्यवस्था होती है। यहाँ का मुख्य प्रसाद माखन एवं मिश्री है तथा खीर का प्रसाद, जो कि नित्य भगवान ग्रहण करते हैं ।

दर्शन का समयक्रम- यहाँ दर्शन का क्रम प्राय: गर्मी में अक्षय तृतीया से हरियाली तीज तक प्रात: 6 बजे से 12 बजे तक दोपहर 4 बजे से 5 बजे तक एवं सायं 7 बजे से 10 तक होते हैं। हरियाली तीज से प्रात: 6 से 11 एवं दोपहर 3-4 बजे तक एवं रात्रि 6-1/2 से 9 तक होते हैं।


यहाँ की विशेषताएं-  समय पर दर्शन, एवं उत्सवों के अनुरूप यहाँ की समाज को गाय की अत्यन्त प्रसिद्ध है। यहाँ की साँझीकला जिसका केन्द्र मन्दिर ही है जो कि अत्यन्त सुप्रसिद्ध है। बलदेव नगरी के लोगों में पट्टेबाजी का, अखाड़ेबन्दी (जिसमें हथियार चलाना लाठी भाँजना आदि) का बड़ा शौक़ है समस्त मथुरा जनपद एवं पास-पड़ौसी जिलों में भी यहाँ का `काली का प्रदर्शन' अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि का है। बलदेव के मिट्टी के बर्तन बहुत प्रसिद्ध हैं। यहाँ का मुख्य प्रसाद माखन मिश्री तथा श्री ठाकुर जी को भाँग का भोग लगने से यहाँ प्रसाद रूप में भाँग पीने के शौक़ीन लोगों की भी कमी नहीं। भाँग तैयार करने के भी कितने ही सिद्धहस्त-गुरु हैं । यहाँ की समस्त परम्पराओं का संचालन आज भी मन्दिर से होता है। यदि सामंती युग का दर्शन करना हो तो आज भी बलदेव में प्रत्यक्ष हो सकता है। आज भी मन्दिर के घंटे एवं नक्कारखाने में बजने वाली बम्ब की आवाज से नगर के समस्त व्यापार व्यवहार चलते हैं।

यहाँ पर दर्शनार्थ के लिये आने वाले महापुरुष-
                  जीर्णोद्धार से पहले का दृश्य

महामना मालवीय जी, पं०मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, मोहनदास करमचन्दगाँधी (बापू) माता कस्तूरबा, राष्ट्रपति डॉ०राजेन्द्रप्रसाद, राजवंशी देवीजी, डॉ०राधाकृष्णजी, सरदार बल्लभभाई पटेल, मोरारजी देसाई, दीनदयाल जी उपाध्याय, जैसे श्रेष्ठ राजनीतिज्ञ, भारतेन्दु बाबू हरिशचन्द्रजी, हरिओमजी, निरालाजी, भारत के मुख्यन्यायाधीश जस्टिस बांग्चू ,के०एन० जी जैसे महापुरुष बलदेव दर्शनार्थ आ चुके हैं |


ओमन सौभरि भुर्रक, भरनाकलां, मथुरा


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